Thursday, December 29, 2016

#048 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#048 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 6 और 7*

5/6
*सन्न्यास्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत: !*
*योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति !!*


5/7
*योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितिन्द्रियः !*
*सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
परन्तु, हे महाबाहो (अर्जुन) ! कर्मयोग के बिना संन्यास (सांख्ययोग) पाना कठिन है. मननशील कर्मयोगी (कर्तव्य-कर्म करने वाला व्यक्ति) शीघ्र ही ब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है. (5/6)

ऐसा कर्मयोगी (कर्तव्य-कर्म करने वाला व्यक्ति) कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बंधता है, जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं, जिसका अंतःकरण निर्मल है, जिसने अपने शरीर को वश में किया हुआ है और जिसकी आत्मा ही सभी प्राणियों की आत्मा है. (5/7)

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, December 22, 2016

#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 3 से 5*


5/3
*ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति !*
*निर्द्वंदो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते !!*


5/4
*साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: !*
*एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् !!*


5/5
*यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते !*
*एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
हे महाबाहो ! जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा (चाहना) करता है, वह (कर्तव्य-कर्म करता कर्मयोगी) सदा संन्यासी ही मानने योग्य है, क्योंकि द्वंदों से रहित व्यक्ति सहज ही (सुख के साथ) संसार बंधन से मुक्त हो जाता है. (5/3)

अज्ञानी संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को अलग-अलग फल (परिणाम) देने वाले मानते हैं. पर ज्ञानी के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों में से किसी एक का अनुसरण करता है वह दोनों के फल (परिणाम) प्राप्त कर लेता है. (5/4)


जो तत्व (फल या परिणाम) ज्ञानयोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्व (फल या परिणाम) कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं. जो व्यक्ति संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को समान देखता है, वह ठीक देखता है. (5/5)

*प्रसंगवश*

संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग की साधन-प्रणाली भिन्न है, पर साध्य एक ही है.

संन्यास = सांख्ययोग --> ज्ञानयोग

कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों का फल आत्मज्ञान अर्थात कल्याण अर्थात परमात्मा को प्राप्त करना है.
संसार से सम्बन्ध-विच्छेद के दो योगमार्ग हैं - ज्ञानयोग (संन्यास) और कर्मयोग. ज्ञानयोग में विवेक-विचार द्वारा सम्बन्ध-विच्छेद होता है और कर्मयोग में दूसरों की निष्कामभाव से सेवा करने से कामना-आसक्ति से सम्बन्ध-विच्छेद होता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Wednesday, December 21, 2016

*#046 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


*#046 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 1 व 2*

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अब तक (गीता अध्याय 4 तक) जो गीता ज्ञान दिया, उसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग, संन्यास आदि की चर्चा करते हुए कल्याण के मार्ग का उपदेश दिया. अब अर्जुन यह जानना चाहता है कि उसके लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है.

5/1
*अर्जुन उवाच*
*संन्यास कर्मणां कृष्ण पुनयोगं व शंससि !*
*यच्छेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् !!*


*भावार्थ*

अर्जुन श्रीकृष्ण से -
हे कृष्ण ! पहले आप कर्मों का त्याग करने और फिर कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं. इन दोनों में से जो एक निश्चित ही मेरे लिए श्रेयस्कर (कल्याणकारक) हो, वह मुझे कहें.

5/2
*श्रीभगवानुवाच*
*संन्यास: कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ !*
*तयोस्तु कर्मसंन्यासयात् कर्मयोगो विशिष्यते !!*


*भावार्थ*

श्रीभगवान कृष्ण कहते हैं -
संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म का आचरण) दोनों ही कल्याण करने वाले हैं, पर इन दोनों में संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है.

*प्रसंगवश*

कोई भी व्यक्ति संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग का पालन कर सकता है.

संन्यास = सांख्य योग
सांख्य योग की साधना में विवेक विचार की प्रमुखता होती है.

कर्मयोग = कर्तव्य-कर्म करना
कर्मयोग में निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना होता है. कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता. निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म करने से तात्पर्य है कर्मों के बदले अपने लिए कुछ भी पाने की इच्छा न होना. कुछ पाने की इच्छा का अर्थ है कि हम कर्मों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर पाए हैं और यही कल्याण करे मार्ग में सबसे बड़ी बढ़ा है.

*संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग*

कर्मयोग के बिना संन्यास (सांख्य योग) का साधन होना कठिन है. कर्म करने का राग कर्म करने से मिटता है. सांख्य योग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है, पर कर्मयोग में सांख्य योग की आवश्यकता नहीं है.

कर्मयोगी निःस्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्म करता है, अतः वह कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है.

सांख्य योगी कर्म का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Friday, December 16, 2016

#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख


*#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख*


कर्मयोग ज्ञान बहुत ही प्राचीन है. हम कर्मयोग का पालन कर परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण कर सकते हैं. कर्म संसार के लिए होते हैं और योग स्वयं के लिए होता है. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

जब जब धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब श्रीभगवान पृथ्वी पर प्रकट होते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है.

श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए. हमें निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है. हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

अज्ञान की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती. अज्ञान सर्वदा नहीं रहता. अज्ञान यदि हट गया तो सर्वदा के लिए हट गया. अज्ञान का नाश सदा के लिए होता है. जो ज्ञान को एक बार जान लेता है, वह सदा के लिए अज्ञान से निवृत हो जाता है. ज्ञान (अर्थात् तत्वज्ञान) को जानने के बाद मोह नहीं रहता.

सादर,

केशव राम सिंघल




#044 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#044 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 4 - श्लोक 39 से 42*

4/39
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रियः !*
*ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति !!*


4/40
*अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति !*
*नायं लोकोअस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः !!*


4/41
*योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसज्छिन्नसंशयम् !*
*आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय !!*


4/42
*तस्मादज्ञानसम्भूतं ह्यतस्थनं ज्ञानासिनात्मनः !*
*छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) -

जो व्यक्ति श्रद्धावान है, ज्ञान को समर्पित है तथा जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करके जल्द ही परमशान्ति को प्राप्त लेता है. (4/39)

विवेकहीन (अज्ञानी), श्रद्धा न रखने वाला और संशय रखने वाला व्यक्ति का पतन होता है. संशयी व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है और न ही परलोक है और न ही सुख है. (4/40)

हे अर्जुन ! जिसने योग द्वारा संपूर्ण कर्मों से संन्यास (सम्बन्ध-विच्छेद कर) लिया है, ज्ञान के द्वारा जिसके संशय नष्ट (दूर) हो गए हैं, ऐसे व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते हैं. (4/41)

इसलिए, हे अर्जुन ! हृदय में स्थित इस अज्ञान से पैदा हुए अपने संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डालो, योग (समता) में स्थित होकर कर्म (युद्ध) के लिए खड़े हो जाओ. (4/42)

*प्रसंगवश*

श्रद्धा-विश्वास और विवेक की जरुरत हम सभी को है. कर्मयोग और ज्ञानयोग में विवेक की प्रमुखता है और भक्तियोग में श्रद्धा-विश्वास की प्रमुखता है. ज्ञान (तत्वज्ञान) सर्वदा रहता है, यह संसार की उत्पत्ति से पूर्व भी था, अभी भी विद्यमान है और संसार के नष्ट होने के बाद भी रहेगा.

ज्ञान हो और श्रद्धा हो तो संशय मिटता है. पर जिसमें ज्ञान और श्रद्धा दोनो का अभाव है, उसका संशय नहीं मिट पाता. वह न तो स्वयं जान पाता है और न ही दूसरों को मान पाता है, उसका पतन निश्चित है.

हमें अज्ञान के फलस्वरूप पैदा अपने संशय को ज्ञानरुपी तलवार से काटकर कर्तव्य-कर्म की ओर बढ़ना चाहिए.

(गीता अध्याय 4 समाप्त।)

सादर,

केशव राम सिंघल



Tuesday, December 6, 2016

#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 29 से 34*


4/29
*अपने जुह्वति प्राणं प्राणेअपानं तथापरे !*
*प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा !!*


4/30
*अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति !*
*सर्वेअप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा !!*


4/31
*यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म संतनाम् !*
*नायं लोकोअस्त्ययज्ञस्य कुतोअन्य: कुरुसंत्तम !!*


4/32
*एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे !*
*कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे !!*


4/33
*श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप !*
*सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञान परिसमाप्यते !!*


4/34
*तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया: !*
*उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
कुछ योगी अपानवायु में प्राण वायु को हवन करते हैं और अपानवायु में प्राण वायु की आहुति देते हैं, प्राण और अपान की गति रोककर वे प्राणायाम (समाधि) के लिए समर्पित रहते हैं. (4/29)

नियमित आहार करने वाले कुछ अन्य योगी प्राणों की प्राणों में आहुति देते हैं. ये सभी योगी यज्ञों को जानने वाले हैं और इनके पाप यज्ञों द्वारा समाप्त हो जाते हैं. (4/30)

हे अर्जुन ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले श्रीभगवान को प्राप्त होते हैं. जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, उसके लिए यह मनुष्यलोक सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? (4/31)

ऐसे बहुत से यज्ञों का वर्णन वेदवाणी में विस्तार से हुआ है. इन सब यज्ञों को कर्मों से उत्पन्न (अर्थात कर्मजन्य) जान और इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा. (4/32)

हे अर्जुन ! द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है. हे पार्थ ! सारे कर्म और पदार्थ ज्ञान में समाप्त (लीन) हो जाते हैं. (4/33)

उस ज्ञान के लिए तुम ज्ञानियों के पास जाकर उनको सादर प्रणाम करो और सेवा करो, सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे अनुभवी ज्ञानी उस ज्ञान का तुम्हें उपदेश देंगे. (4/34)

*प्रसंगवश*

अध्याय 4 के श्लोक 29 व 30 में जिस यज्ञ का वर्णन हुआ है, वह एक प्रकार का प्राणायाम यज्ञ है, जिसमें योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपान में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं.

