Sunday, August 28, 2016

#022 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#022 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

ॐ !

नमस्कार !

गीता अध्याय 3 - कर्मयोग - श्लोक 9


यज्ञअर्थात्कर्मणोअन्यत्र लोकोअयं कर्मबन्धन: !
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः: समाचर !!
(3/9)

भावार्थ - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिए किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त कर्मों में लगा व्यक्ति उन कर्मों से बंध जाता है. इसलिए, हे अर्जुन ! तू आसक्ति रहित होकर यज्ञ (कर्तव्य-पालन) के लिए ही कर्तव्य कर्म कर. तात्पर्य - इस श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण भ्रमित अर्जुन को यह मार्गदर्शन (उपदेश) देते हैं कि आसक्तिरहित होकर अपना कर्तव्य-कर्म कर.
व्यक्ति कर्म करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदि का भाव नहीं होना चाहिए. कर्म में सकामभाव का निषेध है, कर्म करना निषेध नहीं है. अर्थात् व्यक्ति को भोग और ऐश्वर्य के लिए कर्म करने से बचना चाहिए.

विचारबिन्दु - यज्ञ क्या है ? कर्तव्य-पालन ही यज्ञ है. यज्ञ का अर्थ बहुत बड़ा है.
यज्ञ = दान, तप, होम, तीर्थ करना, व्रत, शास्त्र/वेद अध्ययन, कर्तव्य स्वरूप किए जाने वाले कार्य (जैसे - व्यवसाय, नौकरी, अध्यापन आदि)
यज्ञार्थ कर्म करने से आसक्ति से विरक्ति होती है.

कर्मयोग = कर्म + योग

अपने लिए किए जाने वाले कर्म में भी सकामभाव रहता है, क्योंकि इसमें स्वयं का हित देखने की बात रहती है. जब सकामभाव रहता है तो निषिद्ध (निंदनीय) कर्म होने की संभावना रहती है. कर्म संसार के लिए है, अपने लिए नहीं है.

कर्मयोग का अर्थ चित्त की स्थिरता, संयमन, इंद्रियों का निग्रह करते हुए तथा परमात्मा (श्रीभगवान) के साथ सम्बन्ध बनाते हुए अपना कर्म करना.

*चलते-चलते*

मन में ऐसा भाव आए कि "मैं किसी को बुरा ना समझूँ, किसी का बुरा ना चाहूं और किसी का बुरा ना करूँ" तो समझो कि कर्मयोग की शुरुआत हो चुकी है.

सादर,

केशव राम सिंघल


#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 1 से 8*

*अर्जुन उवाच*
*ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन !*
*तत्किन् कर्मणि घोरे मान् नियोजयसि केशव !!* (3/1)
*व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिन् मोहयसीव में !*
*तदेकन् वाद निश्चित्य येन श्रेयोअहमाप्नुयाम् !!* (3/2)


*भावार्थ* - अर्जुन श्रीकृष्ण से - यदि आप बुद्धि (ज्ञान) को सकाम कर्म से श्रेष्ठ मानते हो तो फिर मुझे इस हिंसात्मक कर्म (अर्थात् युद्ध में क्यों लगाना चाहते हो? अनेक अर्थो वाले आपके उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है. अत: कृपा कर निश्चित् उस बात को कहे जिससे मैं वास्तविक लाभ पा सकूँ.

*श्रीभगवानुवाच*
*लोकेअस्मिन्द्विविधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ !*
*ज्ञानयोगेन सांख्यानान् कर्मयोगेन योगिनाम् !!*
(3/3)

*भावार्थ* - श्रीकृष्ण अर्जुन से - हे निष्पाप अर्जुन ! मैंने पहले कहा - संसार में दो प्रकार की निष्ठा (श्रद्धा) वाले व्यक्ति होते हैं - ज्ञानी की निष्ठा ज्ञानयोग से और भक्त की निष्ठा भक्तियोग से.

*न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यन् पुरुषोंअश्नुते !*
*न च सन्यसनादेव सिद्धिन् समधिगच्छति !!*
(3/4)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति न तो नियत कर्म से विमुख होकर कर्मबंधन से मुक्ति पा सकता है और न कर्मों के त्याग (अर्थात् संन्यास) से सिद्धि प्राप्त कर सकता है.

