Thursday, December 29, 2016

#048 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#048 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 6 और 7*

5/6
*सन्न्यास्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत: !*
*योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति !!*


5/7
*योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितिन्द्रियः !*
*सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
परन्तु, हे महाबाहो (अर्जुन) ! कर्मयोग के बिना संन्यास (सांख्ययोग) पाना कठिन है. मननशील कर्मयोगी (कर्तव्य-कर्म करने वाला व्यक्ति) शीघ्र ही ब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है. (5/6)

ऐसा कर्मयोगी (कर्तव्य-कर्म करने वाला व्यक्ति) कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बंधता है, जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं, जिसका अंतःकरण निर्मल है, जिसने अपने शरीर को वश में किया हुआ है और जिसकी आत्मा ही सभी प्राणियों की आत्मा है. (5/7)

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, December 22, 2016

#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#047 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 3 से 5*


5/3
*ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति !*
*निर्द्वंदो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते !!*


5/4
*साङ्ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: !*
*एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् !!*


5/5
*यत्साङ्ख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते !*
*एकं साङ्ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
हे महाबाहो ! जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा (चाहना) करता है, वह (कर्तव्य-कर्म करता कर्मयोगी) सदा संन्यासी ही मानने योग्य है, क्योंकि द्वंदों से रहित व्यक्ति सहज ही (सुख के साथ) संसार बंधन से मुक्त हो जाता है. (5/3)

अज्ञानी संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को अलग-अलग फल (परिणाम) देने वाले मानते हैं. पर ज्ञानी के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों में से किसी एक का अनुसरण करता है वह दोनों के फल (परिणाम) प्राप्त कर लेता है. (5/4)


जो तत्व (फल या परिणाम) ज्ञानयोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्व (फल या परिणाम) कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं. जो व्यक्ति संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग को समान देखता है, वह ठीक देखता है. (5/5)

*प्रसंगवश*

संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग की साधन-प्रणाली भिन्न है, पर साध्य एक ही है.

संन्यास = सांख्ययोग --> ज्ञानयोग

कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों का फल आत्मज्ञान अर्थात कल्याण अर्थात परमात्मा को प्राप्त करना है.
संसार से सम्बन्ध-विच्छेद के दो योगमार्ग हैं - ज्ञानयोग (संन्यास) और कर्मयोग. ज्ञानयोग में विवेक-विचार द्वारा सम्बन्ध-विच्छेद होता है और कर्मयोग में दूसरों की निष्कामभाव से सेवा करने से कामना-आसक्ति से सम्बन्ध-विच्छेद होता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Wednesday, December 21, 2016

*#046 - गीता अध्ययन एक प्रयास*


*#046 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 1 व 2*

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अब तक (गीता अध्याय 4 तक) जो गीता ज्ञान दिया, उसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग, संन्यास आदि की चर्चा करते हुए कल्याण के मार्ग का उपदेश दिया. अब अर्जुन यह जानना चाहता है कि उसके लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है.

5/1
*अर्जुन उवाच*
*संन्यास कर्मणां कृष्ण पुनयोगं व शंससि !*
*यच्छेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् !!*


*भावार्थ*

अर्जुन श्रीकृष्ण से -
हे कृष्ण ! पहले आप कर्मों का त्याग करने और फिर कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं. इन दोनों में से जो एक निश्चित ही मेरे लिए श्रेयस्कर (कल्याणकारक) हो, वह मुझे कहें.

5/2
*श्रीभगवानुवाच*
*संन्यास: कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ !*
*तयोस्तु कर्मसंन्यासयात् कर्मयोगो विशिष्यते !!*


*भावार्थ*

श्रीभगवान कृष्ण कहते हैं -
संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (निःस्वार्थ कर्म का आचरण) दोनों ही कल्याण करने वाले हैं, पर इन दोनों में संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है.

