Sunday, November 27, 2016

#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 19 से 22*


4/19
*यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिताः !*
*ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणन् तमाहु: पंडितं बुधा: !!*


4/20
*व्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: !*
*कर्मण्यभिप्रवृत्तोअपि नैव किञ्चित्करोति स: !!*


4/21
*निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः !*
*शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् !!*


4/22
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः !*
*सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
जिसके सभी कर्म शुरू से संकल्प और कामना से रहित होते हैं, जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से भस्म हो गए हैं, उसे ज्ञानीजन भी बुद्धिमान कहते (मानते) हैं. (4/19)

जो (व्यक्ति) कर्म और फल की आसक्ति त्याग कर सदा स्वतंत्र (निराश्रय) और संतुष्ट (तृप्त) है, वह कर्मों में भली प्रकार लगा हुआ भी कुछ नहीं करता. (4/20)

जिसका अन्तकरण मन वश में है, जिसने सभी प्रकार के संग्रह (संपत्ति आदि के स्वामित्व) का त्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित व्यक्ति (कर्मयोगी) केवल शरीर संबन्धी कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता. (4/21)

अपंने आप (बिना किसी इच्छा के) जो मिल जाएँ उसमें संतुष्ट, द्वंदों से दूर रहता हुआ ईर्ष्या रहित सिद्धि (पाने) और असिद्धि (न पाने) में समभाव रखता है, वह कर्म करते हुए भी (कर्म से) नहीं बंधता. (4/22)


*प्रसंगवश*

कर्म का संकल्प के साथ होना = कर्म का चिंतन करते समय यह विचार आना कि कर्म जीवन में काम में आने वाला है अर्थात उपयोगी है.

कर्म का संकल्प रहित होना = कर्म के बारे में फल या उपयोगिता का विचार ही ना आए

संकल्प और कामना (इच्छा रखना) कर्म के बीज हैं. जब संकल्प और कामना नहीं रहती है तब किए जाने वाला कर्म अकर्म हो जाता है.

ज्ञानरूपी अग्नि से कर्म का भस्म होना = कर्म-अकर्म के संपूर्ण ज्ञान से कर्मफल के चिंतन को समाप्त करना

प्रत्येक व्यक्ति को इस संसार में कर्म करने होते हैं. यह व्यक्ति पर है कि वह कर्म किस प्रकार करता है. कर्मफल की आसक्ति का त्याग करते हुए इच्छारहित होकर निष्कामभाव से हमें कर्तव्य कर्म करना चाहिए, जिससे दूसरों को लाभ मिले. यही गीता ज्ञान का सार है, यही प्रभु की इच्छा है और इसी में हमारा कल्याण है.

*निर्लिप्तता का उदाहरण* - कमल का पौधा जल में रहता है और कमल के पौधे का पत्ता वहीं उत्पन्न होता है, वहीं बढ़ता है और वहीं रहता है, फिर भी जल से निर्लिप्त रहता है.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

सादर,

केशव राम सिंघल

#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 15 से 18*


4/15
*एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: !*
*कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् !!*


4/16
*किं कर्म किमकर्मेति कवयोअप्यत्र मोहिता: !*
*तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेअशुभात् !!*


4/17
*कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः !*
*अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: !!*


4/18
*कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: !*
*स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् !!*



*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
पूर्वकाल के कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों (मुमुक्षुओं) ने भी यह जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा किए जाने वाले कर्मों को उन्हीं की तरह कर ! (4/15)

कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में विद्वान भी मोहित (भ्रमित) हो जाते हैं. कर्म क्या है, यह मैं तुझे अच्छी तरह से कहूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे. (4/16)

व्यक्ति को कर्म, अकर्म और विकर्म को जानना चाहिए, क्योंकि कर्म के बारे में समझना अत्यन्त कठिन है. (4/17)

जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह् व्यक्तियों में बुद्धिमान है, योगी है और समस्त कर्मों को करने वाला है. (4/18)

*तात्पर्य*

मुमुक्षा जाग्रत होना = वैराग्य का अनुभव होना
मुमुक्षु = कल्याण चाहने वाला व्यक्ति

श्रीभगवान के उपदेश का सार है कि जिस तरह मुमुक्षुओं ने (कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों ने वैराग्य का अनुभव होने पर भी) कर्मयोग की महत्ता को जानकर कर्तव्य-कर्म किए हैं, इसलिए हमें भी निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*प्रसंगवश*

*कर्मयोग की महत्ता*

कर्मयोग = कर्म करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना.

कर्म संसार के लिए और योग अपने लिए. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है, यह बात हमें समझनी चाहिए. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.


सादर,

केशव राम सिंघल

Saturday, November 26, 2016

#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 4 - श्लोक 11 व 12*

4/11
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - हे पार्थ (अर्जुन) ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण में आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार आश्रय देता हूँ, क्योंकि वे सभी (व्यक्ति) हर तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं.