*न हि कश्चित्क्षमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत !*
*कार्यते ह्यवशः: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै !!*
(3/5)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति किसी समय क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के कारण सभी को विवश होकर कर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता है.

*कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् !*
*इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते !!*
(3/6)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - जो कमेंद्रियों (और ज्ञानेन्द्रियों) को वश में कर मन से इन्द्रियविषयों को सोचता है, वह मूर्ख व्यक्ति मिथ्याचारी कहा जाता है. *स्पष्टीकरण* - कमेंद्रियां पांच हैं - वाक, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा. ज्ञानेन्द्रियाँ भी पांच हैं - श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण. इस श्लोक में कर्मेन्द्रियाणि से तात्पर्य सभी कमेंद्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से है.

*यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेअर्जुन !*
कर्मेन्द्रियै: कर्णयोगमासक्त: स विशिष्यते !!*
(3/7)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - लेकिन, हे अर्जुन ! जो (व्यक्ति) मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में कर बिना किसी आसक्ति के आचरण (व्यवहार) करता है, वही श्रेष्ठ है.

*नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः !*
*शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः !!*
(3/8)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - तुम अपना नियत कर्म करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म के बिना तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता.

सादर,

केशव राम सिंघल


*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*गीता अध्ययन एक प्रयास*

*सार-संक्षेप - गीता अध्याय 2 से मेरी सीख*



- कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते. जब भी किसी विषय (subject) में कोई दुविधा या अनिश्चय की स्थिति हो तो हमें उचित-अनुचित जानने के लिए किसी ज्ञानवान व्यक्ति से उचित ज्ञान (परामर्श) लेना चाहिए, क्योंकि सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का हल है. (Right knowledge is ultimate solution to all our problems.) हमें सही ज्ञान को प्राप्त करने का उत्सुक होना चाहिए. (We should be ready to seek always the right knowledge.)

- भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा और शोक की आवश्यकता नहीं है. आत्मा शाश्वत है, उसको जान लेना आत्म-साक्षात्कार है. भौतिक शरीर विनाशी है. हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखकर अपना कर्म करना चाहिए.

- हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है. हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए. वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है. हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं. हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है. असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है. परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है. शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है. आत्मा शाश्वत है. आत्मा सत् है.

- इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

- आत्मा अजन्मा, सदैव रहने वाला, शाश्वत और पुरातन है. आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है.

- यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करुंगा तो अपने कर्तव्य की उपेक्षा के कारण मुझे पाप लगेगा और मैं अपना यश (कीर्ति, सम्मान) खो बैठूंगा.

- मुझे अपना मन-बुद्धि दृढ और स्थिर रखना चाहिए, ताकि मैं विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होने से बच सकूँ.

- परमात्मा (अर्थात् ईश्वर, श्रीभगवान) शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है, जिसका अस्तित्व सदा रहने वाला है। वह शक्ति है, ऊर्जा है. वह अदृश्य रहता है, नहीं दिखता. वह नियन्ता है.

- सफलता-विफलता (जय-पराजय) की आसक्ति को त्यागकर और सदैव चंचल रहने वाली इंद्रियों को वश में कर मन को एकाग्र करते हुए समभाव से मुझे अपना कर्म करना है.

- मुझे निष्क्रिय नहीं रहना है, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करना है. अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है.

- असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है. सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है. सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है. (असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है. सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है.)

- व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा. विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

- कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग होना चाहिए.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल


Monday, August 22, 2016

#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#019 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*प्रसादे सर्वदु:खानान् ....... पर्यवतिष्ठते !!* (2/65)


इस श्लोक का भावार्थ मनन करते समय इससे पहले के श्लोक (2/64) का भावार्थ ध्यान में रखना चाहिए.

प्रसादे = श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता

*भावार्थ* - इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे शुद्ध चित्त वाले व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है. *तात्पर्य* - चित्त की प्रसन्नता से श्रीभगवान की कृपा (अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता) प्राप्त होने पर सभी दुःख दूर हो जाते हैं, इसलिए आत्म-संयमी बनने और समस्त राग-द्वेष से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए.

*नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य ....... कुत: सुखम् !!* (2/66)

*भावार्थ* - जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक (संयमित, स्थिर) नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और उसे सुख कैसे मिलेगा ? (अर्थात् उसे सुख भी नहीं मिल पाता.)

*इंद्रियाणान् हि चरतान् ............. वायुर्नावमिवाम्भसि !!* (2/67)

*भावार्थ* - जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है.

*तस्माद्यस्य महाबाहो ............. प्रतिष्ठिता !!* (2/68)

*भावार्थ* - इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है.


*या निशा ....... पश्यतो मुने: !!* (2/69)

*भावार्थ* - सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है.

*आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठन् ............. शांतिमाप्नोति न कामकामी !!* (2/70)

*भावार्थ* - जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है.

*विहाय कामान्य: ............. शांतिमधिगच्छति !!* (2/71)

*भावार्थ* - जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है.

*एषा ब्राह्मी स्थिति: .......... ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति !!* (2/72)

ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति = ब्रह्मनिर्वाणम् + ऋच्छति
ब्रह्मनिर्वाणम् = ब्रह्म-आनंद अर्थात् निर्वाण ब्रह्म, शांति
ऋच्छति = प्राप्त करता है

*भावार्थ* - यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - जब भौतिकतावादी जीवनशैली का अंत होता है, तभी निर्वाण अर्थात् शान्ति की प्रप्ति होती है.

(गीता अध्याय 2 समाप्त)

*चलते-चलते*

हमें यह जानना चाहिए कि इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल




Friday, August 19, 2016

#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*विषया ..... निवर्तते !!* (2/59)


*भावार्थ* - व्यक्ति भले ही निषेधात्मक प्रतिबंधों द्वारा इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयास कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की लालसा (इच्छा) बनी रहती है, लेकिन स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति की लालसा (इच्छा) परमात्मा (श्रीभगवान) का अनुभव होने पर समाप्त हो जाती है. *तात्पर्य* - व्यक्ति रसबुद्धि में डूबा रहता है और वह इंद्रिय-विषय को पाने की इच्छा में डूबा रहता है. योग (इंद्रियों के निग्रह) द्वारा रसबुद्धि से निवृत हुआ जा सकता है और रसबुद्धि से निवृत होने पर इंद्रिय-विषयों की लालसा समाप्त होती है.


*यततो .... मन: !!* (2/60)

*भावार्थ* - इन्द्रियाँ इतनी प्रबल और वेगवान होती है कि वे विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती रहती हैं, जो उन्हें काबू में रखने का प्रयत्न करता है.


*तानि ..... प्रतिष्ठिता !!* (2/61)

*भावार्थ* - जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में कर इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना परमात्मा (श्रीभगवान) में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है.

*ध्यायतो ........ कामात्क्रोधोअभिजायते !!* (2/62)

*भावार्थ* - इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है. *तात्पर्य* - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं. और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है. इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए.


*क्रोधाद्भवति ....... बुद्धिनाशात्प्रणश्यति* (2/63)

*भावार्थ* - क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है. जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है.

सम्मोह: = मोह, लगाव, आकर्षण, खिंचाव
सम्मोहात्स्म्रतिविभ्रम = सम्मोहात् + स्म्रतिविभ्रम = सम्मोह से स्म्रति विभ्रम

*सम्मोह:* (2/63) से तात्पर्य ऐसे मोह (लगाव) से है, जो *स्म्रतिविभ्रम:* (स्मृति भ्रम) पैदा करता है अर्थात् जिससे याददाश्त भ्रमित हो जाती है.



*रागद्वेषवियुक्तैस्तु ...... प्रसादमधिगच्छति !!* (2/64)

*भावार्थ* - लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता.



*चलते-चलते*

- स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थिरबुद्दि होने के लिए इंद्रिय-विषयों से मन हटाना अत्यन्त आवश्यक है.

- यदि इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयत्न नहीं किया जाए तो व्यक्ति के मन में इंद्रिय-विषयों के प्रति एक आकर्षण, खिंचाव पैदा होता है और व्यक्ति रसबुद्दि से ग्रसित हो जाता है.

- इंद्रिय-विषयों का चिंतन करने से बेहतर है कि हम परमात्मा (श्रीभगवान) का चिंतन करें और अपने कर्तव्यों को पूरा करें.


सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, August 18, 2016

#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*प्रसंगवश जिज्ञासा*


*कामना का मुख्य कारण क्या है? क्या यह पदार्थ या जीव या कुछ और की प्रकृति है?*

विषय भोग की इच्छा होना कामना है. कामना जब बलवती होती है तो वह वासना में बदल जाती है. कामना और वासना दोनों में इच्छा का वास है. अन्तकरण: में छिपी इच्छा वासना हो सकती है.

मन एक कारण है, जिसमें कामना आती है पर उसमें भी कामना हर समय नहीं होती. शरीर इंद्रियों का मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के फलस्वरूप कामना आती है.

कामना जीव की प्रकृति है, क्योंकि जीव में शरीर-इंद्रियाँ, मन और बुद्धि होती है.

*संगात्संजायते काम* (2/62) में बताया गया है कि इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है.

*इंद्रियाणान् .....* (2/67) में बताया गया है - "जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है."

हमें गीता के *अध्याय 2 के श्लोक 65 से 72* के भावार्थ को समझने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसका भावार्थ निम्न है: "इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है."

सादर,

केशव राम सिंघल


Sunday, August 7, 2016

#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#016 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


प्रसंगवश

योग


गीता में मुख्यत: तीन योग मार्ग बताए गए हैं - (1) कर्मयोग, (2) ज्ञानयोग, और (3) भक्तियोग, जिसके लिए मानवजीव के पास तीन शक्तियाँ होती हैं - (1) कर्म करने के लिए कर्म करने की शक्ति, (2) ज्ञान बढ़ाने के लिए जानने की शक्ति, और (3) भक्ति के लिए विश्वास की शक्ति.

गीता में अन्य योग मार्ग की भी चर्चा है, जैसे - यज्ञ, दान, तप, ध्यानयोग, प्राणायाम, हठयोग, लययोग.

योग = इंद्रियों का निग्रह
योग = चित्त की स्थिरता
योग = संयमन

योग, बुद्धि और बुद्धियोग - तीनों का एक ही अर्थ जान पड़ता है.
योग = बुद्धि
योग = बुद्धियोग

योग अर्थात श्रीभगवान के साथ नित्य सम्बन्ध.
समत्व योग उच्यते (2/48) में यही भाव दिखाई देता है.
समता ही योग है अर्थात समता परमात्मा का स्वरूप है.
यह समता हमारे अंत:करण में सदा बनी रहनी चाहिए.

कर्मयोग में कर्म मुख्य नहीं है, बल्कि योग (बुद्धि) मुख्य है. भक्तियोग में मन मुख्य है. कर्मयोग हमारे लिए मुक्ति और कल्याण पाने का एक उपाय हो सकता है.

जिज्ञासा

कर्म में कुशलता योग है या कर्म में योग कुशलता है?


हमें योग के अर्थ को समझना चाहिए. कर्म दो प्रकार के हो सकते हैं - (1) अच्छा कर्म, और (2) बुरा (निंदनीय) कर्म. जब योग नहीं होगा तो अच्छा कर्म होना मुश्किल लगता है. योग के बिना कर्म निंदनीय हो सकते हैं. निंदनीय कर्म (जैसे - चोरी, डकैती, अपहरण आदि) में कुशलता योग नहीं हो सकती. गीता में भी लिखा है - योग: कर्मसु कौशलम् (2/50) अर्थात कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग चाहिए.

चलते-चलते

मोह (ममता)


व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा.

विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

2/52 में मोह (ममता) के दल-दल से बुद्धि हटाने की बात कही गई है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, August 4, 2016

#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 65 से 72 तक


श्रीकृष्ण कहते हैं -
इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह् आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. (गीता अध्याय 2 समाप्त)

चलते-चलते

असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है। सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है। सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है।

असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है।

सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है।

सादर,

केशव राम सिंघल

#014 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#014 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

कर्म


2/47 में कर्म (कर्तव्य-पालन ) की बात कही गई है।

यहाँ तीन विचारणीय बिंदु हैं -
(1) वे कर्म जिन्हें हमें अपनी कर्तव्य पालना के लिये करना चाहिए।
(2) विकर्म - जो कर्म निंदनीय है, जो विधि-सम्मत नहीं हैं, जो हमारे कर्तव्य भी नहीं है।
(3) अकर्म - अपने कर्मों को नहीं करना अर्थात् अपने कर्तव्य की पालना नहीं करना।

