Thursday, October 13, 2016

#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#031 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 31 से 35 तक*

*ये में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: !*
*श्रद्धावन्तोअनसूयन्तो मुच्यन्ते टीपी कर्मभि: !!* (3/31)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - जो व्यक्ति दोष-दृष्टि से दूर रहकर श्रद्धा के साथ मेरे इस मत (पूर्व श्लोक 3/30 में वर्णित मत) का सदा पालन करता है, वह् भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है.

*तात्पर्य* - हमें अपने मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने कर्मों को अर्पण करते हुए आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*प्रसंगवश*

इस भौतिक संसार में मिली कोई वस्तु अपनी नहीं है. शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, धन, संपत्ति, पदार्थ (वस्तुएँ) आदि सब प्रकृति द्वारा अस्थाई रूप से दिए गए हैं और यह भौतिक संसार भी प्रकृति का कार्य है. जो वस्तु अपनी नहीं है, उसे हम अपनी मान लेते हैं या उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं, यही तो बंधन है. सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति से हमें कभी तृप्ति नहीं हो सकती. तृप्ति और पूर्णता का अनुभव परमात्मा के मिलन से होगा. जो वस्तुएँ इस भौतिक संसार में हमें मिली हैं, उनका हमें सदुपयोग करना चाहिए, दूसरों के हित में उनका उपयोग करना चाहिए. हम इस संसार में भौतिक पदार्थों (धनादि) के संग्रह में लगे रहते हैं और सोचते हैं कि ये और मिल जाए, पर क्या ये सब हम अपने साथ ले जा सकते हैं. शरीर, पद, अधिकार, शिक्षा, योग्यता, धन, संपत्ति, मकान आदि बहुत कुछ हमें संसार से ही मिला है और यह संसार का ही है, इसे हमें संसार के लिए ही उपयोग में लेना है, ऐसा मानकर यदि हम अपना कर्तव्य-कर्म करेंगे तो निश्चित ही हम कर्म-बंधन से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर सकेंगे.

*ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मेटम !*
*सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः: !!* (3/32)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं) - लेकिन जो व्यक्ति मेरे इस मत (श्लोक 30 में वर्णित मत) में दोषारोपण करते हुए पालन नहीं करते, ऐसे संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और अविवेकी व्यक्ति नष्ट होते हैं, उनका पतन होता है.

*प्रसंगवश*

यहाँ महत्वपूर्ण है कि श्रीकृष्ण ने श्लोक 30 की महत्ता का वर्णन श्लोक 31 में किया है और इस श्लोक 32 में श्रीकृष्ण का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अपने मस्तिष्क (चित्त) को परमात्मा में केंद्रित नहीं करते हैं या अपने सभी कर्मों का अर्पण नहीं करते हैं या आशा और ममता (मोह) से दूर नही रह पाते हैं, ऐसे व्यक्ति पतन के मार्ग पर चलकर नष्ट हो जाते हैं.

इस प्रकार 31वें और 32वें - दोनों श्लोकों में श्रीकृष्ण यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि उनके सिद्धांत के अनुसार चलना है अर्थात् जो अपने चित्त अर्थात् मस्तिष्क को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर कर्तव्य-कर्म करता है, वह व्यक्ति कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है और जो उनके सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलता है, उसका पतन होता है. अत: हमें अपने चित्त को परमात्मा में केंद्रित कर अपने सभी कर्मों को उन्हीं को अर्पित कर आशा और ममता से दूर रहकर अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए.

*सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि !*
*प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह किं करिष्यति !!* (3/33)


*भावार्थ* - सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के अनुसार द्वेषरहित या द्वेषयुक्त होकर कर्म करते हैं, ज्ञानी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार द्वेषरहित होकर चेष्टा (प्रयास) करता है, वह प्रकृति के वशीभूत नहीं होता है.

*इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ !*
*तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ !!* (3/34)


*भावार्थ* - व्यक्ति के मन में प्रत्येक इन्द्रिय के हर विषय के प्रति राग और द्वेष रहता है, व्यक्ति को दोनों (अर्थात राग और द्वेष) के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों आत्म-साक्षात्कार (अपने कल्याण) के मार्ग में अवरोधक हैं.

*प्रसंगवश*

राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से राग-द्वेष प्रबल होते हैं और यही स्वभाव बन जाता है. ऐसा स्वभाव व्यक्ति को गलत कर्म करने से बांधता है.

*श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात !*
*स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह: !!* (3/35)


*भावार्थ* - अपने नियत कर्मों को दोषपूर्ण तरीके से पूरा करना भी दूसरे के कर्म को करने से अच्छा है. अपने नियत कर्मो (स्वधर्म) को करते हुए मरना भी कल्याणकारक है और अन्य का नियतकर्म (परधर्म) खतरनाक/डरावना होता है.

*तात्पर्य* - अपने कर्तव्य का निःस्वार्थ भाव से पालन करना ही स्वधर्म है . 'स्वधर्म' अर्थात अपने कर्तव्य का पालन सुख-दुःख को देखकर नहीं किया जाता, वरन निष्काम भाव से किया जाता है. त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग) - ये तीनों स्वधर्म हैं. योगी होना स्वधर्म है, और भोगी होना परधर्म है. निर्लिप्त रहना स्वधर्म है, और लिप्त रहना परधर्म है. सेवा करना स्वधर्म है, और कुछ चाहना परधर्म है. व्यक्ति में दो प्रकार की इच्छाएं होती हैं. पहली, सांसारिक - भोग और संग्रह की इच्छा, और दूसरी, कल्याण की इच्छा. हमें कल्याण की इच्छा रखनी चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल


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