Monday, August 1, 2016

#010 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#010 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*प्रसंगवश टिप्पणी*

*आत्मा भगवान (ईश्वर) का अंश?*


हमें भगवान (ईश्वर) और आत्मा को समझना होगा। भगवान क्या है? आत्मा क्या है?

गीता अध्याय 11 में ईश्वर को जानने का अवसर मिलता है और आत्मा का सन्दर्भ गीता अध्याय 2 में आता है।

जैसा मैं समझ पाया ईश्वर या भगवान (जो भी नाम हम देना चाहे) शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है, जिसका अस्तित्व सदा रहने वाला है। वह शक्ति है, ऊर्जा है। वह अदृश्य रहता है, नहीं दिखता। वह नियन्ता है।

आत्मा भी ना तो जन्मता है, ना ही कभी मरता है। आत्मा शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है। वह शरीर के मर जाने के बाद और शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी रहता है।

परमात्मा, ईश्वर या भगवान का अंश, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह प्रत्येक जीव में नियन्ता के रूप में वास करता है।

हम (मनुष्य) सूक्ष्म ईश्वर या अधीनस्थ ईश्वर हैं, क्योंकि हम में आत्मा का वास है।

ईश्वर प्रकृति पर नियंत्रण रखता है और हम (मनुष्य) प्रकृति पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि हम में सूक्ष्म ईश्वर विद्यमान है।

*जिज्ञासा*

*यदि आत्मा भगवान का अंश है तो फिर क्यों कुछ लोग अपराधी प्रवृति और कुछ अन्य दयालु होते हैं?*

हमारे शरीर में जब तक आत्मा का वास रहता है, हमारा शरीर जीवित रहता है, पर हमारे इस शरीर में आत्माके अलावा अन्य अवयव भी होते हैं, जिनके अपने-अपने कार्य परमात्मा द्वारा निर्धारित हैं। मस्तिष्क सोचता है, कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। ज्ञान-अज्ञान के कारण मनुष्य विभिन्न प्रकार के कर्म करता है। प्रकृति के गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कर्म होते हैं - सात्त्विक कर्म, राजसिक कर्म और तामसिक कर्म।

जिसका मन और बुद्धि दृढ या स्थिर नहीं है, वही विभिन्न सकाम कर्मों की और आकर्षित होता है।

सादर,

केशव राम सिंघल

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