श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया कि निष्क्रिय न रहो, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करो। अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है।

सादर,

केशव राम सिंघल

#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 57 से 64 तक*


श्रीकृष्ण कहते हैं -
जो व्यक्ति सर्वत्र (हर जगह हर समय) अच्छा (शुभ) होने पर ना तो खुश (हर्षित) होता है और बुरा (अशुभ) होने पर ना ही द्वेष करता है (या दुःखी होता है), उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। ( तात्पर्य - इस भौतिक जगत में हर समय कुछ न कुछ घटता रहता है - अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ। जो इस उथल-पुथल में आत्म-संयम रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।) जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों से दूर कर लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। ( तात्पर्य - हमें आत्मसंयम रखना चाहिए।) शरीरधारी जीव (जिसमें मनुष्य भी शामिल है) भले ही इंद्रिय-विषयों से निषेधात्मक प्रतिबंधों से दूर रहने का अभ्यास (प्रयत्न) कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की इच्छा बनी रहती है, लेकिन परमात्मा का अनुभव होने पर उसकी इच्छा समाप्त हो जाती है। इंद्रिया इतनी प्रबल और वेगवान होती हैं कि वे उस विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है। जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करके इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना श्रीभगवान में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। ( तात्पर्य - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए।) क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है। जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है। लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है। (तात्पर्य - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता)

सादर,

केशव राम सिंघल





Wednesday, August 3, 2016

#012 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#012 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 51 से 56 तक*


श्रीकृष्ण अर्जुन से -
बुद्धि-योग से युक्त व्यक्ति (अर्थात् सदैव चंचल रहने वाली इंद्रियों को वश में करने वाला) इस जीवन में ही अपने कर्मों से उत्पन्न अच्छे और बुरे फलों से मुक्त कर लेता है, अतः इस तरह बुद्धि-योग के लिए कुशलता से लग जाओ। जब तुम्हारी बुद्धि मोह के घने जंगल को पार कर लेगी तब सुने हुए और सुनाने में आने वाले सभी भोगो से तुम्हें विरक्ति हो जाएगी। जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित नहीं होगा और जब तुम्हारी बुद्धि आत्म-साक्षात्कार में स्थिर हो जाएगी, तब तुम्हे दिव्य चेतना प्राप्त होगी।

अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं - हे कृष्ण! आध्यात्म में लीन स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के क्या लक्षण होते हैं? वह कैसे बोलता है, कैसे रहता है और कैसे चलता है?

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - हे अर्जुन! जब मनुष्य मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग देता है और जब इस तरह शुद्ध हुआ उसका मन संतुष्ट रहता है, तब वह दिव्य-चेतना को प्राप्त करता है। दुःख में जिसका मन विचलित नहीं होता, सुख में जो रुचिरहित रहता है और जो राग (आसक्ति), भय और क्रोध से मुक्त होता है, वह स्थिर बुद्धि वाला मुनि कहलाता है।

सादर,

केशव राम सिंघल

Tuesday, August 2, 2016

#011 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#011 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 39 से 50 तक


