Thursday, December 1, 2016

#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 23 से 26*


4/23
*गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः !*
*यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते !!*


4/24

*ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् !*
*ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना !!*


4/25
*दैवमेवापरे यज्ञन् योगिन: पर्युपासते !*
*ब्रह्माग्नावपरे यज्ञन् यज्ञेनैवोपजुह्वति !!*


4/26
*श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति !*
*शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जिस व्यक्ति की आसक्ति समाप्त हो गयी है, जो (कर्मबंधन से) मुक्त हो गया है, जिसका मन (बुद्धि) पूर्ण ज्ञान में स्थित है, यज्ञ (दूसरों के हित) के लिए कर्म करने वाले ऐसे व्यक्ति के सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् ऐसे व्यक्ति के कर्म अकर्म हो जाते हैं. (4/23)

जिस व्यक्ति के लिए अर्पण ब्रह्म है, हवन पदार्थ (टिल, घी, जौ आदि) भी ब्रह्म है और जो व्यक्ति ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देता है, जिस व्यक्ति की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो जाती है, ऐसे व्यक्ति को ब्रह्म ही प्राप्त होता है. (4/24)

कुछ योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और दूसरे (योगी) ब्रह्मरुप अग्नि में विचाररुप यज्ञ का हवन करते हैं. (4/25)

कुछ योगी श्रोत्रादि समस्त इंद्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे (योगी) शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन करते हैं. (4/26)

*प्रसंगवश*

योगिन: = योगी = यज्ञार्थ कर्म करने वाले निष्काम साधक (जो समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों को अपना और अपने लिए नहीं मानते हैं)

दैव यज्ञ = समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना और अपने लिए न मानना दैव यज्ञ है.

विचाररूपी यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन = संसाररूपी ब्रह्म (दूसरों की सेवा) के लिए कर्तव्य-कर्म रूप यज्ञ अर्थात यज्ञार्थ कर्म करना

श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन = पांचो इन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण) का अपने विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) की प्रवृत न होना = संयम रखना

शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन = व्यवहारकाल में विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) से संयोग होते रहने पर भी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न न होने देना.

यज्ञायाचरतः कर्म = कर्म में अकर्म देखना = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों के हित में कर्म करना

स्वार्थभाव का त्याग कर दूसरों के हित के लिए (अर्थात् लोक हित में) कर्म करने से व्यक्ति आसक्ति रहित और आसक्ति से मुक्त हो जाता है.

जब व्यक्ति दूसरों के हित के लिए कर्म करता है तो वह कर्मयोगी हो जाता है. कर्मयोग से बंधन मिटता है. और बंधन मिटने से योग हो जाता है और इसी से परमात्मा के साथ सर्वदा-सम्बन्ध का अनुभव होने लगता है.

*प्रतिक्षण हम मर रहे हैं*

प्रकृति के सभी कार्य संसार का स्वरूप हैं. तीन अवस्थाएं हमें दिखती हैं - उत्पत्ति होना, स्थिति में रहना और प्रलय हो जाना. अर्थात् व्यक्ति या वस्तु की उत्पत्ति होती है, फिर वह व्यक्ति या वस्तु इस संसार में रहता है और अंत में नष्ट हो जाता है. व्यक्ति इस भौतिक संसार में जन्म लेता है, फिर रहता है और अंत में आयु पूरी हो जाने पर मर जाता है. मान लें की किसी व्यक्ति की आयु 100 वर्ष है और उसने पैसंठ वर्ष आयु पूरी कर ली है अर्थात् पैसठ वर्ष पूरे हो जाने पर उसकी आयु केवल पैतीस वर्ष की रह गयी है अर्थात् प्रतिक्षण हम मर रहे हैं. इस भौतिक संसार में केवल उत्पत्ति और प्रलय (नष्ट होने) का क्रम चलता रहता है. हमारे जीवन का प्रतिक्षण मृत्यु (प्रलय) की और अग्रसर हो रहा है. प्रलय ही सत्य है, नष्ट होना सत्य है, इसे समझने की जरुरत है.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है.

*प्रसंगवश*

श्रीभगवान का संदेश बहुत ही स्पष्ट है कि हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

सादर,

केशव राम सिंघल


No comments: