Thursday, August 4, 2016

#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#013 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 57 से 64 तक*


श्रीकृष्ण कहते हैं -
जो व्यक्ति सर्वत्र (हर जगह हर समय) अच्छा (शुभ) होने पर ना तो खुश (हर्षित) होता है और बुरा (अशुभ) होने पर ना ही द्वेष करता है (या दुःखी होता है), उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। ( तात्पर्य - इस भौतिक जगत में हर समय कुछ न कुछ घटता रहता है - अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ। जो इस उथल-पुथल में आत्म-संयम रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।) जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों से दूर कर लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। ( तात्पर्य - हमें आत्मसंयम रखना चाहिए।) शरीरधारी जीव (जिसमें मनुष्य भी शामिल है) भले ही इंद्रिय-विषयों से निषेधात्मक प्रतिबंधों से दूर रहने का अभ्यास (प्रयत्न) कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की इच्छा बनी रहती है, लेकिन परमात्मा का अनुभव होने पर उसकी इच्छा समाप्त हो जाती है। इंद्रिया इतनी प्रबल और वेगवान होती हैं कि वे उस विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है। जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में करके इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना श्रीभगवान में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। ( तात्पर्य - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए।) क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है। जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है। लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है। (तात्पर्य - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता)

सादर,

केशव राम सिंघल





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