*प्राणों की प्राणों में आहुति* = प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना = ना श्वास बाहर निकालना और ना श्वास भीतर लेना.

*यज्ञ* = नि:स्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करना

यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं.

गीता के अध्याय 4 में 24वें से 30वे श्लोक तक कुल ग्यारह तरह के यज्ञ बताए हैं. इसके अलावा विषय-हवन यज्ञ का सन्दर्भ गीता के अध्याय 2 के श्लोक 64 व 65 में आया है. इस तरह बारह तरह के ये यज्ञ निम्न हैं:

*ब्रह्मयज्ञ* - योगी द्वारा प्रत्येक कर्म में ब्रह्मरुप अनुभव करना. (सन्दर्भ श्लोक 24)

*देवयज्ञ* - समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों अपना और अपने लिए ना मानना. (सन्दर्भ श्लोक 25)

*विचाररुप यज्ञ* - कर्तव्यकर्म यज्ञ = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों की सेवा के लिए कर्म करना (सन्दर्भ श्लोक 25)

*संयमरूप यज्ञ* - संयम रखना = इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों में प्रवृत ना होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 26)

*समाधिरुप यज्ञ* - मन-बुद्धि सहित सभी इंद्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में लीन होना. (सन्दर्भ श्लोक 27)

*द्रव्य यज्ञ* - संसार में मन्दिर, धर्मशाला, विद्यालय आदि बनवाना, गरीब लोगों को अन्न, वस्त्र, औषध आदि दान देना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*तपो यज्ञ* - अपने कर्तव्य पालन में जो कठिनाईयां आएं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*योगयज्ञ* = अंतःकरण की समता रखना = कार्य होने और कार्य ना होने, परिणाम मिलाने और ना मिलाने, अनुकूल और प्रतिकूल (विपरीत) परिस्थिति में, प्रशंसा होने और निन्दा होने में, आदर और निरादर में समान भाव रखना = अंतःकरण में हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का ना होना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ* = लोकहित में धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन करना, अपनी वृतियों और जीवन का अध्ययन करना. गीता का अध्ययन स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ का एक भाग है. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपन में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं. (सन्दर्भ श्लोक 29)

*नियमित आहार करते हुए प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा नियमित आहार लिया जाता है और उपर्युक्त प्राणायाम यज्ञ किया जाता है. (सन्दर्भ श्लोक 30)

*विषय-हवन यज्ञ* - समस्त राग-द्वेष से मुक्त होकर अपनी इंद्रियों को वश में करना अर्थात् व्यवहारकाल में इंद्रियों का विषयों से संयोग होने पर राग-द्वेष ना पैदा होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 64 व 65 - अध्याय 2)

उपर्युक्त वर्णित बारह प्रकार के यज्ञों में स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ ज्ञान प्राप्ति का साधन है, जिसके आठ अंतरंग साधन हैं - (1) विवेक, (2) वैराग्य, (3) शमादि षट्सम्पत्ति (शाम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), (4) मुमुक्षता, (5) श्रवण, (6) मनन, (7) निदिध्यासन, (8) तत्त्वपदार्थसंशोधन

*विवेक* = सत् और असत् को अलग-अलग जानना
*वैराग्य* = सत् और असत् को जानकर असत् का त्याग करना अर्थात् संसार से विमुख होना.
*शम* = मन को इंद्रिय विषयों से हटाना
*दम* = इन्द्रियों को विषयों से हटाना
*श्रद्धा* = ईश्वर, शास्त्र आदि का पूज्यभाव से विश्वास करना
*उपरति* = वृतियों का संसार की ओर से हट जाना
*तितिक्षा* = सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को उपेक्षाभाव से सहना
*समाधान* = अंत:करण में शंकाओं का ना रहना
*मुमुक्षता* = संसार से छूटने की इच्छा
*श्रवण* = शास्त्रों को भावपूर्वक सुनना
*मनन* = चिंतन करना
*निदिध्यासन* = विपरीत भावना (संसार की सत्ता को मानना और ईश्वर की सत्ता को ना मानना) को हटाना अर्थात् संसार की सत्ता को ना मानकर ईश्वर की सत्ता को मानना

सादर,

केशव राम सिंघल



#041 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#041 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 27 व 28*


4/27
*सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे: !*
*आत्मसंयमयोगागनौ जुह्वति ज्ञानदीपते !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कुछ योगी अपनी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों की सभी क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योगरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् मन-बुद्धि सहित सभी इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में लीन हो जाते हैं.

4/28
*द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे !*
*स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कुछ योगी महाव्रत करनेवाले प्रयत्नशील द्रव्ययज्ञ करते हैं, कुछ तपोयज्ञ, कुछ योगयज्ञ और कुछ स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ करते हैं.

*प्रसंगवश*

*समाधि और निद्रा में अंतर ?*

समाधि और निद्रा दोनोँ का शरीर से सम्बन्ध है. बाहर से दोनों की समान अवस्था दिखाई पड़ती है, पर दोनों में भिन्नता है. समाधिकाल में ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत) रहता है, जबकि निद्राकाल में वृतियां अज्ञान में लीन हो जाती हैं. समाधिकाल में प्राणों की गति रुक जाती है, जबकि निद्राकाल में प्राणों की गति चलती रहती है.

*महाव्रत* = सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य का पालन, अपरिग्रह पालन (भोगबुद्धि से संग्रह से दूर रहना) और चोरी न करना.

*द्रव्ययज्ञ* = संसार हित में मंदिर, धर्मशाला, विद्द्यालय आदि बनवाना, गरीब लोगों को दान देना.

*तपोयज्ञ* = अपने कर्तव्यपालन में जो भी कठिनाईयां आएं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना.

*योगयज्ञ* = अंतःकरण की समता रखना = कार्य होने और कार्य ना होने, परिणाम मिलाने और ना मिलाने, अनुकूल और प्रतिकूल (विपरीत) परिस्थिति में, प्रशंसा होने और निन्दा होने में, आदर और निरादर में समान भाव रखना = अंतःकरण में हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का ना होना.

*स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ* = लोकहित में धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन करना, अपनी वृतियों और जीवन का अध्यन करना. गीता का अध्ययन स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ का एक भाग है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, December 1, 2016

#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 23 से 26*


4/23
*गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः !*
*यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते !!*


4/24

*ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् !*
*ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना !!*


4/25
*दैवमेवापरे यज्ञन् योगिन: पर्युपासते !*
*ब्रह्माग्नावपरे यज्ञन् यज्ञेनैवोपजुह्वति !!*


4/26
*श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति !*
*शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जिस व्यक्ति की आसक्ति समाप्त हो गयी है, जो (कर्मबंधन से) मुक्त हो गया है, जिसका मन (बुद्धि) पूर्ण ज्ञान में स्थित है, यज्ञ (दूसरों के हित) के लिए कर्म करने वाले ऐसे व्यक्ति के सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् ऐसे व्यक्ति के कर्म अकर्म हो जाते हैं. (4/23)

जिस व्यक्ति के लिए अर्पण ब्रह्म है, हवन पदार्थ (टिल, घी, जौ आदि) भी ब्रह्म है और जो व्यक्ति ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देता है, जिस व्यक्ति की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो जाती है, ऐसे व्यक्ति को ब्रह्म ही प्राप्त होता है. (4/24)

कुछ योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और दूसरे (योगी) ब्रह्मरुप अग्नि में विचाररुप यज्ञ का हवन करते हैं. (4/25)

कुछ योगी श्रोत्रादि समस्त इंद्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे (योगी) शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन करते हैं. (4/26)

*प्रसंगवश*

योगिन: = योगी = यज्ञार्थ कर्म करने वाले निष्काम साधक (जो समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों को अपना और अपने लिए नहीं मानते हैं)

दैव यज्ञ = समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना और अपने लिए न मानना दैव यज्ञ है.

विचाररूपी यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन = संसाररूपी ब्रह्म (दूसरों की सेवा) के लिए कर्तव्य-कर्म रूप यज्ञ अर्थात यज्ञार्थ कर्म करना

श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन = पांचो इन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण) का अपने विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) की प्रवृत न होना = संयम रखना

शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन = व्यवहारकाल में विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) से संयोग होते रहने पर भी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न न होने देना.

यज्ञायाचरतः कर्म = कर्म में अकर्म देखना = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों के हित में कर्म करना

स्वार्थभाव का त्याग कर दूसरों के हित के लिए (अर्थात् लोक हित में) कर्म करने से व्यक्ति आसक्ति रहित और आसक्ति से मुक्त हो जाता है.

जब व्यक्ति दूसरों के हित के लिए कर्म करता है तो वह कर्मयोगी हो जाता है. कर्मयोग से बंधन मिटता है. और बंधन मिटने से योग हो जाता है और इसी से परमात्मा के साथ सर्वदा-सम्बन्ध का अनुभव होने लगता है.

