Thursday, December 22, 2016

#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 3 से 5*


5/3
*ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति !*
*निर्द्वंदो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते !!*


5/4
*साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: !*
*एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् !!*


5/5
*यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते !*
*एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
हे महाबाहो ! जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा (चाहना) करता है, वह (कर्तव्य-कर्म करता कर्मयोगी) सदा संन्यासी ही मानने योग्य है, क्योंकि द्वंदों से रहित व्यक्ति सहज ही (सुख के साथ) संसार बंधन से मुक्त हो जाता है. (5/3)

अज्ञानी संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को अलग-अलग फल (परिणाम) देने वाले मानते हैं. पर ज्ञानी के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों में से किसी एक का अनुसरण करता है वह दोनों के फल (परिणाम) प्राप्त कर लेता है. (5/4)


जो तत्व (फल या परिणाम) ज्ञानयोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्व (फल या परिणाम) कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं. जो व्यक्ति संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को समान देखता है, वह ठीक देखता है. (5/5)

*प्रसंगवश*

संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग की साधन-प्रणाली भिन्न है, पर साध्य एक ही है.

संन्यास = सांख्ययोग --> ज्ञानयोग

कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों का फल आत्मज्ञान अर्थात कल्याण अर्थात परमात्मा को प्राप्त करना है.
संसार से सम्बन्ध-विच्छेद के दो योगमार्ग हैं - ज्ञानयोग (संन्यास) और कर्मयोग. ज्ञानयोग में विवेक-विचार द्वारा सम्बन्ध-विच्छेद होता है और कर्मयोग में दूसरों की निष्कामभाव से सेवा करने से कामना-आसक्ति से सम्बन्ध-विच्छेद होता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


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