Sunday, July 31, 2016

#009 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#009 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 19 से 38 तक


श्रीकृष्ण अर्जुन से -
जो जीवात्मा को मारने वाला और जो जीवात्मा को मरा समझता है, वह अज्ञानी है क्योंकि आत्मा ना तो मरता है और ना ही मारा जाता है। आत्मा का ना तो किसी काल में जन्म होता है और ना ही मृत्यु। वह न तो कभी जन्मता है। आत्मा अजन्मा, सदैव रहने वाला, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर आत्मा नहीं मारा जाता। जो व्यक्ति जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा कभी ना खर्च होने वाला है, वह किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है। जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र पहनता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने और बेकार शरीर को त्यागकर नया भौतिक शरीर धारण करता है। आत्मा किसी शस्त्र द्वारा खंडित नहीं किया जा सकता, न ही अग्नि द्वारा जलाया जा सकता, न ही जल द्वारा गीला किया जा सकता या वायु द्वारा सुखाया जा सकता। आत्मा अखंडित और अघुलनशील है। यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदा एक सा रहने वाला है। यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए। यदि तुम सोचते हो कि जीवन सदा जन्म लेता है और सदा मरता है, तो भी तुम्हारे शोक का कोई कारण नहीं है। जिसने जन्म लिया है, जसकी मृत्यु निश्चित है और उसके बाद पुनर्जन्म भी निश्चित है। इसलिए जो अटल , अपरिहार्य है, उसके विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। सभी जीव जन्म से पहले नहीं दिखते हैं और मरने के बाद भी नहीं दिखने वाले, केवल जन्म और मृत्यु के बीच में दिखते हैं, फिर इसमें चिंता करने की क्या आवश्यकता है। कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई आश्चर्य से इसका वर्णन करता है, कोई अन्य इसे आश्चर्य से सुनता है। किंतु कुछ लोग तो सुनकर भी इसको नहीं जान पाते। प्रत्येक जीव के शरीर में रहने वाला यह आत्मा सनातन (शाश्वत) है, इसको कभी मारा नहीं जा सकता। अतः तुम्हें किसी जीव के लिए शोक नहीं करना चाहिए। अपने विशिष्ट धर्म (क्षत्रिय होने) का विचार करते हुए तुम्हे विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म-युद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है। वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर स्वतः मिलते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुले मिलते हैं। यदि तुम इस धर्म-युद्ध को नहीं लड़ोगे तो अपने कर्तव्य की उपेक्षा के कारण तुम्हें पाप लगेगा और तुम अपना यश (कीर्ति, सम्मान) खो बैठोगे। लोग सफैव तुम्हारे अपयश का बखान करते रहेंगे और सम्मानित पुरुष के लिए अपयश मृत्यु से भी बढ़कर है। तुम्हारे नाम और यश को सम्मान देने वाले योद्धा सोचेंगे कि भय के कारण तुमने युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे। तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कठोर शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारे सामर्थ्य का मजाक बनाएंगे। इससे अधिक दुःख क्या होगा? तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे और यदि जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का आनंद प्राप्त करोगे। इसलिए दृढ़ संकल्प के साथ खड़े होकर युद्ध करो। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय पर विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कभी पाप नहीं लगेगा।

शुभकामना सहित,

केशव राम सिंघल

Saturday, July 30, 2016

#008 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#008 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*प्रसंगवश टिप्पणी*
*सत् और असत्*


हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है। हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए। वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है। हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं। हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है। असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है।

परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है। शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है। आत्मा शाश्वत है। आत्मा सत् है।

*उदाहरण*

सत् = आत्मा, जो सदा रहने वाला है।
असत् = भौतिक शरीर, जो सदा रहने वाला नहीं है।

अभिवादन,

केशव राम सिंघल

#007 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#007 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 10 से 18*


