Sunday, August 28, 2016

*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


*#020 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*गीता अध्ययन एक प्रयास*

*सार-संक्षेप - गीता अध्याय 2 से मेरी सीख*



- कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते. जब भी किसी विषय (subject) में कोई दुविधा या अनिश्चय की स्थिति हो तो हमें उचित-अनुचित जानने के लिए किसी ज्ञानवान व्यक्ति से उचित ज्ञान (परामर्श) लेना चाहिए, क्योंकि सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का हल है. (Right knowledge is ultimate solution to all our problems.) हमें सही ज्ञान को प्राप्त करने का उत्सुक होना चाहिए. (We should be ready to seek always the right knowledge.)

- भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा और शोक की आवश्यकता नहीं है. आत्मा शाश्वत है, उसको जान लेना आत्म-साक्षात्कार है. भौतिक शरीर विनाशी है. हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखकर अपना कर्म करना चाहिए.

- हमारा वर्तमान भौतिक अस्तित्व (रूप) अनस्तित्व के दायरे में है. हमें अनस्तित्व से घबराना नहीं चाहिए. वास्तव में हमारा अस्तित्व सनातन है, शाश्वत है. हम भौतिक शरीर में डाल दिए गए हैं. हमारा यह भौतिक शरीर (व अन्य भौतिक पदार्थ) असत् है. असत् जो शाश्वत नहीं है, जिसका अस्तित्व स्थाई नहीं है. परिवर्तनशील शरीर का स्थायित्व नहीं है. शरीर और मन बदलता रहता है, पर आत्मा स्थाई रहता है. आत्मा शाश्वत है. आत्मा सत् है.

- इस भौतिक जीवन का अंत निश्चित है और इस जीवन के बाद अन्य जीवन प्रारंभ होता है.

- आत्मा अजन्मा, सदैव रहने वाला, शाश्वत और पुरातन है. आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है.

- यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करुंगा तो अपने कर्तव्य की उपेक्षा के कारण मुझे पाप लगेगा और मैं अपना यश (कीर्ति, सम्मान) खो बैठूंगा.

- मुझे अपना मन-बुद्धि दृढ और स्थिर रखना चाहिए, ताकि मैं विभिन्न सकाम कर्मों की ओर आकर्षित होने से बच सकूँ.

- परमात्मा (अर्थात् ईश्वर, श्रीभगवान) शाश्वत है, अविनाशी है, सनातन है, जिसका अस्तित्व सदा रहने वाला है। वह शक्ति है, ऊर्जा है. वह अदृश्य रहता है, नहीं दिखता. वह नियन्ता है.

- सफलता-विफलता (जय-पराजय) की आसक्ति को त्यागकर और सदैव चंचल रहने वाली इंद्रियों को वश में कर मन को एकाग्र करते हुए समभाव से मुझे अपना कर्म करना है.

- मुझे निष्क्रिय नहीं रहना है, बल्कि फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करना है. अकर्म अर्थात् अपने कर्तव्यों की पालना न करना पापमय है.

- असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है. सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है. सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है. (असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है. सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है.)

- व्यक्ति मोह (ममता) में फँस कर अपने कल्याण के मार्ग से भटक जाता है. मोह (ममता) से अपनी बुद्धि दूर रखने के दो उपाय हैं - (1) विवेक, और (2) सेवा. विवेक से हमे असत् से अरुचि पैदा होती है. सेवा से दूसरों को सुख देने और अपने सुख-आराम छोड़ने की शक्ति आती है.

- कर्म में योग ही कुशलता है. योग के बिना कर्म निरर्थक है, इसलिए कर्म में योग होना चाहिए.

*ॐ तत्सत् !*


सादर,

केशव राम सिंघल


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