4/12
*काडन्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त: इह देवता: !*
*क्षिप्रं ही मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कर्मों का फल चाहने वाले व्यक्ति देवताओं की उपासना करते हैं क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं.

*प्रसंगवश* - हमारे मन में यह बार दृढ है कि कर्म किए बिना कुछ नहीं मिलता. हम ऐसा मानते हैं कि जैसे सांसारिक वस्तुओं (जैसे धन, सम्पदा आदि) की प्राप्ति कर्म करने से होती है, उसी प्रकार हमारा कल्याण भी कर्म करने से होगा. यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है और कर्मों का फल ही हमें इस लोक या परलोक में मिलता है, ऐसा हम मानते हैं. कर्मजन्य फल की कामना के कारण हम कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाते हैं और जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है. यह बात हमें समझनी चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 13 व 14*

4/13
*चातुर्वणर्यन् मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: !*
*तस्या कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययं !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मैंने ही गुणों और कर्मों को बाँटकर चार वर्णों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की है. उस सृष्टि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तू अकर्ता जान.

4/14
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा !*
*इति मां योअभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मुझे कर्म प्रभावित नहीं करते हैं, कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (महत्वाकांक्षा) नहीं है. इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह कर्मों के फल से कभी नहीं बंधता.

*प्रसंगवश* - श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोइ महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए.


सादर,

केशव राम सिंघल



Tuesday, November 22, 2016

#036 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#036 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण !


4/5
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन !
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप !!


भावार्थ
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे परन्तप (अर्जुन)! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं. उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता.

प्रसंगवश - इस श्लोक में पुनर्जन्म की शाश्वत व्यवस्था को इंगित किया गया है और बताया गया है कि शरीर बदलने के साथ जीवात्मा सब कुछ भूल जाता है, जैसे अर्जुन अपने पूर्व जन्मों को भूल चुका है.

4/6
अजोअपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोअपि सन !
प्रकृतिं स्वामधिष्ढाय सम्भवाक्यात्ममायया !!


भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ और सभी प्राणियों का ईश्वर होते हुए अपनी प्रकृति को अधीन कर अपनी योगमाया से इस पृथ्वी पर प्रकट हुआ हूँ।

प्रसंगवश - श्रीभगवान अपनी प्रकृति के अनुसार समय-समय पर इस पृथ्वी पर अवतार लेते हैं।

4/7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् !!


भावार्थ
(श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) -
हे भरतवंशी (अर्जुन)! जब जब धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं प्रकट होता (जन्म लेता) हूँ.

4/8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् !
धर्मसंस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में जन्म लेता (प्रकट होता) हूँ.

4/9
जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः: !
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नीति मामेति सोअर्जुन !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - हे अर्जुन ! जो मेरे दिव्य रूप और कर्मों की वास्तविक प्रकृति को जानता है, वह अपने शरीर को त्यागने के बाद पुन: जन्म नहीं लेता है. वह मुझे ही प्राप्त होता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है.

4/10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः !
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः !!


भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - राग (आसक्ति), भय और क्रोध से मुक्त मुझमें तन्मय होकर मेरी शरण में आकर अनेक व्यक्ति ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मुझे प्राप्त कर चुके हैं अर्थात् अनेक व्यक्तियों का कल्याण हो चुका है.

सादर,

केशव राम सिंघल



Friday, November 4, 2016

#035 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#035 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

4/2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः !
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप !!

4/3
स एवायं मया तेअद्य योग: प्रोक्त: पुरातन !
भक्तोअसी मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् !!

4/4
अर्जुन उवाच -
अपरं भवतो जन्म परं जन्म वैवस्वत: !
कथमेत द्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति !!


भावार्थ

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
हे परन्तप (अर्जुन) ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना परंतु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस पृथ्वी लोक से लुप्तप्राय हो गया। (4/2)

तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र है, इसलिए यह पुरातन योग मैंने आज तुझसे कहा है, क्योंकि यह उत्तम रहस्य (ज्ञान) है। (4/3)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा -
आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म तो बहुत पुराना है, अतः आपने ही सृष्टि के आरम्भ में यह योग कहा था, यह बात मैं कैसे मानूँ? (4/4)

प्रसंगवश

कर्म संसार के लिए होते हैं और योग स्वयं के लिए होता है। व्यक्ति को यह शरीर कर्मयोग का पालन करने के लिए मिला, पर स्वार्थ बढ़ जाने के कारण सेवा की तरफ व्यक्ति का ध्यान नहीं रहा। इस प्रकार जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला, उसे भूल जाना कर्मयोग का लुप्त होना रहा।

श्लोक 4 में अर्जुन श्रीभगवान कृष्ण से अपनी जिज्ञासा जानना चाहते हैं कि किस प्रकार श्रीकृष्ण ने इस कर्मयोग की जानकारी सूर्य को बताई।

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, November 3, 2016

#034 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#034 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 4
ज्ञान कर्म संन्यास योग
दिव्य ज्ञान