युद्ध-भूमि में जो घटित हो रहा है, उसका हाल धृतराष्ट्र को सुनाते हुए संजय ने कहा - दोनों सेनाओं के बीच शोक में डूबे अर्जुन से श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा - तुम विद्वतापूर्ण बाते कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो, जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वे ना तो जीवित के लिए और ना ही मृत के लिए शोक करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं, तुम अथवा ये समस्त राजा ना रहे हो और ना ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। शरीरधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था-तरुणावस्था-वृद्धावस्था के दौरान निरंतर रहता है और मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर (विद्वान) व्यक्ति को ऐसे परिवर्तन से मोह नहीं होता। सुख-दुःख का आना-जाना ऋतुओं के आने-जाने के समान है, ये सब इंद्रियबोध से महसूस होते हैं और मनुष्य को इन्हें अविचल भाव से सहन करना सीखना चाहिए। जो व्यक्ति सुख-दुःख में विचलित नहीं होता और जिसका सुख-दुःख में एक समान व्यवहार रहता है, वह निश्चित मुक्ति (मोक्ष) के योग्य है। भौतिक शरीर हमेशा रहने वाला नहीं है किंतु आत्मा अपरिवर्तित रहता है, ऐसा तत्त्वदर्शियों का निष्कर्ष है। शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी है। इस आत्मा को कोई नष्ट नहीं कर सकता। भौतिक शरीर का अंत अवश्य होगा। अतः हे अर्जुन, युद्ध करो।

तात्पर्य

भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा और शोक की आवश्यकता नहीं है। आत्मा शाश्वत है, उसको जान लेना आत्म-साक्षात्कार है। भौतिक शरीर विनाशी है। हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखकर अपना कर्म करना चाहिए।

शुभकामना और अभिवादन,

केशव राम सिंघल

#006 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#006 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*प्रसंगवश टिप्पणी*


वास्तव में ज्ञान (अर्थात् परमसत्य) को जानने वाला ज्ञान का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है। हालांकि ये सभी अवस्थाएं एकरूप कही जा सकती हैं यथा ब्रह्म, परमात्मा और श्रीभगवान, पर इसके तीन पक्ष होते हैं - (1) ज्ञान का प्रकाश (जैसे सूर्य का प्रकाश अर्थात् धूप), (2) ज्ञान की सतह (जैसे सूर्य की सतह), और (3) ज्ञान अर्थात् परमसत्य (जैसे सूर्यलोक स्वयं)।

जो ज्ञान के प्रकाश को देख पा रहे हैं , वे जिज्ञासु हैं, साधक हैं। वे सीख रहे हैं।

जिसने ज्ञान (परमसत्य) के प्रकाश की सतह को समझ लिया है, वह ज्ञानी है। उसे हम 'ज्ञानी भक्त' कह सकते हैं।

और जिसने ज्ञान (परमसत्य) को भली प्रकार जान लिया है अर्थात् परमसत्य के सूर्यलोक में जिसने प्रवेश कर लिया है, वे उच्चतम ज्ञानी हैं।

शुभकामना और अभिवादन,

केशव राम सिंघल

#005 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#005 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*श्रीमद्भगवद्गीता संक्षिप्त कथा - अध्याय 2 - श्लोक 1 से 9*


संजय युद्ध भूमि में जो कुछ घटित हो रहा है, उसका वर्णन धृष्टराष्ट्र से करते हुए कहता है - करुणा से भरे, शोकग्रस्त और आँखों में पानी भरे अर्जुन को देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - है अर्जुन! तुम्हारे मन में यह अज्ञान कैसे आया? यह तुम्हारे लिए बिलकुल भी अनुकूल नहीं है। तुम तो जीवन के मूल्य को जानते-समझते हो। इस हीन नपुंसकता और हृदय की कमजोरी को त्यागकर युद्ध के लिए तैयार होओ। यह सुनकर अर्जुन कहता है - हे मधुसूदन ! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर अपना बाण चलाऊं? जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मारकर जीने की अपेक्षा भीख मांगकर खाना अच्छा है। हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है - उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। यदि हम कौरवों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। मैं दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। मेरे लिए क्या श्रेयस्कर है? मैं आपका शिष्य हूँ, आपके शरणागत हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन कर मुझे उपदेश दें। मुझे कोई उपाय सूझ नहीं रहा, जिससे मेरा शोक दूर हो सके। इस पूरी पृथ्वी का राज पाने के बाद भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकेगा। 'हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूंगा' कहकर अर्जुन चुप हो गया।

पृष्ठभूमि

अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक है और युद्धभूमि में युद्ध करने से पहले एक घमासान विचार-युद्ध उसके मस्तिष्क में चलने लगता है और वह अनिश्चय की स्थिति में आ जाता है।

वह मोह के कारण युद्ध करना नहीं चाह रहा है, पर मन में वह अनिश्चय को भी महसूस कर रहा है, इसलिए क्या उचित-अनुचित है यह जानने का उत्सुक भी है और इसलिए श्रीकृष्ण के समक्ष अपनी दुविधा को रखते हुए मार्गदर्शन की इच्छा व्यक्त करता है।

सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का एकमात्र हल है।
Right knowledge is ultimate solution to all our problems.