*प्रतिक्षण हम मर रहे हैं*

प्रकृति के सभी कार्य संसार का स्वरूप हैं. तीन अवस्थाएं हमें दिखती हैं - उत्पत्ति होना, स्थिति में रहना और प्रलय हो जाना. अर्थात् व्यक्ति या वस्तु की उत्पत्ति होती है, फिर वह व्यक्ति या वस्तु इस संसार में रहता है और अंत में नष्ट हो जाता है. व्यक्ति इस भौतिक संसार में जन्म लेता है, फिर रहता है और अंत में आयु पूरी हो जाने पर मर जाता है. मान लें की किसी व्यक्ति की आयु 100 वर्ष है और उसने पैसंठ वर्ष आयु पूरी कर ली है अर्थात् पैसठ वर्ष पूरे हो जाने पर उसकी आयु केवल पैतीस वर्ष की रह गयी है अर्थात् प्रतिक्षण हम मर रहे हैं. इस भौतिक संसार में केवल उत्पत्ति और प्रलय (नष्ट होने) का क्रम चलता रहता है. हमारे जीवन का प्रतिक्षण मृत्यु (प्रलय) की और अग्रसर हो रहा है. प्रलय ही सत्य है, नष्ट होना सत्य है, इसे समझने की जरुरत है.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है.

*प्रसंगवश*

श्रीभगवान का संदेश बहुत ही स्पष्ट है कि हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Sunday, November 27, 2016

#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 19 से 22*


4/19
*यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिताः !*
*ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणन् तमाहु: पंडितं बुधा: !!*


4/20
*व्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: !*
*कर्मण्यभिप्रवृत्तोअपि नैव किञ्चित्करोति स: !!*


4/21
*निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः !*
*शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् !!*


4/22
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः !*
*सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
जिसके सभी कर्म शुरू से संकल्प और कामना से रहित होते हैं, जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से भस्म हो गए हैं, उसे ज्ञानीजन भी बुद्धिमान कहते (मानते) हैं. (4/19)

जो (व्यक्ति) कर्म और फल की आसक्ति त्याग कर सदा स्वतंत्र (निराश्रय) और संतुष्ट (तृप्त) है, वह कर्मों में भली प्रकार लगा हुआ भी कुछ नहीं करता. (4/20)

जिसका अन्तकरण मन वश में है, जिसने सभी प्रकार के संग्रह (संपत्ति आदि के स्वामित्व) का त्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित व्यक्ति (कर्मयोगी) केवल शरीर संबन्धी कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता. (4/21)

अपंने आप (बिना किसी इच्छा के) जो मिल जाएँ उसमें संतुष्ट, द्वंदों से दूर रहता हुआ ईर्ष्या रहित सिद्धि (पाने) और असिद्धि (न पाने) में समभाव रखता है, वह कर्म करते हुए भी (कर्म से) नहीं बंधता. (4/22)


*प्रसंगवश*

कर्म का संकल्प के साथ होना = कर्म का चिंतन करते समय यह विचार आना कि कर्म जीवन में काम में आने वाला है अर्थात उपयोगी है.

कर्म का संकल्प रहित होना = कर्म के बारे में फल या उपयोगिता का विचार ही ना आए

संकल्प और कामना (इच्छा रखना) कर्म के बीज हैं. जब संकल्प और कामना नहीं रहती है तब किए जाने वाला कर्म अकर्म हो जाता है.

ज्ञानरूपी अग्नि से कर्म का भस्म होना = कर्म-अकर्म के संपूर्ण ज्ञान से कर्मफल के चिंतन को समाप्त करना

प्रत्येक व्यक्ति को इस संसार में कर्म करने होते हैं. यह व्यक्ति पर है कि वह कर्म किस प्रकार करता है. कर्मफल की आसक्ति का त्याग करते हुए इच्छारहित होकर निष्कामभाव से हमें कर्तव्य कर्म करना चाहिए, जिससे दूसरों को लाभ मिले. यही गीता ज्ञान का सार है, यही प्रभु की इच्छा है और इसी में हमारा कल्याण है.

*निर्लिप्तता का उदाहरण* - कमल का पौधा जल में रहता है और कमल के पौधे का पत्ता वहीं उत्पन्न होता है, वहीं बढ़ता है और वहीं रहता है, फिर भी जल से निर्लिप्त रहता है.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

सादर,

केशव राम सिंघल

#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 15 से 18*


4/15
*एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: !*
*कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् !!*


4/16
*किं कर्म किमकर्मेति कवयोअप्यत्र मोहिता: !*
*तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेअशुभात् !!*


4/17
*कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः !*
*अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: !!*


4/18
*कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: !*
*स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् !!*



*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
पूर्वकाल के कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों (मुमुक्षुओं) ने भी यह जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा किए जाने वाले कर्मों को उन्हीं की तरह कर ! (4/15)

कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में विद्वान भी मोहित (भ्रमित) हो जाते हैं. कर्म क्या है, यह मैं तुझे अच्छी तरह से कहूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे. (4/16)

व्यक्ति को कर्म, अकर्म और विकर्म को जानना चाहिए, क्योंकि कर्म के बारे में समझना अत्यन्त कठिन है. (4/17)

जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह् व्यक्तियों में बुद्धिमान है, योगी है और समस्त कर्मों को करने वाला है. (4/18)

*तात्पर्य*

मुमुक्षा जाग्रत होना = वैराग्य का अनुभव होना
मुमुक्षु = कल्याण चाहने वाला व्यक्ति

श्रीभगवान के उपदेश का सार है कि जिस तरह मुमुक्षुओं ने (कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों ने वैराग्य का अनुभव होने पर भी) कर्मयोग की महत्ता को जानकर कर्तव्य-कर्म किए हैं, इसलिए हमें भी निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*प्रसंगवश*

*कर्मयोग की महत्ता*

कर्मयोग = कर्म करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना.

कर्म संसार के लिए और योग अपने लिए. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है, यह बात हमें समझनी चाहिए. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.


सादर,

केशव राम सिंघल

Saturday, November 26, 2016

#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 4 - श्लोक 11 व 12*

4/11
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - हे पार्थ (अर्जुन) ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण में आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार आश्रय देता हूँ, क्योंकि वे सभी (व्यक्ति) हर तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं.

4/12
*काडन्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त: इह देवता: !*
*क्षिप्रं ही मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कर्मों का फल चाहने वाले व्यक्ति देवताओं की उपासना करते हैं क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं.

*प्रसंगवश* - हमारे मन में यह बार दृढ है कि कर्म किए बिना कुछ नहीं मिलता. हम ऐसा मानते हैं कि जैसे सांसारिक वस्तुओं (जैसे धन, सम्पदा आदि) की प्राप्ति कर्म करने से होती है, उसी प्रकार हमारा कल्याण भी कर्म करने से होगा. यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है और कर्मों का फल ही हमें इस लोक या परलोक में मिलता है, ऐसा हम मानते हैं. कर्मजन्य फल की कामना के कारण हम कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाते हैं और जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है. यह बात हमें समझनी चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 13 व 14*

4/13
*चातुर्वणर्यन् मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: !*
*तस्या कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययं !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मैंने ही गुणों और कर्मों को बाँटकर चार वर्णों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की है. उस सृष्टि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तू अकर्ता जान.

4/14
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा !*
*इति मां योअभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मुझे कर्म प्रभावित नहीं करते हैं, कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (महत्वाकांक्षा) नहीं है. इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह कर्मों के फल से कभी नहीं बंधता.

*प्रसंगवश* - श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोइ महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए.


सादर,

केशव राम सिंघल



Tuesday, November 22, 2016

#036 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#036 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण !


4/5
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन !
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप !!


भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे परन्तप (अर्जुन)! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं. उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता.

प्रसंगवश - इस श्लोक में पुनर्जन्म की शाश्वत व्यवस्था को इंगित किया गया है और बताया गया है कि शरीर बदलने के साथ जीवात्मा सब कुछ भूल जाता है, जैसे अर्जुन अपने पूर्व जन्मों को भूल चुका है.

4/6
अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन !
प्रकृतिं स्वामधिष्ढाय सम्भवाक्यात्ममायया !!


भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए अपनी प्रकृति को अधीन कर अपनी योगमाया से इस पृथ्वी पर प्रकट हुआ हूँ।

प्रसंगवश - श्रीभगवान अपनी प्रकृति के अनुसार समय-समय पर इस पृथ्वी पर अवतार लेते हैं।

4/7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् !!


भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
हे भरतवंशी (अर्जुन)! जब जब धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं प्रकट होता (जन्म लेता) हूँ.

4/8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् !
धर्मसंस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में जन्म लेता (प्रकट होता) हूँ.

4/9
जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः: !
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नीति मामेति सोअर्जुन !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - हे अर्जुन ! जो मेरे दिव्य रूप और कर्मों की वास्तविक प्रकृति को जानता है, वह अपने शरीर को त्यागने के बाद पुन: जन्म नहीं लेता है. वह मुझे ही प्राप्त होता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है.

4/10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः !
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - राग (आसक्ति), भय और क्रोध से मुक्त मुझमें तन्मय होकर मेरी शरण में आकर अनेक व्यक्ति ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मुझे प्राप्त कर चुके हैं अर्थात् अनेक व्यक्तियों का कल्याण हो चुका है.