श्रीकृष्ण अर्जुन से -
अब तक मैंने वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा ज्ञान योग का वर्णन किया है। अब तुम निष्काम भाव से कर्म करने का ज्ञान सुनो। अगर तुम निष्काम भाव से अपना कर्म करोगे तो तुम अपने आप को कर्मों के बंधन से मुक्त कर सकोगे। इस प्रकार कर्म करने में न तो कोई हानि है और ना ही कोई ह्रास होता है। बल्कि इस तरह कार्य करने की थोड़ी सी कोशिश भी विशाल भय से रक्षा करती है। इस संसार में जिनकी बुद्धि स्थिर रहती है, उनका निश्चय (लक्ष्य) एक होता है। अस्थिर व्यक्तियों की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है। अविवेकी (अल्पज्ञानी) व्यक्ति वेदों के अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हुए ऐसी दिखावटी बातें कहते हैं कि इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है।कामनाओं और स्वर्ग (ऐश्वर्य) की प्राप्ति के इच्छुक उत्तम जन्म के लिए सकाम कर्म करने की संतुति करते हैं और कहते हैं कि इससे बढ़कर कुछ नहीं है। भौतिक भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्त व्यक्ति ऐसी वस्तुओं से मोहग्रसित हो जाते हैं और उनकी बुद्धि कभी भी नियंत्रित मन वाली नहीं हो पाती है। वेदों में प्रकृति के तीन गुण वर्णित हुए हैं। तुम इन गुणों से ऊपर उठो। अपने आप को हर्ष-शोक के द्वैतभाव से मुक्त करते हुए लाभ और रक्षा सम्बन्धी चिंताओं से मुक्त रहकर आत्म-परायण बनो। सभी प्रकार के बढ़े (विशाल) जलाशय होने पर भी एक छोटे जलाशय से मनुष्य का प्रयोजन पूरा हो जाता है, उसी तरह पूर्ण ज्ञानी ब्राह्मण का वेदों से समस्त प्रयोजन पूरा होता है। तुम्हें अपना कर्म करने (कर्तव्य पालना) का अधिकार है, किन्तु कभी भी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण ना मानो, ना ही कर्म ना करने के प्रति आसक्त होओ। ( तात्पर्य - फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करो। ) हे अर्जुन! सफलता-विफलता (जय-पराजय) की आसक्ति को त्यागकर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसा समभाव योग कहलाता है। ( टिप्पणी - योग का अर्थ सदैव चंचल रहने वाली इंद्रियों को वश में करते हुए मन को एकाग्र करना। ) निश्चय कर अपनी बुद्धि के योग से निंदनीय कर्मों से दूर रहो और ऐसी चेतना में पूर्ण समर्पण का प्रयत्न करो। कंजूस व्यक्ति सकाम कर्म की अभिलाषा रखते हैं। भक्ति में संलग्न व्यक्ति पाप और पुण्य (अच्छे-बुरे फलों) से अपने को मुक्त कर लेता है अतः तुम अपने समस्त कर्मों में योग के लिए कुशलता से प्रयत्न करो।

सादर,

केशव राम सिंघल

Monday, August 1, 2016

#010 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#010 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*प्रसंगवश टिप्पणी*

*आत्मा भगवान (ईश्वर) का अंश?*


हमें भगवान (ईश्वर) और आत्मा को समझना होगा। भगवान क्या है? आत्मा क्या है?

गीता अध्याय 11 में ईश्वर को जानने का अवसर मिलता है और आत्मा का सन्दर्भ गीता अध्याय 2 में आता है।

जैसा मैं समझ पाया ईश्वर या भगवान (जो भी नाम हम देना चाहे) शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है, जिसका अस्तित्व सदा रहने वाला है। वह शक्ति है, ऊर्जा है। वह अदृश्य रहता है, नहीं दिखता। वह नियन्ता है।

आत्मा भी ना तो जन्मता है, ना ही कभी मरता है। आत्मा शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है। वह शरीर के मर जाने के बाद और शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी रहता है।

परमात्मा, ईश्वर या भगवान का अंश, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह प्रत्येक जीव में नियन्ता के रूप में वास करता है।

हम (मनुष्य) सूक्ष्म ईश्वर या अधीनस्थ ईश्वर हैं, क्योंकि हम में आत्मा का वास है।

ईश्वर प्रकृति पर नियंत्रण रखता है और हम (मनुष्य) प्रकृति पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि हम में सूक्ष्म ईश्वर विद्यमान है।

*जिज्ञासा*

*यदि आत्मा भगवान का अंश है तो फिर क्यों कुछ लोग अपराधी प्रवृति और कुछ अन्य दयालु होते हैं?*

हमारे शरीर में जब तक आत्मा का वास रहता है, हमारा शरीर जीवित रहता है, पर हमारे इस शरीर में आत्माके अलावा अन्य अवयव भी होते हैं, जिनके अपने-अपने कार्य परमात्मा द्वारा निर्धारित हैं। मस्तिष्क सोचता है, कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। ज्ञान-अज्ञान के कारण मनुष्य विभिन्न प्रकार के कर्म करता है। प्रकृति के गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कर्म होते हैं - सात्त्विक कर्म, राजसिक कर्म और तामसिक कर्म।

जिसका मन और बुद्धि दृढ या स्थिर नहीं है, वही विभिन्न सकाम कर्मों की और आकर्षित होता है।

सादर,

केशव राम सिंघल