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् !
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्षवाकवेअब्रवीत !! (4/1)


भावार्थ
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग) को सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत (मनु) से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इस्वाकु से कहा।

तात्पर्य

यहां श्रीकृष्ण के कहने का तात्पर्य है कि गृहस्थों ने कर्मयोग की शिक्षा को जानकर अपनी कामनाओं का नाश कर अपना कल्याण किया। उसी प्रकार व्यक्ति कर्मयोग का पालन कर परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण कर सकता है।

प्रसंगवश

अभी कलयुग चल रहा है और अभी कलयुग के केवल लगभग 5,000 वर्ष ही बीते हैं। कलयुग की पूर्णायु 4,32,000 वर्ष है। कलयुग से पहले द्वापरयुग 8,00,000 वर्ष का था और इससे पूर्व त्रेतायुग 12,00,000 वर्ष का था। इस प्रकार लगभग 20,05,000 वर्ष पूर्व गीता ज्ञान मनु ने अपने पुत्र इस्वाकु को कहा था। श्रीकृष्ण ने इस ज्ञान को लगभग 5,000 वर्ष पूर्व अर्जुन से पुनः कहा। हमें इस ज्ञान का लाभ लेना चाहिए।

चलते-चलते

# श्रद्धा का अर्थ है अटूट विश्वास।
# ईश्वर, आत्मा, आध्यात्म ज्ञान श्रद्धा के विषय हैं।

कथ्य-विशेष

गीता-ज्ञान लाभप्रद है। यह मानव के जीवन उद्देश्य की प्राप्ति और मानव कल्याण के लिए अत्यंत सहायक है। गीता का श्रवण या अध्ययन व्यक्ति को अपने हित के लिए करना चाहिए। हमें यह भ्रान्ति रहती है कि अधिक से अधिक भौतिक सुविधाओं की प्राप्ति से हम सुखी रह सकते हैं। हमें ईश्वर की महानता स्वीकार करनी चाहिए और यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए कि जीवों की वास्तविक स्थिति क्या है? हमें गीता का श्रवण या अध्ययन कर लाभान्वित होने का प्रयास करना चाहिए।

गीता में आध्यात्मिक ज्ञान भरा पड़ा है। यह आध्यात्मिक साहित्य का महत्वपूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है। गीता का मर्म गीता में ही अभिव्यक्त है। गीता-ज्ञान के वक्ता श्रीकृष्ण हैं, जो ईश्वर (अव्यक्त) के व्यक्त स्वरूप हैं।

गीता को भक्तिभाव से ग्रहण करना चाहिए। गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार से उबारना है। हमारा अस्तित्व अव्यक्त (अनस्तित्व) के परिवेश में है। हमें अव्यक्त (अनस्तित्व) से डरने की आवश्यकता नहीं है। हमें गीता से यह जानने का अवसर मिलता है कि ईश्वर क्या है, आत्मा क्या है, जीव क्या है, प्रकृति क्या है, यह संसार, जो दिखता है (अर्थात् दृश्य-जगत), क्या है, यह काल कैसे नियंत्रित होता है और जीवों के कार्य-कलाप क्या हैं?

ईश्वर सर्वश्रेष्ठ है। ईश्वर हमारा नियन्ता है। हम भौतिक जगत में रहते हैं, जिसकी भौतिक प्रकृति ईश्वर द्वारा नियंत्रित है। हमें यह जानना और स्वीकार करना चाहिए कि इस जगत के पीछे नियन्ता का हाथ है।

हममें भी सूक्ष्म-ईश्वर विद्यमान है। वह (ईश्वर) हर जगह रहता है।

श्रद्धा का अर्थ है अटूट विश्वास। गीता श्रवण या अध्ययन भी श्रद्धा का विषय है।

सादर,

केशव राम सिंघल



Wednesday, November 2, 2016

#033 - गीता अध्ययन एक प्रयास


#033 - गीता अध्ययन एक प्रयास


जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 3 - कर्मयोग - से मेरी सीख


गीता अध्याय 3 कर्तव्य कर्म करने को प्रमुखता देता है। इस अध्याय में प्रमुखता से बताया गया है कि निष्काम भाव से आसक्ति से दूर रहकर दूसरों के हित में अपने कर्तव्य कर्म का पालन करना चाहिए।

कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि की प्रधानता है। जब व्यक्ति अपने कल्याण के लिए निश्चय कर लेता है, तब अनुकूलता या प्रतिकूलता उसे बाधित नहीं कर पाती। निश्चयात्मक बुद्धि के मार्ग में भोग और संग्रह की आसक्ति बाधा है। हमें भोग और संग्रह की आसक्ति से दूर रहना चाहिए।

इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है। जो वस्तुएं हमें इस भौतिक संसार में मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उपयोग करना चाहिए। इंद्रियों को वश में कर कामना का दमन किया जा सकता है। हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखना चाहिए।

सादर,

केशव राम सिंघल