*प्रसंगवश*

कोई भी व्यक्ति संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग का पालन कर सकता है.

संन्यास = सांख्य योग
सांख्य योग की साधना में विवेक विचार की प्रमुखता होती है.

कर्मयोग = कर्तव्य-कर्म करना
कर्मयोग में निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना होता है. कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता. निष्कामभाव से कर्तव्य-कर्म करने से तात्पर्य है कर्मों के बदले अपने लिए कुछ भी पाने की इच्छा न होना. कुछ पाने की इच्छा का अर्थ है कि हम कर्मों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर पाए हैं और यही कल्याण करे मार्ग में सबसे बड़ी बढ़ा है.

*संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग*

कर्मयोग के बिना संन्यास (सांख्य योग) का साधन होना कठिन है. कर्म करने का राग कर्म करने से मिटता है. सांख्य योग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है, पर कर्मयोग में सांख्य योग की आवश्यकता नहीं है.

कर्मयोगी निःस्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्म करता है, अतः वह कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है.

सांख्य योगी कर्म का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Friday, December 16, 2016

#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख


*#045 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 4 - ज्ञान कर्म संन्यास योग - दिव्य ज्ञान - से मेरी सीख*


कर्मयोग ज्ञान बहुत ही प्राचीन है. हम कर्मयोग का पालन कर परमात्मा को प्राप्त कर अपना कल्याण कर सकते हैं. कर्म संसार के लिए होते हैं और योग स्वयं के लिए होता है. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

जब जब धर्म का पतन होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब श्रीभगवान पृथ्वी पर प्रकट होते हैं.

वास्तविक कल्याण कर्मजन्य नहीं है. वास्तविक कल्याण तो भगवान को प्राप्त करना है, जीवन-मरण के चक्र से मुक्त होना है, जिसके साधन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग हैं. ये साधन कर्मजन्य नहीं हैं. व्यक्ति का कल्याण कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होता है. कर्मयोग में दूसरों के हित के लिए कर्म किए जाते हैं, न कि अपने लिए या फल की इच्छा के लिए. अपने लिए कर्म करने से व्यक्ति बंधता है और दूसरों के हित के लिए कर्म करने से व्यक्ति मुक्त होता है.

श्रीभगवान इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के रचनाकार हैं. प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके द्वारा पोषित है और उन्हीं में समा जाती है. जिस प्रकार श्रीभगवान को कर्मफल की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, हमें भी कर्मफल से बंधने का प्रयास नहीं करना चाहिए. हम अपने कर्मों को दिव्य बना सकते हैं. हमें इस संसार में बहुत कुछ मिला है और जो कुछ मिला है वह इस संसार का ही है अत: इस संसार में मिली वस्तुओं को हमें इस संसार की सेवा में लगा देना चाहिए. हमें निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.

जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार हमें कर्मयोनि (मनुष्य शरीर) में रहते हुए कर्मयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए अर्थात कर्ममय संसार में रहते हुए कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना चाहिए. जब हम निर्लिप्तता के साथ निष्काम भाव से दूसरों के हित में कर्म करेंगे, तभी हमारा कल्याण होगा.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है. हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

अज्ञान की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती. अज्ञान सर्वदा नहीं रहता. अज्ञान यदि हट गया तो सर्वदा के लिए हट गया. अज्ञान का नाश सदा के लिए होता है. जो ज्ञान को एक बार जान लेता है, वह सदा के लिए अज्ञान से निवृत हो जाता है. ज्ञान (अर्थात् तत्वज्ञान) को जानने के बाद मोह नहीं रहता.