सादर,

केशव राम सिंघल



Friday, November 4, 2016

#035 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#035 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

4/2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः !
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप !!

4/3
स एवायं मया तेअद्य योग: प्रोक्त: पुरातन !
भक्तोअसी मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् !!

4/4
अर्जुन उवाच -
अपरं भवतो जन्म परं जन्म वैवस्वत: !
कथमेत द्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति !!


भावार्थ

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
हे परन्तप (अर्जुन) ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना परंतु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस पृथ्वी लोक से लुप्तप्राय हो गया। (4/2)

तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र है, इसलिए यह पुरातन योग मैंने आज तुझसे कहा है, क्योंकि यह उत्तम रहस्य (ज्ञान) है। (4/3)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा -
आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म तो बहुत पुराना है, अतः आपने ही सृष्टि के आरम्भ में यह योग कहा था, यह बात मैं कैसे मानूँ? (4/4)

प्रसंगवश

कर्म संसार के लिए होते हैं और योग स्वयं के लिए होता है। व्यक्ति को यह शरीर कर्मयोग का पालन करने के लिए मिला, पर स्वार्थ बढ़ जाने के कारण सेवा की तरफ व्यक्ति का ध्यान नहीं रहा। इस प्रकार जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला, उसे भूल जाना कर्मयोग का लुप्त होना रहा।

श्लोक 4 में अर्जुन श्रीभगवान कृष्ण से अपनी जिज्ञासा जानना चाहते हैं कि किस प्रकार श्रीकृष्ण ने इस कर्मयोग की जानकारी सूर्य को बताई।

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, November 3, 2016

#034 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#034 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 4
ज्ञान कर्म संन्यास योग
दिव्य ज्ञान

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् !
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत !! (4/1)


भावार्थ
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग) को सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत (मनु) से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इस्वाकु से कहा।

तात्पर्य

यहां श्रीकृष्ण के कहने का तात्पर्य है कि गृहस्थों ने कर्मयोग की शिक्षा को जानकर अपनी कामनाओं का नाश कर अपना कल्याण किया। उसी प्रकार व्यक्ति कर्मयोग का पालन कर परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण कर सकता है।

प्रसंगवश

अभी कलयुग चल रहा है और अभी कलयुग के केवल लगभग 5,000 वर्ष ही बीते हैं। कलयुग की पूर्णायु 4,32,000 वर्ष है। कलयुग से पहले द्वापरयुग 8,00,000 वर्ष का था और इससे पूर्व त्रेतायुग 12,00,000 वर्ष का था। इस प्रकार लगभग 20,05,000 वर्ष पूर्व गीता ज्ञान मनु ने अपने पुत्र इस्वाकु को कहा था। श्रीकृष्ण ने इस ज्ञान को लगभग 5,000 वर्ष पूर्व अर्जुन से पुनः कहा। हमें इस ज्ञान का लाभ लेना चाहिए।

चलते-चलते

# श्रद्धा का अर्थ है अटूट विश्वास।
# ईश्वर, आत्मा, आध्यात्म ज्ञान श्रद्धा के विषय हैं।

कथ्य-विशेष

गीता-ज्ञान लाभप्रद है। यह मानव के जीवन उद्देश्य की प्राप्ति और मानव कल्याण के लिए अत्यंत सहायक है। गीता का श्रवण या अध्ययन व्यक्ति को अपने हित के लिए करना चाहिए। हमें यह भ्रान्ति रहती है कि अधिक से अधिक भौतिक सुविधाओं की प्राप्ति से हम सुखी रह सकते हैं। हमें ईश्वर की महानता स्वीकार करनी चाहिए और यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए कि जीवों की वास्तविक स्थिति क्या है? हमें गीता का श्रवण या अध्ययन कर लाभान्वित होने का प्रयास करना चाहिए।

गीता में आध्यात्मिक ज्ञान भरा पड़ा है। यह आध्यात्मिक साहित्य का महत्वपूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है। गीता का मर्म गीता में ही अभिव्यक्त है। गीता-ज्ञान के वक्ता श्रीकृष्ण हैं, जो ईश्वर (अव्यक्त) के व्यक्त स्वरूप हैं।

गीता को भक्तिभाव से ग्रहण करना चाहिए। गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार से उबारना है। हमारा अस्तित्व अव्यक्त (अनस्तित्व) के परिवेश में है। हमें अव्यक्त (अनस्तित्व) से डरने की आवश्यकता नहीं है। हमें गीता से यह जानने का अवसर मिलता है कि ईश्वर क्या है, आत्मा क्या है, जीव क्या है, प्रकृति क्या है, यह संसार, जो दिखता है (अर्थात् दृश्य-जगत), क्या है, यह काल कैसे नियंत्रित होता है और जीवों के कार्य-कलाप क्या हैं?

ईश्वर सर्वश्रेष्ठ है। ईश्वर हमारा नियन्ता है। हम भौतिक जगत में रहते हैं, जिसकी भौतिक प्रकृति ईश्वर द्वारा नियंत्रित है। हमें यह जानना और स्वीकार करना चाहिए कि इस जगत के पीछे नियन्ता का हाथ है।

हममें भी सूक्ष्म-ईश्वर विद्यमान है। वह (ईश्वर) हर जगह रहता है।

श्रद्धा का अर्थ है अटूट विश्वास। गीता श्रवण या अध्ययन भी श्रद्धा का विषय है।

सादर,

केशव राम सिंघल



Wednesday, November 2, 2016

#033 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#033 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 3 - कर्मयोग - से मेरी सीख


गीता अध्याय 3 कर्तव्य कर्म करने को प्रमुखता देता है। इस अध्याय में प्रमुखता से बताया गया है कि निष्काम भाव से आसक्ति से दूर रहकर दूसरों के हित में अपने कर्तव्य कर्म का पालन करना चाहिए।

कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि की प्रधानता है। जब व्यक्ति अपने कल्याण के लिए निश्चय कर लेता है, तब अनुकूलता या प्रतिकूलता उसे बाधित नहीं कर पाती। निश्चयात्मक बुद्धि के मार्ग में भोग और संग्रह की आसक्ति बाधा है। हमें भोग और संग्रह की आसक्ति से दूर रहना चाहिए।

इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है। जो वस्तुएं हमें इस भौतिक संसार में मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उपयोग करना चाहिए। इंद्रियों को वश में कर कामना का दमन किया जा सकता है। हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिए।

सादर,

केशव राम सिंघल

Thursday, October 20, 2016

#032 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#032 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

अथ केन प्रयुक्तोअयं पापं चरति पूरुष: !
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित !!
(3/36)

भावार्थ - अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं - हे वार्ष्णेय ! व्यक्ति न चाहते हुए भी जबर्दस्ती नियोजित रूप से पाप का आचरण करने के लिए क्यों प्रेरित होता है?

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:!
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् !!
(3/37)

भावार्थ

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - रजोगुण से उत्पन्न यह काम ही पाप का कारण है। पाप से क्रोध उत्पन्न होता है, जो सर्वभक्षी महापापी है, जिसे तू अपना शत्रु समझ।

तात्पर्य - जो मैं चाहूं वही मिले, यही काम है। पदार्थो, धनादि के संग्रह की इच्छा, सुख की आसक्ति ये सभी काम के रूप हैं। आसक्ति से रजोगुण और रजोगुण से कामना पैदा होती है। कामना में बाधा होने से क्रोध उत्पन्न होता है।


धूमेनाव्रियते वहिनर्यथादर्शो मलेन च !
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् !!
(3/38)

भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
जैसे धुंए से अग्नि और मैल से दर्पण ढका रहता है, जैसे भ्रूण गर्भाशय द्वारा ढका रहता है, उसी प्रकार कामना द्वारा यह ज्ञान/विवेक ढका हुआ है।

प्रसंगवश

यहां यह स्पष्ट संकेत है कि कामना ही कल्याण के मार्ग में बाधक है। हमें कामना का त्याग करना है।


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा !
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च !!
(3/39)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीपुत्र ! इस प्रकार व्यक्ति का विवेक कामरूपी नित्य शत्रु से सदा ढका रहता है, जो कभी तृप्त नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते !
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् !!
(3/40)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामना के निवास स्थान हैं। इन इंद्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा यह कामना ज्ञान को ढककर इस देह-अभिमानी व्यक्ति को मोहित करती है।


तस्मात्त्वमिद्रियाणयादौ नियम्य भरतर्षभ !
पाप्मानं प्रजहि ह्येन ज्ञानविज्ञाननाशनम् !!
(3/41)

भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
भारतवंशियों में श्रेष्ठ! है अर्जुन! इसलिए तू सबसे पहले अपनी इंद्रियों को वश में कर इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी (शत्रु) काम का निश्चित ही दामन कर।

प्रसंगवश - इंद्रियों को वश में करके ही काम का दमन किया जा सकता है। जो व्यक्ति इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करता है, उसका कल्याण होता है।

इन्द्रियाणि परण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: !
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धे: परतस्तु स: !!
(3/42)

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना !
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् !!
(3/43)

भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में कर, हे महाबाहो (अर्जुन)! तुम कामरूपी दुर्जेय शत्रु पर जीत हासिल करो।

(गीता कर्मयोग अध्याय 3 समाप्त।)

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, October 13, 2016

#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 31 से 35 तक*

*ये में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: !*
*श्रद्धावन्तोअनसूयन्तो मुच्यन्ते टीपी कर्मभि: !!* (3/31)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - जो व्यक्ति दोष-दृष्टि से दूर रहकर श्रद्धा के साथ मेरे इस मत (पूर्व श्लोक 3/30 में वर्णित मत) का सदा पालन करता है, वह् भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है.