हमें सही ज्ञान को प्राप्त करने का उत्सुक होना चाहिए।
We should be ready to seek always the right knowledge.


शुभकामना सहित,

केशव राम सिंघल

Wednesday, July 13, 2016

गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता अध्याय एक


*गीता अध्ययन एक प्रयास*

*#001*

*गीता अध्याय एक - संक्षिप्त कथा*

*पृष्ठभूमि* - धृतराष्ट्र अन्धा है, आँखों से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी. वह कौरवों के मोह में फँसा है. वह युद्धभूमि के हाल जानना चाहता है. संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वह उस स्थान को देख सकता है, जहाँ वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है.

*संक्षिप्त कथा* - धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा कि युद्धभूमि में क्या घटित हुआ. संजय युद्धभूमि का हाल बताते हुए कहते हैं - पांडवों की सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने सेनापति और गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और बोला - हे आचार्य ! अपनी और पांडवों की सेनाओं को देखिए. आपके बुद्धिमान शिष्य के पुत्र ने उनकी सेना को कौशलता के साथ व्यवस्थित किया है. हमारी सेना में अनेक वीर धनुर्धर मौजूद हैं. दुर्योधन ने अनेक नामों का उल्लेख किया, जो सेना को संचालित करने और युद्ध कौशल में निपुण हैं. वह कहता है कि ऐसे अनेक वीर हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार हैं. हमारी शक्ति अपरिमेय है, जबकि पांडवों की शक्ति सीमित है. हम सब पितामह (अर्थात द्रोणाचार्य) से संरक्षित हैं. साथ ही दुर्योधन ने अपनी सेना के सैनिकों से कहा कि वे सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात रहते हुए भीष्म पितामह का ध्यान रखें. दुर्योधन की बातें सुनकर द्रोणाचार्य ने अपना शंख उच्च स्वर से बजाया और फिर कई शंख, नगाडे, तुरही तथा सींग बज़ उठे, जिनका सम्मिलित स्वर कोलाहल से भरा हुआ था. दूसरी ओर श्रीकृष्ण, अर्जुन और अन्य वीरों ने भी अपने-अपने शंख बजाए. भयंकर ध्वनि ने दोनों ओर की सेनाओं को युद्ध के लिए तैयार कर दिया और युद्ध प्रारंभ ही होने वाला था कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा - कृपा कर मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें ताकि मैं युद्ध की अभिलाशा रखने वालों को देख् सकूँ. यह सुनकर श्रीकृष्ण ने दोनों ओर की सेनाओं के बीच अर्जुन के रथ को लाकर खड़ा कर दिया और अर्जुन से कहा - हे पार्थ ! यहाँ एकत्रित कुरुवंश के सदस्यों को देखो. अर्जुन ने दोनों पक्षों की सेनाओं में अपने बन्धु-बांधव, रिश्तेदारों, मित्रों और शुभचिंतकों को देखा. यह सब देखकर अर्जुन का मन ग्लानि से भर गया और उसने श्रीकृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों का वध करना सोचना भी उसे अच्छा नहीं लग रहा. उसने कहा कि वह अपने बन्धु-बांधव को नहीं मारना चाहता, चाहे उसे तीनों लोक ही क्यों ना मिल जाएँ. अपने रिश्तेदारों को मारकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं. कुल का नाश होने से सनातन कुल परम्परा नष्ट होती है, शेष बचा कुल भी अधर्म की ओर प्रवृत होता है, कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं जिनसे अवांछित संतानें उत्पन्न होती हैं, फलस्वरूप नारकीय जीवन उत्पन्न होता है और परिवार कल्याण कार्य समाप्त हो जाते हैं. कुल धर्म का विनाश करने वाले सदा नरक में वास करते हैं और आश्चर्य की बात है कि हम सभी इस जघन्य पापक्रम करने पर आमादा हो रहे हैं. यदि मुझ निहत्थे और युद्धभूमि में विरोध ना करने वाले को धृतराष्ट्र के शस्त्रधारी पुत्र मारे तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा. यह सब कहकर अर्जुन ने अपना धनुष और बाण एक ओर रख दिया और शोक-संतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गए.