सादर,

केशव राम सिंघल




#044 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#044 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*


*गीता अध्याय 4 - श्लोक 39 से 42*

4/39
*श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रियः !*
*ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति !!*


4/40
*अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति !*
*नायं लोकोअस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः !!*


4/41
*योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसज्छिन्नसंशयम् !*
*आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय !!*


4/42
*तस्मादज्ञानसम्भूतं ह्यतस्थनं ज्ञानासिनात्मनः !*
*छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) -

जो व्यक्ति श्रद्धावान है, ज्ञान को समर्पित है तथा जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करके जल्द ही परमशान्ति को प्राप्त लेता है. (4/39)

विवेकहीन (अज्ञानी), श्रद्धा न रखने वाला और संशय रखने वाला व्यक्ति का पतन होता है. संशयी व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है और न ही परलोक है और न ही सुख है. (4/40)

हे अर्जुन ! जिसने योग द्वारा संपूर्ण कर्मों से संन्यास (सम्बन्ध-विच्छेद कर) लिया है, ज्ञान के द्वारा जिसके संशय नष्ट (दूर) हो गए हैं, ऐसे व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते हैं. (4/41)

इसलिए, हे अर्जुन ! हृदय में स्थित इस अज्ञान से पैदा हुए अपने संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डालो, योग (समता) में स्थित होकर कर्म (युद्ध) के लिए खड़े हो जाओ. (4/42)

*प्रसंगवश*

श्रद्धा-विश्वास और विवेक की जरुरत हम सभी को है. कर्मयोग और ज्ञानयोग में विवेक की प्रमुखता है और भक्तियोग में श्रद्धा-विश्वास की प्रमुखता है. ज्ञान (तत्वज्ञान) सर्वदा रहता है, यह संसार की उत्पत्ति से पूर्व भी था, अभी भी विद्यमान है और संसार के नष्ट होने के बाद भी रहेगा.

ज्ञान हो और श्रद्धा हो तो संशय मिटता है. पर जिसमें ज्ञान और श्रद्धा दोनो का अभाव है, उसका संशय नहीं मिट पाता. वह न तो स्वयं जान पाता है और न ही दूसरों को मान पाता है, उसका पतन निश्चित है.

हमें अज्ञान के फलस्वरूप पैदा अपने संशय को ज्ञानरुपी तलवार से काटकर कर्तव्य-कर्म की ओर बढ़ना चाहिए.

(गीता अध्याय 4 समाप्त।)

सादर,

केशव राम सिंघल



Tuesday, December 6, 2016

#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 29 से 34*


4/29
*अपने जुह्वति प्राणं प्राणेअपानं तथापरे !*
*प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा !!*


4/30
*अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति !*
*सर्वेअप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा !!*


4/31
*यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म संतनाम् !*
*नायं लोकोअस्त्ययज्ञस्य कुतोअन्य: कुरुसंत्तम !!*


4/32
*एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे !*
*कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे !!*


4/33
*श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप !*
*सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञान परिसमाप्यते !!*


4/34
*तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया: !*
*उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
कुछ योगी अपानवायु में प्राण वायु को हवन करते हैं और अपानवायु में प्राण वायु की आहुति देते हैं, प्राण और अपान की गति रोककर वे प्राणायाम (समाधि) के लिए समर्पित रहते हैं. (4/29)

नियमित आहार करने वाले कुछ अन्य योगी प्राणों की प्राणों में आहुति देते हैं. ये सभी योगी यज्ञों को जानने वाले हैं और इनके पाप यज्ञों द्वारा समाप्त हो जाते हैं. (4/30)

हे अर्जुन ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले श्रीभगवान को प्राप्त होते हैं. जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, उसके लिए यह मनुष्यलोक सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? (4/31)

ऐसे बहुत से यज्ञों का वर्णन वेदवाणी में विस्तार से हुआ है. इन सब यज्ञों को कर्मों से उत्पन्न (अर्थात कर्मजन्य) जान और इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा. (4/32)

हे अर्जुन ! द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है. हे पार्थ ! सारे कर्म और पदार्थ ज्ञान में समाप्त (लीन) हो जाते हैं. (4/33)

उस ज्ञान के लिए तुम ज्ञानियों के पास जाकर उनको सादर प्रणाम करो और सेवा करो, सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे अनुभवी ज्ञानी उस ज्ञान का तुम्हें उपदेश देंगे. (4/34)

*प्रसंगवश*

अध्याय 4 के श्लोक 29 व 30 में जिस यज्ञ का वर्णन हुआ है, वह एक प्रकार का प्राणायाम यज्ञ है, जिसमें योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपान में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं.

