Friday, December 16, 2016

#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख


*#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख*


कर्मयोग ज्ञान बहुत ही प्राचीन है. हम कर्मयोग का पालन कर परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण कर सकते हैं. कर्म संसार के लिए होते हैं और योग स्वयं के लिए होता है. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

जब जब धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब श्रीभगवान पृथ्वी पर प्रकट होते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है.

श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए. हमें निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है. हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

अज्ञान की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती. अज्ञान सर्वदा नहीं रहता. अज्ञान यदि हट गया तो सर्वदा के लिए हट गया. अज्ञान का नाश सदा के लिए होता है. जो ज्ञान को एक बार जान लेता है, वह सदा के लिए अज्ञान से निवृत हो जाता है. ज्ञान (अर्थात् तत्वज्ञान) को जानने के बाद मोह नहीं रहता.

सादर,

केशव राम सिंघल




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