*मेरी सीख*

कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते.

गीता के प्रथम अध्याय का सार है - *"ग़लत सोच ही जीवन में एक मात्र समस्या है. मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं." (Wrong thinking is the only problem in life. Due to fascination we deviate from fair and equitable decisions.)*



*#002*

*श्रीमद्भगवदगीता की पृष्ठभूमि और अर्जुन की सोच*


कौरवों की सेना को देखकर अर्जुन को विषाद क्यों हुआ? इसके लिए श्रीमद्भगवदगीता की पृष्ठभूमि और अर्जुन की सोच को सोचने-समझने की जरूरत है.

जब कौरव और पांडवों के बीच मन-मुटाव अधिक बढ़ गया, तब धृतराष्ट्र ने गृह-कलह से उत्पन्न विनाश से राज्य को बचाने के लिए राज्य को दो भागों में विभक्त कर दिया - एक भाग, जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी, दुर्योधन को और दूसरा भाग, जिसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ थी, युधिष्ठर को मिला. हालाँकि धृतराष्ट्र ने राज्य को दो भागों में इसलिए बाँटा था ताकि राज्य और कुरु-वंश परिवार में सुख-शान्ति बनी रहे, परन्तु यह उस समय तक की चली आ रही प्राचीन परम्परा का उल्लंघन था. दुर्योधन और उसके समर्थक इस राज्य विभाजन से सहमत नहीं थे. भीष्म पितामह जैसे मनस्वी को भी यह विभाजन स्वीकार नहीं था. जब दुर्योधन और पांडवों के बीच चौरस का खेल खेला गया, तब भीष्म पितामह और अन्य भी दर्शक के रूप में वहां उपस्थित थे. चौरस के खेल में युधिष्ठर अपना राज्य तो हारा ही, साथ में उसने द्रोपदी को भी दाँव पर लगा दिया, जिसे भी वह हार गया. पांडव चौरस में अपना सब कुछ हार चुके थे. महाभारत का युद्ध राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए किया युद्ध था. अर्जुन के विषाद का मूल यही है कि उसे युद्ध अनुचित लग रहा था. उसे अपना पक्ष स्पष्ट रूप से दुर्बल लग रहा था. अब प्रश्न फिर सामने आता है कि जब दुर्योधन का पक्ष तत्कालीन राजनीतिक परम्परा पर आधारित था तो पांडवों ने राज्य प्राप्ति के लिए युद्ध का मार्ग क्यों चुना. यह तथ्य सामने है कि राज्य का परम्परागत अधिकारी दुर्योधन था, लेकिन दुर्योधन में दुर्गुणों का विकास हो रहा था, जिससे तत्कालीन राज्य परम्परा को खतरा उत्पन्न होने लगा था. राज्य और सम्पत्ति के मद में मस्त दुर्योधन और उसके पक्षपाती शकुनि के दुराचरण से उत्पन्न स्थिति, राज की क्षति बचाने और भारतीय सांस्कृतिक परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए महाभारत का युद्ध हुआ. भगवान श्रीकृष्ण इस सबके नेतृत्वकर्ता थे, जो एक अखंड साम्राज्य सुसंगठित करना चाहते थे.

युद्ध से पूर्व अर्जुन विषाद की स्थिति में था. स्वजनों के कर्मो के कारण जो स्थिति उत्पन्न हुई, उससे वह ना तो भाग सकता था और ना ही उसके भागने से समस्या का समाधान होता. और यही से श्रीमद्भगवदगीता का ज्ञान प्रारंभ होता है. श्रीमद्भगवदगीता का प्रथम अध्याय अर्जुन विषाद योग से संबंधित है. युद्ध के मैदान में अर्जुन दोनों ओर (दुर्योधन और पांडवों) की सेनाओं को देखता है और स्वजनों, बन्धु-बांधव और अपने परिचितों को देखकर वह विषाद से भर जाता है, सोचने लगता है और अपने सारथी भगवान श्रीकृष्ण से अपने आंतरिक दु:ख का वर्णन करता है. युद्ध-भूमि में अपने स्वजनो और बन्धु-बांधव को आमने-सामने देखकर विषाद से भरा अर्जुन बाण सहित धनुष को त्याग कर यह कहते हुए 'मैं युद्ध नही कर सकता' रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है.

