Tuesday, April 25, 2023

मन की शान्ति

मन की शान्ति 

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हमारा मन बहुत ही गतिशील और चंचल है और यही हमारी अशांति का कारण बन जाता है। कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने इन शत्रुओं के अधीन हो जाते हैं और उचित निर्णय नहीं ले पाते हैं। हमारी ग़लत सोच ही हमारे जीवन में एक मात्र समस्या है। मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं। हमारा मन स्थिर नहीं रहता, यह बदलता रहता है। 


हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है। हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए। वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है। हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं। हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है। असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है। परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है। शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है। आत्मा शाश्वत है। आत्मा सत् है।


*इंद्रियाणान् .....* (गीता 2/67) में बताया गया है - "जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है।"  


जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है। जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति  की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है। यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है। 


मन में ऐसा भाव आए कि "मैं किसी को बुरा ना समझूँ, किसी का बुरा ना चाहूँ और किसी का बुरा ना करूँ" तो समझो कि कर्मयोग की शुरुआत हो चुकी है। कर्मयोग का अर्थ है चित्त की स्थिरता, संयमन, इंद्रियों का निग्रह करते हुए तथा परमात्मा (श्रीभगवान) के साथ सम्बन्ध बनाते हुए अपना कर्म करना। पर यह कैसे हो?


इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण (गीता 3/42) कहते हैं - इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। इंद्रियों से श्रेष्ठ मन है। मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी श्रेष्ठ है। इस प्रकार बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में कर। इस प्रकार मन को बुद्धि के द्वारा संयमित और स्थिर किया जा सकता है। 


मन में जितनी भी बातें आती हैं, वे प्रायः भूतकाल या भविष्यकाल से सम्बंधित होती हैं अर्थात् जो गया या जो होने वाला है, पर यह सब अभी (वर्तमान में) नहीं होता। हमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणादि से अपने को ऊँचा उठाने का प्रयास करना चाहिए। जितना हो सके जड़ वस्तुओं से सम्बन्ध त्यागना चाहिए। हमें यह समझ लेना चाहिए कि असत् के द्वारा सत् की प्राप्ति नहीं होती, वरन असत् के त्याग से सत् की प्राप्ति होती है। पदार्थ, क्रिया और संकल्पों में आसक्त ना हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।  


दो बातें महत्वपूर्ण हैं - पहली, चित्त स्वरूप में स्थित हो जाए और दूसरी, पदार्थों से निःस्पृहः हो जाए। मन में किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, काल आदि का चिंतन न हो और कोई काम, वासना, आशा आदि न हो। मन वस्तुतः बहुत चंचल होता है, पर हमें यह सीखना चाहिए कि अंतर्मन को वश में करने की जरूरत है। मन की शान्ति से बढ़कर संसार में कोई भी संपत्ति नहीं है। 


सादर,

केशव राम सिंघल