Thursday, October 20, 2016

#032 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#032 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

अथ केन प्रयुक्तोअयं पापं चरति पूरुष: !
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित !!
(3/36)

भावार्थ - अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं - हे वार्ष्णेय ! व्यक्ति न चाहते हुए भी जबर्दस्ती नियोजित रूप से पाप का आचरण करने के लिए क्यों प्रेरित होता है?

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:!
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् !!
(3/37)

भावार्थ

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - रजोगुण से उत्पन्न यह काम ही पाप का कारण है। पाप से क्रोध उत्पन्न होता है, जो सर्वभक्षी महापापी है, जिसे तू अपना शत्रु समझ।

तात्पर्य - जो मैं चाहूं वही मिले, यही काम है। पदार्थो, धनादि के संग्रह की इच्छा, सुख की आसक्ति ये सभी काम के रूप हैं। आसक्ति से रजोगुण और रजोगुण से कामना पैदा होती है। कामना में बाधा होने से क्रोध उत्पन्न होता है।


धूमेनाव्रियते वहिनर्यथादर्शो मलेन च !
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् !!
(3/38)

भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
जैसे धुंए से अग्नि और मैल से दर्पण ढका रहता है, जैसे भ्रूण गर्भाशय द्वारा ढका रहता है, उसी प्रकार कामना द्वारा यह ज्ञान/विवेक ढका हुआ है।

प्रसंगवश

यहां यह स्पष्ट संकेत है कि कामना ही कल्याण के मार्ग में बाधक है। हमें कामना का त्याग करना है।


आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा !
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च !!
(3/39)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीपुत्र ! इस प्रकार व्यक्ति का विवेक कामरूपी नित्य शत्रु से सदा ढका रहता है, जो कभी तृप्त नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते !
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् !!
(3/40)

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामना के निवास स्थान हैं। इन इंद्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा यह कामना ज्ञान को ढककर इस देह-अभिमानी व्यक्ति को मोहित करती है।


तस्मात्त्वमिद्रियाणयादौ नियम्य भरतर्षभ !
पाप्मानं प्रजहि ह्येन ज्ञानविज्ञाननाशनम् !!
(3/41)

भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
भारतवंशियों में श्रेष्ठ! है अर्जुन! इसलिए तू सबसे पहले अपनी इंद्रियों को वश में कर इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी (शत्रु) काम का निश्चित ही दामन कर।

प्रसंगवश - इंद्रियों को वश में करके ही काम का दमन किया जा सकता है। जो व्यक्ति इंद्रियों को वश में करके निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करता है, उसका कल्याण होता है।

इन्द्रियाणि परण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: !
मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धे: परतस्तु स: !!
(3/42)

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना !
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् !!
(3/43)

भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में कर, हे महाबाहो (अर्जुन)! तुम कामरूपी दुर्जेय शत्रु पर जीत हासिल करो।

(गीता कर्मयोग अध्याय 3 समाप्त।)

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, October 13, 2016

#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 31 से 35 तक*

*ये में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: !*
*श्रद्धावन्तोअनसूयन्तो मुच्यन्ते टीपी कर्मभि: !!* (3/31)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - जो व्यक्ति दोष-दृष्टि से दूर रहकर श्रद्धा के साथ मेरे इस मत (पूर्व श्लोक 3/30 में वर्णित मत) का सदा पालन करता है, वह् भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है.

*तात्पर्य* - हमें अपने मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने कर्मों को अर्पण करते हुए आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*प्रसंगवश*

इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है. शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, धन, संपत्ति, पदार्थ (वस्तुएँ) आदि सब प्रकृति द्वारा अस्थाई रूप से दिए गए हैं और यह भौतिक संसार भी प्रकृति का कार्य है. जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे हम अपनी मान लेते हैं या उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं, यही तो बंधन है. सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति से हमें कभी तृप्ति नहीं हो सकती. तृप्ति और पूर्णता का अनुभव परमात्मा के मिलन से होगा. जो वस्तुएँ इस भौतिक संसार में हमें मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उनका उपयोग करना चाहिए. हम इस संसार में भौतिक पदार्थों (धनादि) के संग्रह में लगे रहते हैं और सोचते हैं कि ये और मिल जाए, पर क्या ये सब हम अपने साथ ले जा सकते हैं. शरीर, पद, अधिकार, शिक्षा, योग्यता, धन, संपत्ति, मकान आदि बहुत कुछ हमें संसार से ही मिला है और यह संसार का ही है, इसे हमें संसार के लिए ही उपयोग में लेना है, ऐसा मानकर यदि हम अपना कर्तव्य-कर्म करेंगे तो निश्चित ही हम कर्म-बंधन से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे.

*ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मेटम !*
*सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः: !!* (3/32)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - लेकिन जो व्यक्ति मेरे इस मत (श्लोक 30 में वर्णित मत) में दोषारोपण करते हुए पालन नहीं करते, ऐसे संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और अविवेकी व्यक्ति नष्ट होते हैं, उनका पतन होता है.

*प्रसंगवश*

यहाँ महत्वपूर्ण है कि श्रीकृष्ण ने श्लोक 30 की महत्ता का वर्णन श्लोक 31 में किया है और इस श्लोक 32 में श्रीकृष्ण का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अपने मस्तिष्क (चित्त) को परमात्मा में केंद्रित नहीं करते हैं या अपने सभी कर्मों का अर्पण नहीं करते हैं या आशा और ममता (मोह) से दूर नही रह पाते हैं, ऐसे व्यक्ति पतन के मार्ग पर चलकर नष्ट हो जाते हैं.

इस प्रकार 31वें और 32वें - दोनों श्लोकों में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि उनके सिद्धांत के अनुसार चलना है अर्थात् जो अपने चित्त अर्थात् मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर कर्तव्य-कर्म करता है, वह व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है और जो उनके सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलता है, उसका पतन होता है. अत: हमें अपने चित्त को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को उन्हीं को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि !*
*प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह किं करिष्यति !!* (3/33)


*भावार्थ* - सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के अनुसार द्वेषरहित या द्वेषयुक्त होकर कर्म करते हैं, ज्ञानी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार द्वेषरहित होकर चेष्टा (प्रयास) करता है, वह प्रकृति के वशीभूत नहीं होता है.

*इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ !*
*तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ !!* (3/34)


*भावार्थ* - व्यक्ति के मन में प्रत्येक इन्द्रिय के हर विषय के प्रति राग और द्वेष रहता है, व्यक्ति को दोनों (अर्थात राग और द्वेष) के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों आत्म-साक्षात्कार (अपने कल्याण) के मार्ग में अवरोधक हैं.

*प्रसंगवश*

राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से राग-द्वेष प्रबल होते हैं और यही स्वभाव बन जाता है. ऐसा स्वभाव व्यक्ति को गलत कर्म करने से बांधता है.

*श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात !*
*स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह: !!* (3/35)


*भावार्थ* - अपने नियत कर्मों को दोषपूर्ण तरीके से पूरा करना भी दूसरे के कर्म को करने से अच्छा है. अपने नियत कर्मो (स्वधर्म) को करते हुए मरना भी कल्याणकारक है और अन्य का नियतकर्म (परधर्म) खतरनाक/डरावना होता है.

*तात्पर्य* - अपने कर्तव्य का निःस्वार्थ भाव से पालन करना ही स्वधर्म है . 'स्वधर्म' अर्थात अपने कर्तव्य का पालन सुख-दुःख को देखकर नहीं किया जाता, वरन निष्काम भाव से किया जाता है. त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग) - ये तीनों स्वधर्म हैं. योगी होना स्वधर्म है, और भोगी होना परधर्म है. निर्लिप्त रहना स्वधर्म है, और लिप्त रहना परधर्म है. सेवा करना स्वधर्म है, और कुछ चाहना परधर्म है. व्यक्ति में दो प्रकार की इच्छाएं होती हैं. पहली, सांसारिक - भोग और संग्रह की इच्छा, और दूसरी, कल्याण की इच्छा. हमें कल्याण की इच्छा रखनी चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल


Tuesday, October 11, 2016

#030 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#030 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 29 व 30*

*प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु !*
*तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् !!* (3/29)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - प्रकृति के गुणों से मोहित व्यक्ति गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं. इन अपूर्ण ज्ञान वाले अज्ञानी व्यक्तियों को पूर्ण ज्ञान जानने वाला ज्ञानी विचलित ना करे. (तात्पर्य - जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों से मोहित है और प्रकृति के गुणों और कर्मों में आसक्त है, वह् अज्ञानी है.)

*प्रसंगवश*

अज्ञानी व्यक्ति की सांसारिक भोग और संग्रह में रूचि रहती है. उसकी धनादि प्राप्त पदार्थों से ममता रहती है और जो अप्राप्त है, उसे प्राप्त करने की कामना वह करता है परंतु वह प्रकृतिजन्य गुणों से मोहित (बंधा) रहता है और वह शास्त्रों में, शास्त्रानुसार शुभकर्मों में और उन कर्मों के फलों में श्रद्धा-विश्वास करता है. ऐसे व्यक्ति के लिए श्लोक 3/26 और 3/29 में वर्णन किया गया है.

*मयि सर्वाणि कर्माणि संन्ययस्याध्यात्मचेतसा !*
*निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: !!* (3/30)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - अपने चित्त को मुझमें केंद्रित कर, अपने सभी कर्मों को मुझमे अर्पण कर, आशा और ममता से दूर रहकर, संताप रहित होकर युद्ध कर.