श्रीमद्भगवदगीता का ध्यान करने पर तीन व्यक्ति सहसा ध्यान में आते हैं -
पहले, भगवान श्रीकृष्ण, जिन्होंने श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान का उपदेश दिया.
दूसरे, अर्जुन, जिन्होंने विषाद और उलझन के समय भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान के उपदेश को सुना.
तीसरे, महर्षि वेदव्यास, जो श्रीमद्भगवदगीता काव्य के रचयिता हैं.


*#003*

*कौरव और पांडवों के बीच मनमुटाव की पृष्ठभूमि*


कुरु-वंश भारत का विख्यात राजवंश रहा, जिसकी पीढ़ियों ने भारत में राज किया. धृतराष्ट्र (कौरवों के पिता) और पाण्डु (पांडवों के पिता) इसी वंश से थे. धृतराष्ट्र राजा विचित्रवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र थे और पाण्डु विचित्रवीर्य के छोटे बेटे थे. धृतराष्ट्र शारीरिक अक्षमता (नेत्रहीन होने) के कारण परम्परानुसार राजा का कार्यभार नहीं संभाल सकते थे, अत: राज्य-संचालन का कार्यभार धृतराष्ट्र के अनुज भ्राता पांडु के पास था, पर कुछ समय बाद पांडु का देहांत हो गया और कुरु-वंश में एक बार फिर उत्तराधिकारी की समस्या उलझ गई. इस समय तक धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन बडे हो गए थे अत: परंपरानुसार यह तय हुआ कि विचित्रवीर्य के राज-पाट का उत्तराधिकार दुर्योधन को मिलें. उस समय की प्रचलित परम्परा के अनुसार पांडु के पुत्र युधिष्ठर राज-पाट के अधिकारी नहीं बनते थे. छोटी-छोटी बातों को लेकर दुर्योधन (धृतराष्ट्र के पुत्र) और भीम (पांडु के पुत्र) के बीच मन-मुटाव होने लगा था और द्रोपदी स्वयंवर् के समय कौरव और पांडवों के बीच मन- मुटाव चरम पर था. अर्जुन के पराक्रम के कारण द्रोपदी का विवाह अर्जुन से हुआ और इस प्रकार कौरव चाहते हुए भी द्रोपदी से विवाह नहीं कर सके.

कुरु-वंश में गृह-कलह से उत्पन्न विनाश को बचाने के लिए धृतराष्ट्र ने राज्य के दो भाग किए थे, पर बाद में चौरस के खेल में पांडव अपना राज्य हार गए थे. महाभारत का युद्ध कौरव और पांडवों के बीच राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए हुआ. महाभारत युद्ध शुरू होने से पूर्व जब अर्जुन विषाद के कारण युद्ध करना नहीं चाह रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान का उपदेश अर्जुन को दिया.






*#004*

*श्रीमद्भगवदगीता अध्याय प्रथम के कुछ अन्तिम श्लोकों का भावार्थ और तात्पर्य*


अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

भावार्थ : "ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम जघन्य पाप करने के लिए उत्सुक हो रहे हैं. राज्य सुख के लालच में आकर हम अपने ही स्वजनों को मारने पर आमादा हैं." - अर्जुन

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥

भावार्थ : "यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध में मार डालें तो इस प्रकार मरना भी मेरे लिए अधिक हितकारी होगा." - अर्जुन

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

भावार्थ : संजय बोले- युद्धभूमि में शोक से भरे मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए.

*तात्पर्य*
स्वार्थ के वश में मनुष्य अपने सगे-संबंधियों के विरुद्ध पापकर्मो की ओर बढ़ जाता है और अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक हैं, तभी वे ऐसे पापकर्मो से बचने का प्रयत्न करते हैं. कौरव-पांडवों के बीच युद्ध होने से पूर्व अर्जुन के मस्तिष्क में एक घमासान विचार-युद्ध चलने लगा था और वह अनिश्चय की स्थिति में था. वह अपने सगे-संबंधियों के मोह और अज्ञानता के कारण (क्या उचित या अनुचित है, यह ना जानने के कारण) युद्ध नहीं करना चाह रहा था.

*मेरी सीख*

कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते.

गीता के प्रथम अध्याय का सार है - *"ग़लत सोच ही जीवन में एक मात्र समस्या है. मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं." (Wrong thinking is the only problem in life. Due to fascination we deviate from fair and equitable decisions.)*

शुभकामना सहित,

केशव राम सिंघल