*तात्पर्य* - हमें अपने मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने कर्मों को अर्पण करते हुए आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*प्रसंगवश*

इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है. शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, धन, संपत्ति, पदार्थ (वस्तुएँ) आदि सब प्रकृति द्वारा अस्थाई रूप से दिए गए हैं और यह भौतिक संसार भी प्रकृति का कार्य है. जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे हम अपनी मान लेते हैं या उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं, यही तो बंधन है. सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति से हमें कभी तृप्ति नहीं हो सकती. तृप्ति और पूर्णता का अनुभव परमात्मा के मिलन से होगा. जो वस्तुएँ इस भौतिक संसार में हमें मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उनका उपयोग करना चाहिए. हम इस संसार में भौतिक पदार्थों (धनादि) के संग्रह में लगे रहते हैं और सोचते हैं कि ये और मिल जाए, पर क्या ये सब हम अपने साथ ले जा सकते हैं. शरीर, पद, अधिकार, शिक्षा, योग्यता, धन, संपत्ति, मकान आदि बहुत कुछ हमें संसार से ही मिला है और यह संसार का ही है, इसे हमें संसार के लिए ही उपयोग में लेना है, ऐसा मानकर यदि हम अपना कर्तव्य-कर्म करेंगे तो निश्चित ही हम कर्म-बंधन से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे.

*ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मेटम !*
*सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः: !!* (3/32)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - लेकिन जो व्यक्ति मेरे इस मत (श्लोक 30 में वर्णित मत) में दोषारोपण करते हुए पालन नहीं करते, ऐसे संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और अविवेकी व्यक्ति नष्ट होते हैं, उनका पतन होता है.

*प्रसंगवश*

यहाँ महत्वपूर्ण है कि श्रीकृष्ण ने श्लोक 30 की महत्ता का वर्णन श्लोक 31 में किया है और इस श्लोक 32 में श्रीकृष्ण का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अपने मस्तिष्क (चित्त) को परमात्मा में केंद्रित नहीं करते हैं या अपने सभी कर्मों का अर्पण नहीं करते हैं या आशा और ममता (मोह) से दूर नही रह पाते हैं, ऐसे व्यक्ति पतन के मार्ग पर चलकर नष्ट हो जाते हैं.

इस प्रकार 31वें और 32वें - दोनों श्लोकों में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि उनके सिद्धांत के अनुसार चलना है अर्थात् जो अपने चित्त अर्थात् मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर कर्तव्य-कर्म करता है, वह व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है और जो उनके सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलता है, उसका पतन होता है. अत: हमें अपने चित्त को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को उन्हीं को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि !*
*प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह किं करिष्यति !!* (3/33)


*भावार्थ* - सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के अनुसार द्वेषरहित या द्वेषयुक्त होकर कर्म करते हैं, ज्ञानी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार द्वेषरहित होकर चेष्टा (प्रयास) करता है, वह प्रकृति के वशीभूत नहीं होता है.

*इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ !*
*तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ !!* (3/34)


*भावार्थ* - व्यक्ति के मन में प्रत्येक इन्द्रिय के हर विषय के प्रति राग और द्वेष रहता है, व्यक्ति को दोनों (अर्थात राग और द्वेष) के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों आत्म-साक्षात्कार (अपने कल्याण) के मार्ग में अवरोधक हैं.

*प्रसंगवश*

राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से राग-द्वेष प्रबल होते हैं और यही स्वभाव बन जाता है. ऐसा स्वभाव व्यक्ति को गलत कर्म करने से बांधता है.

*श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात !*
*स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह: !!* (3/35)


*भावार्थ* - अपने नियत कर्मों को दोषपूर्ण तरीके से पूरा करना भी दूसरे के कर्म को करने से अच्छा है. अपने नियत कर्मो (स्वधर्म) को करते हुए मरना भी कल्याणकारक है और अन्य का नियतकर्म (परधर्म) खतरनाक/डरावना होता है.

*तात्पर्य* - अपने कर्तव्य का निःस्वार्थ भाव से पालन करना ही स्वधर्म है . 'स्वधर्म' अर्थात अपने कर्तव्य का पालन सुख-दुःख को देखकर नहीं किया जाता, वरन निष्काम भाव से किया जाता है. त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग) - ये तीनों स्वधर्म हैं. योगी होना स्वधर्म है, और भोगी होना परधर्म है. निर्लिप्त रहना स्वधर्म है, और लिप्त रहना परधर्म है. सेवा करना स्वधर्म है, और कुछ चाहना परधर्म है. व्यक्ति में दो प्रकार की इच्छाएं होती हैं. पहली, सांसारिक - भोग और संग्रह की इच्छा, और दूसरी, कल्याण की इच्छा. हमें कल्याण की इच्छा रखनी चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल


Tuesday, October 11, 2016

#030 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#030 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 29 व 30*

*प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु !*
*तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् !!* (3/29)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - प्रकृति के गुणों से मोहित व्यक्ति गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं. इन अपूर्ण ज्ञान वाले अज्ञानी व्यक्तियों को पूर्ण ज्ञान जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करे. (तात्पर्य - जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित है और प्रकृति के गुणों और कर्मों में आसक्त है, वह् अज्ञानी है.)

*प्रसंगवश*

अज्ञानी व्यक्ति की सांसारिक भोग और संग्रह में रूचि रहती है. उसकी धनादि प्राप्त पदार्थों से ममता रहती है और जो अप्राप्त है, उसे प्राप्त करने की कामना वह करता है परंतु वह प्रकृतिजन्य गुणों से मोहित (बंधा) रहता है और वह शास्त्रों में, शास्त्रानुसार शुभकर्मों में और उन कर्मों के फलों में श्रद्धा-विश्वास करता है. ऐसे व्यक्ति के लिए श्लोक 3/26 और 3/29 में वर्णन किया गया है.

*मयि सर्वाणि कर्माणि संन्ययस्याध्यात्मचेतसा !*
*निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: !!* (3/30)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - अपने चित्त को मुझमें केंद्रित कर, अपने सभी कर्मों को मुझमे अर्पण कर, आशा और ममता से दूर रहकर, संताप रहित होकर युद्ध कर.

*प्रसंगवश*

श्रीभगवान को अर्पण करने वाला व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है. 'सभी कर्मों को मुझमें अर्पण कर' से तात्पर्य है कि व्यक्ति को क्रिया और पदार्थ को अपने और अपने लिए ना मानकर परमात्मा (श्रीभगवान) और परमात्मा (श्रीभगवान) के लिए मानना चाहिए. कारण कि परमात्मा (श्रीभगवान) समग्र हैं और संपूर्ण कर्म तथा पदार्थ समग्र परमात्मा (श्रीभगवान) के अंतर्गत हैं.

सादर,

केशव राम सिंघल

#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 28*

*तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: !*
*गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सञ्जते !!* (3/28)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - परन्तु, हे अर्जुन ! गुण-विभाग और कर्म-विभाग के अन्तर को जानने वाला ज्ञानी व्यक्ति यह जानकर आसक्त नहीं होता कि सभी गुण ही गुणों में बरत रहे हैं. (अर्थात् यह जानकर आसक्त नहीं होता कि इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं. वह कभी भी इन्द्रियों के जाल में नहीं फंसता और अपने आपको इन्द्रियतृप्ति से दूर रखता है.)

*प्रसंगवश*

*गुण-विभाग क्या है?*


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय हैं, यही 'गुण-विभाग' है.

*कर्म-विभाग क्या है?*

शरीरादि से होने वाली क्रिया 'कर्म-विभाग' है.

*गुण ही गुणों में बरत रहे हैं*

समस्त क्रियाएं समष्टि शक्ति से संपन्न हो रही हैं. उदारण के तौर पर, आँख का गुण देखना, कान का गुण सुनना आदि, ये देखना-सुनना-खानापीना आदि सब क्रियाएं हैं . ये सब समष्टि शक्ति से संपन्न हो रहा है अर्थात गुण ही गुणों में बरत रहे हैं.

अज्ञानी व्यक्ति गुण-विभाग और कर्म-विभाग से अपना सम्बन्ध मान लेता है. मुख्य कारण 'राग' (मोह) है, जिससे वह बंधता है. यह राग (मोह) अविवेक/अज्ञान के कारण होता है. विवेक जाग्रत होने पर राग (मोह) नष्ट हो जाता है. आवश्यकता राग (मोह) को मिटाने की है.

जब व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है तो उसे अनुभूति होती है कि वह ईश्वर का अंश है पर किसी कारण वह देहात्मबुद्धि में फंस गया है और फलत: वह सभी प्रकार के भौतिक बंधनों से विचलित नहीं होता.

परिवर्तनशील प्रकृति के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध वस्तुत: है नहीं, केवल माना हुआ है. प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध को यदि व्यक्ति विचार द्वारा मिटाता है तो यह 'ज्ञानयोग' है. और यदि वह इसी सम्बन्ध को दूसरों का हित करते हुए कर्म कर मिटाता है तो यह 'कर्मयोग' है. प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही योग-अनुभव होता है.

