Monday, August 22, 2016

#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*प्रसादे सर्वदु:खानान् ....... पर्यवतिष्ठते !!* (2/65)


इस श्लोक का भावार्थ मनन करते समय इससे पहले के श्लोक (2/64) का भावार्थ ध्यान में रखना चाहिए.

प्रसादे = श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता

*भावार्थ* - इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे शुद्ध चित्त वाले व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है. *तात्पर्य* - चित्त की प्रसन्नता से श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त होने पर सभी दुःख दूर हो जाते हैं, इसलिए आत्म-संयमी बनने और समस्त राग-द्वेष से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए.

*नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य ....... कुत: सुखम् !!* (2/66)

*भावार्थ* - जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक (संयमित, स्थिर) नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और उसे सुख कैसे मिलेगा ? (अर्थात् उसे सुख भी नहीं मिल पाता.)

*इंद्रियाणान् हि चरतान् ............. वायुर्नावमिवाम्भसि !!* (2/67)

*भावार्थ* - जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है.

*तस्माद्यस्य महाबाहो ............. प्रतिष्ठिता !!* (2/68)

*भावार्थ* - इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है.


*या निशा ....... पश्यतो मुने: !!* (2/69)

*भावार्थ* - सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है.

*आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठन् ............. शांतिमाप्नोति न कामकामी !!* (2/70)

*भावार्थ* - जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है.

*विहाय कामान्य: ............. शांतिमधिगच्छति !!* (2/71)

*भावार्थ* - जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है.

*एषा ब्राह्मी स्थिति: .......... ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति !!* (2/72)

ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति = ब्रह्मनिर्वाणम् + ऋच्छति
ब्रह्मनिर्वाणम् = ब्रह्म-आनंद अर्थात् निर्वाण ब्रह्म, शांति
ऋच्छति = प्राप्त करता है

*भावार्थ* - यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - जब भौतिकतावादी जीवनशैली का अंत होता है, तभी निर्वाण अर्थात् शान्ति की प्रप्ति होती है.

(गीता अध्याय 2 समाप्त)

*चलते-चलते*

हमें यह जानना चाहिए कि इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल




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