Sunday, November 27, 2016

#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#039 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 19 से 22*


4/19
*यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिताः !*
*ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणन् तमाहु: पंडितं बुधा: !!*


4/20
*व्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: !*
*कर्मण्यभिप्रवृत्तोअपि नैव किञ्चित्करोति स: !!*


4/21
*निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः !*
*शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् !!*


4/22
*यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः !*
*सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
जिसके सभी कर्म शुरू से संकल्प और कामना से रहित होते हैं, जिसके सभी कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से भस्म हो गए हैं, उसे ज्ञानीजन भी बुद्धिमान कहते (मानते) हैं. (4/19)

जो (व्यक्ति) कर्म और फल की आसक्ति त्याग कर सदा स्वतंत्र (निराश्रय) और संतुष्ट (तृप्त) है, वह कर्मों में भली प्रकार लगा हुआ भी कुछ नहीं करता. (4/20)

जिसका अन्तकरण मन वश में है, जिसने सभी प्रकार के संग्रह (संपत्ति आदि के स्वामित्व) का त्याग कर दिया है, ऐसा इच्छारहित व्यक्ति (कर्मयोगी) केवल शरीर संबन्धी कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता. (4/21)

अपंने आप (बिना किसी इच्छा के) जो मिल जाएँ उसमें संतुष्ट, द्वंदों से दूर रहता हुआ ईर्ष्या रहित सिद्धि (पाने) और असिद्धि (न पाने) में समभाव रखता है, वह कर्म करते हुए भी (कर्म से) नहीं बंधता. (4/22)


*प्रसंगवश*

कर्म का संकल्प के साथ होना = कर्म का चिंतन करते समय यह विचार आना कि कर्म जीवन में काम में आने वाला है अर्थात उपयोगी है.

कर्म का संकल्प रहित होना = कर्म के बारे में फल या उपयोगिता का विचार ही ना आए

संकल्प और कामना (इच्छा रखना) कर्म के बीज हैं. जब संकल्प और कामना नहीं रहती है तब किए जाने वाला कर्म अकर्म हो जाता है.

ज्ञानरूपी अग्नि से कर्म का भस्म होना = कर्म-अकर्म के संपूर्ण ज्ञान से कर्मफल के चिंतन को समाप्त करना

प्रत्येक व्यक्ति को इस संसार में कर्म करने होते हैं. यह व्यक्ति पर है कि वह कर्म किस प्रकार करता है. कर्मफल की आसक्ति का त्याग करते हुए इच्छारहित होकर निष्कामभाव से हमें कर्तव्य कर्म करना चाहिए, जिससे दूसरों को लाभ मिले. यही गीता ज्ञान का सार है, यही प्रभु की इच्छा है और इसी में हमारा कल्याण है.

*निर्लिप्तता का उदाहरण* - कमल का पौधा जल में रहता है और कमल के पौधे का पत्ता वहीं उत्पन्न होता है, वहीं बढ़ता है और वहीं रहता है, फिर भी जल से निर्लिप्त रहता है.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

सादर,

केशव राम सिंघल

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