*योग-अनुभव अर्थात परमात्मा (ईश्वर) से सम्बन्ध का अनुभव !*

सादर,

केशव राम सिंघल


#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 25 से 27*

*सक्ता: कर्मण्यविद्वान्सो यथा कुर्वन्ति भारत !*
*कुर्या द्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् !!* (3/25)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! जिस प्रकार अज्ञानी लोग कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं, आसक्ति से दूर रहकर विद्वानजन भी लोकसंग्रह चाहते हुए उसी प्रकार कर्म करें.

*न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् !*
*जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्त: समाचरन् !* (3/26)


*भावार्थ* - विद्वानजन कर्म में आसक्त होकर अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करें (अर्थात् कर्म में अविश्वास/अश्रद्धा पैदा ना करें), समस्त कर्म करते हुए उनसे भी वैसा ही करवाएँ.

*प्रकृते: क्रियमाणामि गुणै: कर्माणि सर्वश: !*
*अहंङ्कारविमूढात्मा कर्तानिति मन्यते !!* (3/27)


*भावार्थ* - सभी कर्म हर तरह से प्रकृति के गुणों के कारण संपन्न होते हैं (लेकिन) अहंकार से मोहित व्यक्ति सोचता है कि मैं कर्ता हूँ.

*चलते-चलते*

जब तक आसक्ति से दूर रहकर (अर्थात् निष्कामभाव से) से मैं अपना कर्म नहीं करूँगा, तब तक मेरा जीवन-मरण नहीं समाप्त होने वाला. आसक्ति से दूर रहकर कर्म करने से ही सद्गति की प्राप्ति होती है. कर्म अपने लिए न करके कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना है.

सादर,

केशव राम सिंघल




Wednesday, September 14, 2016

#027 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#027 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 21 से 24*

*यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: !*
*स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते !!* (3/21)


*भावार्थ* - विद्वानजन जैसा आचरण करते हैं, दूसरे भी (देखकर) वैसा ही (आचरण) करते हैं. वह् जो अनुसरणीय कार्य कर देता है, दूसरे व्यक्ति उसी के अनुसार अनुसरण करते हैं.

*न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन !*
*नानवाप्तमवाप्तव्यं वार्ता एव च कर्मणि !!* (3/22)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्तव्य है और न ही कोई वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्म में लगा रहता हूँ.

*यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वेश: !!* (3/23)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! क्योंकि अगर मैं किसी समय नियत कर्म ना करूँ तो यह संभव है कि सभी लोग मेरे ही मार्ग का अनुसरण करें.

*उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् !*
*संकरस्य च करता स्यामुपहन्या मिमा: प्रजा: !!* (3/24)


*भावार्थ* - यदि मैं मेरा कर्म (नियत कार्य) न करूँ तो यह लोक (अर्थात् सभी प्राणी) नष्ट हो जाएँ और मैं अवांछित लोगों को उत्पन्न करने वाला हो जाऊँ और इस समस्त प्रजा (प्राणियों) का विनाशक बन जाऊँगा.

सादर,

केशव राम सिंघल

Tuesday, September 13, 2016

#026 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#026 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 20*

*कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः !*
*लोकसङ्ग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि !!* (3/20)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि (परमात्मा) को प्राप्त हुए थे. इसलिए सामान्य लोगों का विचार करते हुए (लोकसंग्रह को देखते हुए) तू भी निष्काम भाव से कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे भी निष्काम भाव से अपना कर्म करना चाहिए.

*हमें सदैव याद रखना चाहिए* -
कर्मयोग बहुत ही पुरातन योग है. कर्मयोग परमसिद्धि / मुक्ति का साधन है.

*चलते-चलते*

हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है और इस संसार में हम अपनी मुक्ति के लिए आए हैं. हमें अनेक भौतिक वस्तुएं इस संसार में प्राप्त होती हैं, जैसे - शरीर, धन, मकान आदि. जब हमारा शरीर मृत हो जाता है अर्थात् आत्मा यहाँ से जाता है तो सभी प्राप्त भौतिक वस्तुएं यहीं छूट जाती हैं. ये सब वस्तुएं हमारी नहीं हैं, वरन् संसार के सेवार्थ हमें प्राप्त हुई हैं. सेवा करने से हमें योग मिलता है. यही तो कर्मयोग है. कर्म संसार के लिए और योग अपने लिए.

सादर,

केशव राम सिंघल


#025 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#025 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 17 से 19*

*यस्त्वात्मरतिदेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: !*
*आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते !!* (3/17)

*नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन !*
*न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः: !!* (3/18)

*तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचार !*
*असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोप्ति पूरुषन् !!* (3/19)


*भावार्थ* -

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
किन्तु जो व्यक्ति अपने आप में रमने वाला (आनंद लेने वाला) और अपने आप में तृप्त और अपने आप में संतुष्ट है, उसके लिए कोई कार्य (कर्तव्य) नहीं है.

ऐसे व्यक्ति का इस संसार में ना तो कर्म करने का कोई उद्देश्य है और ना ही कर्म ना करने का भी कोई उद्देश्य है. और उसका किसी के साथ किंचित भी स्वार्थ सम्बन्ध नहीं रहता.

इसलिए तू सदैव आसक्तिरहित होकर (आसक्ति से दूर रहकर) कर्तव्य-कर्म का आचरण कर क्योंकि आसक्तिरहित होकर (आसक्ति से दूर रहकर) कर्म करने वाला व्यक्ति परमात्मा (श्रीभगवान) को प्राप्त करता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Monday, September 12, 2016

#024 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#024 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 14 से 16*

*अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः !*
*यज्ञादभवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुदभव: !!* (3/14)


*भावार्थ* - सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं (अर्थात सभी प्राणी अन्न पर ही आश्रित हैं), अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से होती है, यज्ञ कर्मों से संपन्न होता है. *टिप्पणी* - यहां अन्न से तात्पर्य भोजन से है.

*कर्म ब्रह्मोदभवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुदाभवं !*
*तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठं !!* (3/15)


*भावार्थ* - वेदों से कर्मों को जानो और ये वेद-अक्षर श्रीभगवान से प्रकट हुए, इसलिए सर्वव्यापी श्रीभगवान यज्ञ (कर्तव्य-पालन) में सदा स्थित रहता है.

*एवं प्रवर्तित चक्रं नानुवर्तयतीह य: !*
*अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति !!* (3/16)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! जो व्यक्ति इस लोक में इस सृष्टि-चक्र के अनुसार प्रचलित (परम्परा) के अनुसार नहीं चलता है, वह इन्द्रियों से आसक्त होकर व्यर्थ ही अघायु (पापमय जीवन) जीता है.

*प्रसंगवश टिप्पणी*

इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हैं. कर्मयोग का पालन न करना सृष्टि-चक्र के विरुद्ध कार्य करना है और जो व्यक्ति सृष्टि-चक्र के अनुसार कार्य नहीं करता, वह पापमय जीवन जीता है. हमें अपने कर्तव्य की पालना करनी चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल



#023 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#023 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 10 से 13*

*सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: !*
*अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोअस्त्विष्टकामधुक् !!* (3/10)

*देवांभावयतानेन ते देवा भावयंतु व: !*
*परस्परन् भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ !!* (3/11)
.

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति (ब्रह्माजी) ने कर्तव्य-कर्मों के विधान के साथ प्रजा (मानव आदि) की रचना की और कहा कि कर्तव्य-पालन (यज्ञ) से खूब समृद्ध हो (और) यह कर्तव्य-पालन (यज्ञ) की चाही इच्छा पूरी करने वाला हो.

अपने कर्तव्य-कर्म द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवतागण तुमको प्रसन्न (उन्नत) करेंगे और (इस प्रकार) एक-दूसरे को प्रसन्न (उन्नत) करते हुए परम् कल्याण को प्राप्त करो.

(इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को ब्रह्माजी के वचनों के माध्यम से कर्तव्य-कर्म करने का उपदेश देते हैं.)

*इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः !*
*तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः !!* (3/12)


*भावार्थ* - जीवन की वांछित आवश्यकताएं यज्ञ (कर्तव्य-पालन) करने से प्रसन्न होकर निश्चय ही तुम्हें देवतागण प्रदान करेंगे. दूसरों की सेवा के बिना दी गयी वस्तुएं जो व्यक्ति भी उपभोग करता है, वह चोर है.

*यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: !*
*भुञ्जते ते त्वघं पापा छे पचन्त्यात्मकारणात् !!* (3/13)


*भावार्थ* - यज्ञ (कर्तव्य-पालन) सम्पन्न होने के बाद ग्रहण किए जाने वाला प्रसाद ग्रहण करने वाले संत (भक्त, व्यक्ति) सभी प्रकार के पापों से छुटकारा पाते हैं, लेकिन जो अपने इन्द्रियसुख के लिए ही कर्म करते हैं, वे पापी पाप का ही सेवन करते हैं. (यहां यह समझने की बात है कि कर्तव्य-पालन करने के बाद मिलने वाला पारिश्रमिक, वेतन या व्यवसाय-लाभ भी प्रसाद ही है.)

*प्रसंगवश*

प्रजापति ब्रह्माजी हैं, वे सृष्टि के रचयिता और उसके स्वामी हैं. वे अपनी प्रजा के कल्याण के लिए प्रयासरत रहते हैं. मानव को ब्रह्माजी की कृपा के कारण ही विवेक-शक्ति मिली हुई है. ब्रह्माजी की प्रजा में देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पेड़-पौधे आदि सभी शामिल हैं, पर श्लोक 3/10 में प्रजा पद विशेषरूप से मानव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है.