*प्राणों की प्राणों में आहुति* = प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना = ना श्वास बाहर निकालना और ना श्वास भीतर लेना.

*यज्ञ* = नि:स्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करना

यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं.

गीता के अध्याय 4 में 24वें से 30वे श्लोक तक कुल ग्यारह तरह के यज्ञ बताए हैं. इसके अलावा विषय-हवन यज्ञ का सन्दर्भ गीता के अध्याय 2 के श्लोक 64 व 65 में आया है. इस तरह बारह तरह के ये यज्ञ निम्न हैं:

*ब्रह्मयज्ञ* - योगी द्वारा प्रत्येक कर्म में ब्रह्मरुप अनुभव करना. (सन्दर्भ श्लोक 24)

*देवयज्ञ* - समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों अपना और अपने लिए ना मानना. (सन्दर्भ श्लोक 25)

*विचाररुप यज्ञ* - कर्तव्यकर्म यज्ञ = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों की सेवा के लिए कर्म करना (सन्दर्भ श्लोक 25)

*संयमरूप यज्ञ* - संयम रखना = इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों में प्रवृत ना होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 26)

*समाधिरुप यज्ञ* - मन-बुद्धि सहित सभी इंद्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में लीन होना. (सन्दर्भ श्लोक 27)

*द्रव्य यज्ञ* - संसार में मन्दिर, धर्मशाला, विद्यालय आदि बनवाना, गरीब लोगों को अन्न, वस्त्र, औषध आदि दान देना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*तपो यज्ञ* - अपने कर्तव्य पालन में जो कठिनाईयां आएं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*योगयज्ञ* = अंतःकरण की समता रखना = कार्य होने और कार्य ना होने, परिणाम मिलाने और ना मिलाने, अनुकूल और प्रतिकूल (विपरीत) परिस्थिति में, प्रशंसा होने और निन्दा होने में, आदर और निरादर में समान भाव रखना = अंतःकरण में हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का ना होना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ* = लोकहित में धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन करना, अपनी वृतियों और जीवन का अध्ययन करना. गीता का अध्ययन स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ का एक भाग है. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपन में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं. (सन्दर्भ श्लोक 29)

*नियमित आहार करते हुए प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा नियमित आहार लिया जाता है और उपर्युक्त प्राणायाम यज्ञ किया जाता है. (सन्दर्भ श्लोक 30)

*विषय-हवन यज्ञ* - समस्त राग-द्वेष से मुक्त होकर अपनी इंद्रियों को वश में करना अर्थात् व्यवहारकाल में इंद्रियों का विषयों से संयोग होने पर राग-द्वेष ना पैदा होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 64 व 65 - अध्याय 2)

उपर्युक्त वर्णित बारह प्रकार के यज्ञों में स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ ज्ञान प्राप्ति का साधन है, जिसके आठ अंतरंग साधन हैं - (1) विवेक, (2) वैराग्य, (3) शमादि षट्सम्पत्ति (शाम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), (4) मुमुक्षता, (5) श्रवण, (6) मनन, (7) निदिध्यासन, (8) तत्त्वपदार्थसंशोधन