*प्रसंगवश*

श्रीभगवान को अर्पण करने वाला व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है. 'सभी कर्मों को मुझमें अर्पण कर' से तात्पर्य है कि व्यक्ति को क्रिया और पदार्थ को अपने और अपने लिए ना मानकर परमात्मा (श्रीभगवान) और परमात्मा (श्रीभगवान) के लिए मानना चाहिए. कारण कि परमात्मा (श्रीभगवान) समग्र हैं और संपूर्ण कर्म तथा पदार्थ समग्र परमात्मा (श्रीभगवान) के अंतर्गत हैं.

सादर,

केशव राम सिंघल

#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 28*

*तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: !*
*गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सञ्जते !!* (3/28)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - परन्तु, हे अर्जुन ! गुण-विभाग और कर्म-विभाग के अन्तर को जानने वाला ज्ञानी व्यक्ति यह जानकर आसक्त नहीं होता कि सभी गुण ही गुणों में बरत रहे हैं. (अर्थात् यह जानकर आसक्त नहीं होता कि इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं. वह कभी भी इन्द्रियों के जाल में नहीं फंसता और अपने आपको इन्द्रियतृप्ति से दूर रखता है.)

*प्रसंगवश*

*गुण-विभाग क्या है?*


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय हैं, यही 'गुण-विभाग' है.

*कर्म-विभाग क्या है?*

शरीरादि से होने वाली क्रिया 'कर्म-विभाग' है.

*गुण ही गुणों में बरत रहे हैं*

समस्त क्रियाएं समष्टि शक्ति से संपन्न हो रही हैं. उदारण के तौर पर, आँख का गुण देखना, कान का गुण सुनना आदि, ये देखना-सुनना-खानापीना आदि सब क्रियाएं हैं . ये सब समष्टि शक्ति से संपन्न हो रहा है अर्थात गुण ही गुणों में बरत रहे हैं.

अज्ञानी व्यक्ति गुण-विभाग और कर्म-विभाग से अपना सम्बन्ध मान लेता है. मुख्य कारण 'राग' (मोह) है, जिससे वह बंधता है. यह राग (मोह) अविवेक/अज्ञान के कारण होता है. विवेक जाग्रत होने पर राग (मोह) नष्ट हो जाता है. आवश्यकता राग (मोह) को मिटाने की है.

जब व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है तो उसे अनुभूति होती है कि वह ईश्वर का अंश है पर किसी कारण वह देहात्मबुद्धि में फंस गया है और फलत: वह सभी प्रकार के भौतिक बंधनों से विचलित नहीं होता.

परिवर्तनशील प्रकृति के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध वस्तुत: है नहीं, केवल माना हुआ है. प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध को यदि व्यक्ति विचार द्वारा मिटाता है तो यह 'ज्ञानयोग' है. और यदि वह इसी सम्बन्ध को दूसरों का हित करते हुए कर्म कर मिटाता है तो यह 'कर्मयोग' है. प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही योग-अनुभव होता है.

*योग-अनुभव अर्थात परमात्मा (ईश्वर) से सम्बन्ध का अनुभव !*

सादर,

केशव राम सिंघल


#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 25 से 27*

*सक्ता: कर्मण्यविद्वान्सो यथा कुर्वन्ति भारत !*
*कुर्या द्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् !!* (3/25)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! जिस प्रकार अज्ञानी लोग कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं, आसक्ति से दूर रहकर विद्वानजन भी लोकसंग्रह चाहते हुए उसी प्रकार कर्म करें.

*न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् !*
*जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्त: समाचरन् !* (3/26)


*भावार्थ* - विद्वानजन कर्म में आसक्त होकर अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करें (अर्थात् कर्म में अविश्वास/अश्रद्धा पैदा ना करें), समस्त कर्म करते हुए उनसे भी वैसा ही करवाएँ.

*प्रकृते: क्रियमाणामि गुणै: कर्माणि सर्वश: !*
*अहंङ्कारविमूढात्मा कर्तानिति मन्यते !!* (3/27)


*भावार्थ* - सभी कर्म हर तरह से प्रकृति के गुणों के कारण संपन्न होते हैं (लेकिन) अहंकार से मोहित व्यक्ति सोचता है कि मैं कर्ता हूँ.

*चलते-चलते*

जब तक आसक्ति से दूर रहकर (अर्थात् निष्कामभाव से) से मैं अपना कर्म नहीं करूँगा, तब तक मेरा जीवन-मरण नहीं समाप्त होने वाला. आसक्ति से दूर रहकर कर्म करने से ही सद्गति की प्राप्ति होती है. कर्म अपने लिए न करके कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना है.

सादर,

केशव राम सिंघल