Saturday, November 26, 2016

#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#037 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 4 - श्लोक 11 व 12*

4/11
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् !*
*मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - हे पार्थ (अर्जुन) ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण में आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार आश्रय देता हूँ, क्योंकि वे सभी (व्यक्ति) हर तरह से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं.

4/12
*काडन्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त: इह देवता: !*
*क्षिप्रं ही मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कर्मों का फल चाहने वाले व्यक्ति देवताओं की उपासना करते हैं क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र प्राप्त हो जाते हैं.

*प्रसंगवश* - हमारे मन में यह बार दृढ है कि कर्म किए बिना कुछ नहीं मिलता. हम ऐसा मानते हैं कि जैसे सांसारिक वस्तुओं (जैसे धन, सम्पदा आदि) की प्राप्ति कर्म करने से होती है, उसी प्रकार हमारा कल्याण भी कर्म करने से होगा. यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है और कर्मों का फल ही हमें इस लोक या परलोक में मिलता है, ऐसा हम मानते हैं. कर्मजन्य फल की कामना के कारण हम कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाते हैं और जीवन-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है. यह बात हमें समझनी चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 13 व 14*

4/13
*चातुर्वणर्यन् मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: !*
*तस्या कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययं !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मैंने ही गुणों और कर्मों को बाँटकर चार वर्णों (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की है. उस सृष्टि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को तू अकर्ता जान.

4/14
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा !*
*इति मां योअभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - मुझे कर्म प्रभावित नहीं करते हैं, कर्मों के फल में मेरी स्पृहा (महत्वाकांक्षा) नहीं है. इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह कर्मों के फल से कभी नहीं बंधता.

*प्रसंगवश* - श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोइ महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए.


सादर,

केशव राम सिंघल



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