*विवेक* = सत् और असत् को अलग-अलग जानना
*वैराग्य* = सत् और असत् को जानकर असत् का त्याग करना अर्थात् संसार से विमुख होना.
*शम* = मन को इंद्रिय विषयों से हटाना
*दम* = इन्द्रियों को विषयों से हटाना
*श्रद्धा* = ईश्वर, शास्त्र आदि का पूज्यभाव से विश्वास करना
*उपरति* = वृतियों का संसार की ओर से हट जाना
*तितिक्षा* = सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को उपेक्षाभाव से सहना
*समाधान* = अंत:करण में शंकाओं का ना रहना
*मुमुक्षता* = संसार से छूटने की इच्छा
*श्रवण* = शास्त्रों को भावपूर्वक सुनना
*मनन* = चिंतन करना
*निदिध्यासन* = विपरीत भावना (संसार की सत्ता को मानना और ईश्वर की सत्ता को ना मानना) को हटाना अर्थात् संसार की सत्ता को ना मानकर ईश्वर की सत्ता को मानना

सादर,

केशव राम सिंघल



#041 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#041 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 27 व 28*


4/27
*सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे: !*
*आत्मसंयमयोगागनौ जुह्वति ज्ञानदीपते !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कुछ योगी अपनी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों की सभी क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योगरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् मन-बुद्धि सहित सभी इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में लीन हो जाते हैं.

4/28
*द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे !*
*स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः !!*


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कुछ योगी महाव्रत करनेवाले प्रयत्नशील द्रव्ययज्ञ करते हैं, कुछ तपोयज्ञ, कुछ योगयज्ञ और कुछ स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ करते हैं.

*प्रसंगवश*

*समाधि और निद्रा में अंतर ?*

समाधि और निद्रा दोनोँ का शरीर से सम्बन्ध है. बाहर से दोनों की समान अवस्था दिखाई पड़ती है, पर दोनों में भिन्नता है. समाधिकाल में ज्ञान प्रकाशित (जाग्रत) रहता है, जबकि निद्राकाल में वृतियां अज्ञान में लीन हो जाती हैं. समाधिकाल में प्राणों की गति रुक जाती है, जबकि निद्राकाल में प्राणों की गति चलती रहती है.

*महाव्रत* = सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य का पालन, अपरिग्रह पालन (भोगबुद्धि से संग्रह से दूर रहना) और चोरी न करना.

*द्रव्ययज्ञ* = संसार हित में मंदिर, धर्मशाला, विद्द्यालय आदि बनवाना, गरीब लोगों को दान देना.

*तपोयज्ञ* = अपने कर्तव्यपालन में जो भी कठिनाईयां आएं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना.

*योगयज्ञ* = अंतःकरण की समता रखना = कार्य होने और कार्य ना होने, परिणाम मिलाने और ना मिलाने, अनुकूल और प्रतिकूल (विपरीत) परिस्थिति में, प्रशंसा होने और निन्दा होने में, आदर और निरादर में समान भाव रखना = अंतःकरण में हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का ना होना.

*स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ* = लोकहित में धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन करना, अपनी वृतियों और जीवन का अध्यन करना. गीता का अध्ययन स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ का एक भाग है.

सादर,

केशव राम सिंघल


Thursday, December 1, 2016

#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#040 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 23 से 26*


4/23
*गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः !*
*यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते !!*


4/24

*ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् !*
*ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना !!*


4/25
*दैवमेवापरे यज्ञन् योगिन: पर्युपासते !*
*ब्रह्माग्नावपरे यज्ञन् यज्ञेनैवोपजुह्वति !!*


4/26
*श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति !*
*शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
जिस व्यक्ति की आसक्ति समाप्त हो गयी है, जो (कर्मबंधन से) मुक्त हो गया है, जिसका मन (बुद्धि) पूर्ण ज्ञान में स्थित है, यज्ञ (दूसरों के हित) के लिए कर्म करने वाले ऐसे व्यक्ति के सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् ऐसे व्यक्ति के कर्म अकर्म हो जाते हैं. (4/23)

जिस व्यक्ति के लिए अर्पण ब्रह्म है, हवन पदार्थ (टिल, घी, जौ आदि) भी ब्रह्म है और जो व्यक्ति ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देता है, जिस व्यक्ति की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो जाती है, ऐसे व्यक्ति को ब्रह्म ही प्राप्त होता है. (4/24)

