Sunday, August 7, 2016

#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


प्रसंगवश

योग


गीता में मुख्यत: तीन योग मार्ग बताए गए हैं - (1) कर्मयोग, (2) ज्ञानयोग, और (3) भक्तियोग, जिसके लिए मानवजीव के पास तीन शक्तियाँ होती हैं - (1) कर्म करने के लिए कर्म करने की शक्ति, (2) ज्ञान बढ़ाने के लिए जानने की शक्ति, और (3) भक्ति के लिए विश्वास की शक्ति.

गीता में अन्य योग मार्ग की भी चर्चा है, जैसे - यज्ञ, दान, तप, ध्यानयोग, प्राणायाम, हठयोग, लययोग.

योग = इंद्रियों का निग्रह
योग = चित्त की स्थिरता
योग = संयमन

योग, बुद्धि और बुद्धियोग - तीनों का एक ही अर्थ जान पड़ता है.
योग = बुद्धि
योग = बुद्धियोग

योग अर्थात श्रीभगवान के साथ नित्य सम्बन्ध.
समत्व योग उच्यते (2/48) में यही भाव दिखाई देता है.
समता ही योग है अर्थात समता परमात्मा का स्वरूप है.
यह समता हमारे अंत:करण में सदा बनी रहनी चाहिए.

कर्मयोग में कर्म मुख्य नहीं है, बल्कि योग (बुद्धि) मुख्य है. भक्तियोग में मन मुख्य है. कर्मयोग हमारे लिए मुक्ति और कल्याण पाने का एक उपाय हो सकता है.

जिज्ञासा

कर्म में कुशलता योग है या कर्म में योग कुशलता है?


हमें योग के अर्थ को समझना चाहिए. कर्म दो प्रकार के हो सकते हैं - (1) अच्छा कर्म, और (2) बुरा (निंदनीय) कर्म. जब योग नहीं होगा तो अच्छा कर्म होना मुश्किल लगता है. योग के बिना कर्म निंदनीय हो सकते हैं. निंदनीय कर्म (जैसे - चोरी, डकैती, अपहरण आदि) में कुशलता योग नहीं हो सकती. गीता में भी लिखा है - योग: कर्मसु कौशलम् (2/50) अर्थात कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग चाहिए.

चलते-चलते

मोह (ममता)


व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा.

विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

2/52 में मोह (ममता) के दल-दल से बुद्धि हटाने की बात कही गई है.

सादर,

केशव राम सिंघल


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