कर्मयोग = निस्वार्थभाव से कर्तव्य-पालन अर्थात कर्तव्य-कर्म करना.

कर्मयोगी सदा निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा और कर्म करने के लिए तत्पर रहता है. कर्मयोगी सदा देने (अर्पित करने) का भाव रखता है.

मनुष्य कर्मयोनि है. मनुष्य का उद्देश्य कर्तव्य-कर्म करना है.

सादर,

केशव राम सिंघल

Sunday, August 28, 2016

#022 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#022 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

ॐ !

नमस्कार !

गीता अध्याय 3 - कर्मयोग - श्लोक 9


यज्ञअर्थात्कर्मणोअन्यत्र लोकोअयं कर्मबन्धन: !
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः: समाचर !!
(3/9)

भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिए किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त कर्मों में लगा व्यक्ति उन कर्मों से बंध जाता है. इसलिए, हे अर्जुन ! तू आसक्ति रहित होकर यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिए ही कर्तव्य कर्म कर. तात्पर्य - इस श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण भ्रमित अर्जुन को यह मार्गदर्शन (उपदेश) देते हैं कि आसक्तिरहित होकर अपना कर्तव्य-कर्म कर.
व्यक्ति कर्म करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदि का भाव नहीं होना चाहिए. कर्म में सकामभाव का निषेध है, कर्म करना निषेध नहीं है. अर्थात् व्यक्ति को भोग और ऐश्वर्य के लिए कर्म करने से बचना चाहिए.

विचारबिन्दु - यज्ञ क्या है ? कर्तव्य-पालन ही यज्ञ है. यज्ञ का अर्थ बहुत बड़ा है.
यज्ञ = दान, तप, होम, तीर्थ करना, व्रत, शास्त्र/वेद अध्ययन, कर्तव्य स्वरूप किए जाने वाले कार्य (जैसे - व्यवसाय, नौकरी, अध्यापन आदि)
यज्ञार्थ कर्म करने से आसक्ति से विरक्ति होती है.

कर्मयोग = कर्म + योग

अपने लिए किए जाने वाले कर्म में भी सकामभाव रहता है, क्योंकि इसमें स्वयं का हित देखने की बात रहती है. जब सकामभाव रहता है तो निषिद्ध (निंदनीय) कर्म होने की संभावना रहती है. कर्म संसार के लिए है, अपने लिए नहीं है.

कर्मयोग का अर्थ चित्त की स्थिरता, संयमन, इंद्रियों का निग्रह करते हुए तथा परमात्मा (श्रीभगवान) के साथ सम्बन्ध बनाते हुए अपना कर्म करना.

*चलते-चलते*

मन में ऐसा भाव आए कि "मैं किसी को बुरा ना समझूँ, किसी का बुरा ना चाहूं और किसी का बुरा ना करूँ" तो समझो कि कर्मयोग की शुरुआत हो चुकी है.

सादर,

केशव राम सिंघल


#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 1 से 8*

*अर्जुन उवाच*
*ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन !*
*तत्किन् कर्मणि घोरे मान् नियोजयसि केशव !!* (3/1)
*व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिन् मोहयसीव में !*
*तदेकन् वाद निश्चित्य येन श्रेयोअहमाप्नुयाम् !!* (3/2)


*भावार्थ* - अर्जुन श्रीकृष्ण से - यदि आप बुद्धि (ज्ञान) को सकाम कर्म से श्रेष्ठ मानते हो तो फिर मुझे इस हिंसात्मक कर्म (अर्थात् युद्ध में क्यों लगाना चाहते हो? अनेक अर्थो वाले आपके उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है. अत: कृपा कर निश्चित् उस बात को कहे जिससे मैं वास्तविक लाभ पा सकूँ.

*श्रीभगवानुवाच*
*लोकेअस्मिन्द्विविधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ !*
*ज्ञानयोगेन सांख्यानान् कर्मयोगेन योगिनाम् !!*
(3/3)

*भावार्थ* - श्रीकृष्ण अर्जुन से - हे निष्पाप अर्जुन ! मैंने पहले कहा - संसार में दो प्रकार की निष्ठा (श्रद्धा) वाले व्यक्ति होते हैं - ज्ञानी की निष्ठा ज्ञानयोग से और भक्त की निष्ठा भक्तियोग से.

*न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यन् पुरुषोंअश्नुते !*
*न च सन्यसनादेव सिद्धिन् समधिगच्छति !!*
(3/4)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति न तो नियत कर्म से विमुख होकर कर्मबंधन से मुक्ति पा सकता है और न कर्मों के त्याग (अर्थात् संन्यास) से सिद्धि प्राप्त कर सकता है.

*न हि कश्चित्क्षमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत !*
*कार्यते ह्यवशः: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै !!*
(3/5)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति किसी समय क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के कारण सभी को विवश होकर कर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता है.

*कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् !*
*इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते !!*
(3/6)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - जो कमेंद्रियों (और ज्ञानेन्द्रियों) को वश में कर मन से इन्द्रियविषयों को सोचता है, वह मूर्ख व्यक्ति मिथ्याचारी कहा जाता है. *स्पष्टीकरण* - कमेंद्रियां पांच हैं - वाक, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा. ज्ञानेन्द्रियाँ भी पांच हैं - श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण. इस श्लोक में कर्मेन्द्रियाणि से तात्पर्य सभी कमेंद्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से है.

*यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेअर्जुन !*
कर्मेन्द्रियै: कर्णयोगमासक्त: स विशिष्यते !!*
(3/7)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - लेकिन, हे अर्जुन ! जो (व्यक्ति) मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में कर बिना किसी आसक्ति के आचरण (व्यवहार) करता है, वही श्रेष्ठ है.

*नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः !*
*शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः !!*
(3/8)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - तुम अपना नियत कर्म करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म के बिना तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता.

सादर,

केशव राम सिंघल


*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*गीता अध्ययन एक प्रयास*

*सार-संक्षेप - गीता अध्याय 2 से मेरी सीख*



- कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते. जब भी किसी विषय (subject) में कोई दुविधा या अनिश्चय की स्थिति हो तो हमें उचित-अनुचित जानने के लिए किसी ज्ञानवान व्यक्ति से उचित ज्ञान (परामर्श) लेना चाहिए, क्योंकि सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का हल है. (Right knowledge is ultimate solution to all our problems.) हमें सही ज्ञान को प्राप्त करने का उत्सुक होना चाहिए. (We should be ready to seek always the right knowledge.)

- भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा और शोक की आवश्यकता नहीं है. आत्मा शाश्वत है, उसको जान लेना आत्म-साक्षात्कार है. भौतिक शरीर विनाशी है. हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखकर अपना कर्म करना चाहिए.

- हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है. हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए. वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है. हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं. हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है. असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है. परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है. शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है. आत्मा शाश्वत है. आत्मा सत् है.

- इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

- आत्मा अजन्मा, सदैव रहने वाला, शाश्वत और पुरातन है. आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है.

- यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करुंगा तो अपने कर्तव्य की उपेक्षा के कारण मुझे पाप लगेगा और मैं अपना यश (कीर्ति, सम्मान) खो बैठूंगा.

- मुझे अपना मन-बुद्धि दृढ और स्थिर रखना चाहिए, ताकि मैं विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होने से बच सकूँ.

- परमात्मा (अर्थात् ईश्वर, श्रीभगवान) शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है, जिसका अस्तित्व सदा रहने वाला है। वह शक्ति है, ऊर्जा है. वह अदृश्य रहता है, नहीं दिखता. वह नियन्ता है.

- सफलता-विफलता (जय-पराजय) की आसक्ति को त्यागकर और सदैव चंचल रहने वाली इंद्रियों को वश में कर मन को एकाग्र करते हुए समभाव से मुझे अपना कर्म करना है.

- मुझे निष्क्रिय नहीं रहना है, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करना है. अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है.

- असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है. सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है. सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है. (असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है. सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है.)

- व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा. विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

- कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग होना चाहिए.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल


Monday, August 22, 2016

#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*प्रसादे सर्वदु:खानान् ....... पर्यवतिष्ठते !!* (2/65)


इस श्लोक का भावार्थ मनन करते समय इससे पहले के श्लोक (2/64) का भावार्थ ध्यान में रखना चाहिए.

प्रसादे = श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता

*भावार्थ* - इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे शुद्ध चित्त वाले व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है. *तात्पर्य* - चित्त की प्रसन्नता से श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त होने पर सभी दुःख दूर हो जाते हैं, इसलिए आत्म-संयमी बनने और समस्त राग-द्वेष से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए.

*नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य ....... कुत: सुखम् !!* (2/66)

*भावार्थ* - जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक (संयमित, स्थिर) नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और उसे सुख कैसे मिलेगा ? (अर्थात् उसे सुख भी नहीं मिल पाता.)

*इंद्रियाणान् हि चरतान् ............. वायुर्नावमिवाम्भसि !!* (2/67)

*भावार्थ* - जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है.

*तस्माद्यस्य महाबाहो ............. प्रतिष्ठिता !!* (2/68)

*भावार्थ* - इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है.


*या निशा ....... पश्यतो मुने: !!* (2/69)

*भावार्थ* - सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है.

*आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठन् ............. शांतिमाप्नोति न कामकामी !!* (2/70)

*भावार्थ* - जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है.

*विहाय कामान्य: ............. शांतिमधिगच्छति !!* (2/71)

*भावार्थ* - जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है.

*एषा ब्राह्मी स्थिति: .......... ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति !!* (2/72)

ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति = ब्रह्मनिर्वाणम् + ऋच्छति
ब्रह्मनिर्वाणम् = ब्रह्म-आनंद अर्थात् निर्वाण ब्रह्म, शांति
ऋच्छति = प्राप्त करता है

*भावार्थ* - यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - जब भौतिकतावादी जीवनशैली का अंत होता है, तभी निर्वाण अर्थात् शान्ति की प्रप्ति होती है.

(गीता अध्याय 2 समाप्त)

*चलते-चलते*

हमें यह जानना चाहिए कि इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल




Friday, August 19, 2016

#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*विषया ..... निवर्तते !!* (2/59)


*भावार्थ* - व्यक्ति भले ही निषेधात्मक प्रतिबंधों द्वारा इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयास कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की लालसा (इच्छा) बनी रहती है, लेकिन स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति की लालसा (इच्छा) परमात्मा (श्रीभगवान) का अनुभव होने पर समाप्त हो जाती है. *तात्पर्य* - व्यक्ति रसबुद्धि में डूबा रहता है और वह इंद्रिय-विषय को पाने की इच्छा में डूबा रहता है. योग (इंद्रियों के निग्रह) द्वारा रसबुद्धि से निवृत हुआ जा सकता है और रसबुद्धि से निवृत होने पर इंद्रिय-विषयों की लालसा समाप्त होती है.


*यततो .... मन: !!* (2/60)

*भावार्थ* - इन्द्रियाँ इतनी प्रबल और वेगवान होती है कि वे विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती रहती हैं, जो उन्हें काबू में रखने का प्रयत्न करता है.


*तानि ..... प्रतिष्ठिता !!* (2/61)

*भावार्थ* - जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में कर इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना परमात्मा (श्रीभगवान) में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है.

*ध्यायतो ........ कामात्क्रोधोअभिजायते !!* (2/62)

*भावार्थ* - इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है. *तात्पर्य* - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं. और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है. इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए.


*क्रोधाद्भवति ....... बुद्धिनाशात्प्रणश्यति* (2/63)

*भावार्थ* - क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है. जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है.

सम्मोह: = मोह, लगाव, आकर्षण, खिंचाव
सम्मोहात्स्म्रतिविभ्रम = सम्मोहात् + स्म्रतिविभ्रम = सम्मोह से स्म्रति विभ्रम

*सम्मोह:* (2/63) से तात्पर्य ऐसे मोह (लगाव) से है, जो *स्म्रतिविभ्रम:* (स्मृति भ्रम) पैदा करता है अर्थात् जिससे याददाश्त भ्रमित हो जाती है.



*रागद्वेषवियुक्तैस्तु ...... प्रसादमधिगच्छति !!* (2/64)

*भावार्थ* - लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता.



*चलते-चलते*

- स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थिरबुद्दि होने के लिए इंद्रिय-विषयों से मन हटाना अत्यन्त आवश्यक है.

- यदि इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयत्न नहीं किया जाए तो व्यक्ति के मन में इंद्रिय-विषयों के प्रति एक आकर्षण, खिंचाव पैदा होता है और व्यक्ति रसबुद्दि से ग्रसित हो जाता है.

- इंद्रिय-विषयों का चिंतन करने से बेहतर है कि हम परमात्मा (श्रीभगवान) का चिंतन करें और अपने कर्तव्यों को पूरा करें.


सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, August 18, 2016

#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*प्रसंगवश जिज्ञासा*


*कामना का मुख्य कारण क्या है? क्या यह पदार्थ या जीव या कुछ और की प्रकृति है?*

विषय भोग की इच्छा होना कामना है. कामना जब बलवती होती है तो वह वासना में बदल जाती है. कामना और वासना दोनों में इच्छा का वास है. अन्तकरण: में छिपी इच्छा वासना हो सकती है.

मन एक कारण है, जिसमें कामना आती है पर उसमें भी कामना हर समय नहीं होती. शरीर इंद्रियों का मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के फलस्वरूप कामना आती है.

कामना जीव की प्रकृति है, क्योंकि जीव में शरीर-इंद्रियाँ, मन और बुद्धि होती है.

*संगात्संजायते काम* (2/62) में बताया गया है कि इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है.

*इंद्रियाणान् .....* (2/67) में बताया गया है - "जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है."

हमें गीता के *अध्याय 2 के श्लोक 65 से 72* के भावार्थ को समझने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसका भावार्थ निम्न है: "इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है."

सादर,

केशव राम सिंघल


Sunday, August 7, 2016

#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


प्रसंगवश

योग


गीता में मुख्यत: तीन योग मार्ग बताए गए हैं - (1) कर्मयोग, (2) ज्ञानयोग, और (3) भक्तियोग, जिसके लिए मानवजीव के पास तीन शक्तियाँ होती हैं - (1) कर्म करने के लिए कर्म करने की शक्ति, (2) ज्ञान बढ़ाने के लिए जानने की शक्ति, और (3) भक्ति के लिए विश्वास की शक्ति.

गीता में अन्य योग मार्ग की भी चर्चा है, जैसे - यज्ञ, दान, तप, ध्यानयोग, प्राणायाम, हठयोग, लययोग.

योग = इंद्रियों का निग्रह
योग = चित्त की स्थिरता
योग = संयमन

योग, बुद्धि और बुद्धियोग - तीनों का एक ही अर्थ जान पड़ता है.
योग = बुद्धि
योग = बुद्धियोग

योग अर्थात श्रीभगवान के साथ नित्य सम्बन्ध.
समत्व योग उच्यते (2/48) में यही भाव दिखाई देता है.
समता ही योग है अर्थात समता परमात्मा का स्वरूप है.
यह समता हमारे अंत:करण में सदा बनी रहनी चाहिए.

कर्मयोग में कर्म मुख्य नहीं है, बल्कि योग (बुद्धि) मुख्य है. भक्तियोग में मन मुख्य है. कर्मयोग हमारे लिए मुक्ति और कल्याण पाने का एक उपाय हो सकता है.

जिज्ञासा

कर्म में कुशलता योग है या कर्म में योग कुशलता है?


हमें योग के अर्थ को समझना चाहिए. कर्म दो प्रकार के हो सकते हैं - (1) अच्छा कर्म, और (2) बुरा (निंदनीय) कर्म. जब योग नहीं होगा तो अच्छा कर्म होना मुश्किल लगता है. योग के बिना कर्म निंदनीय हो सकते हैं. निंदनीय कर्म (जैसे - चोरी, डकैती, अपहरण आदि) में कुशलता योग नहीं हो सकती. गीता में भी लिखा है - योग: कर्मसु कौशलम् (2/50) अर्थात कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग चाहिए.

चलते-चलते

मोह (ममता)


व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा.

विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

2/52 में मोह (ममता) के दल-दल से बुद्धि हटाने की बात कही गई है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, August 4, 2016

#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 65 से 72 तक


श्रीकृष्ण कहते हैं -
इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह् आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. (गीता अध्याय 2 समाप्त)

चलते-चलते

असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है। सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है। सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है।

असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है।

सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है।

सादर,

केशव राम सिंघल

#014 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#014 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

कर्म


2/47 में कर्म (कर्तव्य-पालन ) की बात कही गई है।

यहाँ तीन विचारणीय बिंदु हैं -
(1) वे कर्म जिन्हें हमें अपनी कर्तव्य पालना के लिये करना चाहिए।
(2) विकर्म - जो कर्म निंदनीय है, जो विधि-सम्मत नहीं हैं, जो हमारे कर्तव्य भी नहीं है।
(3) अकर्म - अपने कर्मों को नहीं करना अर्थात् अपने कर्तव्य की पालना नहीं करना।

श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया कि निष्क्रिय न रहो, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करो। अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है।

सादर,

केशव राम सिंघल

#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 57 से 64 तक*


श्रीकृष्ण कहते हैं -
जो व्यक्ति सर्वत्र (हर जगह हर समय) अच्छा (शुभ) होने पर ना तो खुश (हर्षित) होता है और बुरा (अशुभ) होने पर ना ही द्वेष करता है (या दुःखी होता है), उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। ( तात्पर्य - इस भौतिक जगत में हर समय कुछ न कुछ घटता रहता है - अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ। जो इस उथल-पुथल में आत्म-संयम रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।) जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों से दूर कर लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। ( तात्पर्य - हमें आत्मसंयम रखना चाहिए।) शरीरधारी जीव (जिसमें मनुष्य भी शामिल है) भले ही इंद्रिय-विषयों से निषेधात्मक प्रतिबंधों से दूर रहने का अभ्यास (प्रयत्न) कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की इच्छा बनी रहती है, लेकिन परमात्मा का अनुभव होने पर उसकी इच्छा समाप्त हो जाती है। इंद्रिया इतनी प्रबल और वेगवान होती हैं कि वे उस विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है। जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करके इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना श्रीभगवान में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। ( तात्पर्य - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए।) क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है। जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है। लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है। (तात्पर्य - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता)

सादर,

केशव राम सिंघल