कुछ योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और दूसरे (योगी) ब्रह्मरुप अग्नि में विचाररुप यज्ञ का हवन करते हैं. (4/25)

कुछ योगी श्रोत्रादि समस्त इंद्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन करते हैं और दूसरे (योगी) शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन करते हैं. (4/26)

*प्रसंगवश*

योगिन: = योगी = यज्ञार्थ कर्म करने वाले निष्काम साधक (जो समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों को अपना और अपने लिए नहीं मानते हैं)

दैव यज्ञ = समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना और अपने लिए न मानना दैव यज्ञ है.

विचाररूपी यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन = संसाररूपी ब्रह्म (दूसरों की सेवा) के लिए कर्तव्य-कर्म रूप यज्ञ अर्थात यज्ञार्थ कर्म करना

श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियों का संयमरूप अग्नियों में हवन = पांचो इन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, और घ्राण) का अपने विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) की प्रवृत न होना = संयम रखना

शब्दादि विषयों का इन्द्रियरूपी अग्नियों में हवन = व्यवहारकाल में विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रास, और गंध) से संयोग होते रहने पर भी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न न होने देना.

यज्ञायाचरतः कर्म = कर्म में अकर्म देखना = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों के हित में कर्म करना

स्वार्थभाव का त्याग कर दूसरों के हित के लिए (अर्थात् लोक हित में) कर्म करने से व्यक्ति आसक्ति रहित और आसक्ति से मुक्त हो जाता है.

जब व्यक्ति दूसरों के हित के लिए कर्म करता है तो वह कर्मयोगी हो जाता है. कर्मयोग से बंधन मिटता है. और बंधन मिटने से योग हो जाता है और इसी से परमात्मा के साथ सर्वदा-सम्बन्ध का अनुभव होने लगता है.

*प्रतिक्षण हम मर रहे हैं*

प्रकृति के सभी कार्य संसार का स्वरूप हैं. तीन अवस्थाएं हमें दिखती हैं - उत्पत्ति होना, स्थिति में रहना और प्रलय हो जाना. अर्थात् व्यक्ति या वस्तु की उत्पत्ति होती है, फिर वह व्यक्ति या वस्तु इस संसार में रहता है और अंत में नष्ट हो जाता है. व्यक्ति इस भौतिक संसार में जन्म लेता है, फिर रहता है और अंत में आयु पूरी हो जाने पर मर जाता है. मान लें की किसी व्यक्ति की आयु 100 वर्ष है और उसने पैसंठ वर्ष आयु पूरी कर ली है अर्थात् पैसठ वर्ष पूरे हो जाने पर उसकी आयु केवल पैतीस वर्ष की रह गयी है अर्थात् प्रतिक्षण हम मर रहे हैं. इस भौतिक संसार में केवल उत्पत्ति और प्रलय (नष्ट होने) का क्रम चलता रहता है. हमारे जीवन का प्रतिक्षण मृत्यु (प्रलय) की और अग्रसर हो रहा है. प्रलय ही सत्य है, नष्ट होना सत्य है, इसे समझने की जरुरत है.

हमारे सभी कर्म अकर्म हो जाएं अर्थात् हम ब्रह्म में लीन हो जाएं अर्थात् हमें ब्रह्म की प्राप्ति हो जाए, वह कर्मयोग से ही संभव है.

*प्रसंगवश*

श्रीभगवान का संदेश बहुत ही स्पष्ट है कि हमें समस्त सांसारिक क्रियाओं और पदार्थों को अपना ना मानते हुए दूसरों की सेवा के लिए कर्तव्यकर्म करना है और अपनी सभी इन्द्रियों में विकार उत्पन्न नहीं होने देना है और संयम रखना है.

सादर,

केशव राम सिंघल