Monday, April 30, 2018

#073 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#073 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/12
*ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये !*
*मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि !!*


7/13
*त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् !*
*मोहितं नाभिजानाती मामेभ्यः परमव्ययम् !!*


7/14
*दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया !*
*मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते !!*


7/15
*न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः !*
*माययापह्रतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः !!*


7/16
*चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोअर्जुन !*
*आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ !!*


7/17
*तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते !*
*प्रियो हि ज्ञानिनोअत्यर्थमहं स च मम प्रियः !!*


7/18
*उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् !*
*आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् !!*


7/19
*बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते !*
*वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः !!*


7/20
*कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेअन्यदेवताः !*
*तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया !!*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
जितने भी सात्त्विक भाव हैं, जितने भी राजस और तामस भाव हैं, वे मुझसे (मेरी शक्ति से) ही होते हैं, इस प्रकार जानों, लेकिन मैं उनमें नहीं हूँ और वे मेरे नहीं हैं. (7/12) इन तीन गुणरूप (सात्त्विक, राजस और तामस) भावों से मोहग्रस्त यह सम्पूर्ण संसार मुझ परम अविनाशी को नहीं समझता. (7/13) वास्तव में मेरी यह तीनों गुणों से भरपूर शक्ति (माया) से पार पाना अत्यंत कठिन है, जो निश्चित ही मेरी शरण में होते हैं वे ही इस माया को तर (छोड़) पाते हैं. (7/14) पापकर्म करने वाले मूर्ख व्यक्ति, नीच व्यक्ति और ऐसे व्यक्ति जिसका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है, ऐसे दुष्ट व्यक्ति मेरी शरण में नहीं आते हैं. (7/15) भारतवंशियों में श्रेष्ठ हे अर्जुन ! पवित्र कर्म करने वाले आर्त भक्त (पुण्यात्माएँ), धन का मोह रखने वाले (अर्थार्थी), ज्ञान के पिपासु (जिज्ञासु) और ज्ञान जानने वाले (ज्ञानी) - ये चार प्रकार के व्यक्ति मेरी सेवा करते हैं (मेरी शरण में रहते हैं). आर्त भक्त = ऐसे भक्त जो कष्ट होने पर भगवान को याद करते हैं. (7/16) इन चार प्रकार के व्यक्तियों में से मेरी भक्ति में लगा हुआ ज्ञानी व्यक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि मैं उसे अत्यधिक प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यधिक प्रिय है. (7/17) जैसा मैंने पहले कहा सभी (चारों) भक्त उदार हैं लेकिन ज्ञानी तो मेरी ही आत्मा (स्वरूप) है, ऐसा मैं मानता हूँ. कारण कि वह मुझसे युक्त आत्मा (अभिन्न) है और जिसका लक्ष्य मुझमें ही दृढ स्थित है. (7/18) ऐसे व्यक्ति अत्यंत दुर्लभ होते हैं, जिन्हें अनेक जन्मों (जन्म-मृत्यु चक्र) के बाद यह ज्ञान होता है कि सबकुछ परमात्मा ही है, इस प्रकार वे मेरी शरण में आते हैं. (7/19) इस लोक और परलोक के भोगों की कामनाओं से जिनका ज्ञान आच्छादित हो गया है, वे स्वभाव से वश में हुए अपने आप देवताओं की पूजा के विधि-विधान का पालन करते हैं. (7/20)

*प्रसंगवश*

संसार के सभी कार्यकलाप प्रकृति के तीन गुणों के अधीन संपन्न होते हैं. प्रकृति के सभी गुण (सात्त्विक, राजस और तामस भाव) भगवान की सत्ता से शक्ति पाते हैं, पर वे स्वयं उनसे स्वतन्त्र हैं. भगवान की शक्तियाँ अनंत हैं. जीवात्माएं भगवान की शक्तियों के अंश हैं, पर वह प्रकृति के गुणों से मोहित है. हमें भगवान की सत्ता को स्वीकार करना चाहिए.

सादर,
केशव राम सिंघल


Friday, April 27, 2018

#072 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#072 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/8
*रसोअहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः !*
*प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु !!*


7/9
*पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ !*
*जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु !!*


7/10
*बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् !*
*बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् !!*


7/11
*बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् !*
*धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ !!*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीनन्दन (अर्जुन) ! जल का मैं स्वाद हूँ, चन्द्रमा और सूर्य का मैं प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषार्थ (सामर्थ्य) मैं हूँ. (7/8) पृथ्वी में पवित्र गंध मैं हूँ और अग्नि में तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों में जीवनशक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तपस्या मैं हूँ. (7/9) हे पार्थ (अर्जुन) ! सम्पूर्ण प्राणियों का अनादि बीज मुझे जान. बुद्धिमानों में बुद्धि और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ. (7/10) हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! बलवानों में काम और राग से दूर बल मैं हूँ और प्राणियों में धर्मयुक्त काम मैं ही हूँ. (7/11)

*प्रसंगवश*

*पंचमहाभूत और कारण नाम*


पृथ्वी - गंध, जल - रस, तेज (अग्नि) - रूप, वायु - स्पर्श, आकाश - शब्द

रूप में दो शक्तियाँ निहित हैं - एक 'प्रकाशिका' अर्थात प्रकाश करने वाली और दूसरी 'दाहिका' अर्थात जलाने वाली. 'प्रकाशिका' शक्ति 'दाहिका' शक्ति के बिना रह सकती है, पर दाहिका शक्ति 'प्रकाशिका' शक्ति के बिना नहीं रह सकती.

सूर्य और अग्नि में दोनों शक्तियाँ हैं. चन्द्रमा में प्रकाशिका शक्ति तो है, पर उसमें दाहिका शक्ति तिरकृत होकर 'सौम्य शक्ति' प्रकट हो गयी है, जो शीतलता देने वाली है.

इस सृष्टि की रचना में श्रीभगवान ही कर्ता हैं, वे ही कारण हैं और वे ही कार्य हैं. भगवान ही सम्पूर्ण संसार के कारण हैं, संसार के रहते हुए भी वे सभी में परिपूर्ण हैं और संसार के न रहने पर भी वे रहते हैं.

सादर,
केशव राम सिंघल



Sunday, April 22, 2018

#071 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#071 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/6
*एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।*
*अहं कृत्स्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।*


7/7
*मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।*
*मय सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
ऐसा तुम जानो कि सभी सृष्ट पदार्थों (प्राणियों) का स्रोत इन दोनों (परा और अपरा) प्रकृतियों का संयोग ही है. मैं (भगवान) सम्पूर्ण जगत का निमित्तकारण (प्रभव) और लीन करने वाला (प्रलय) हूँ. (7/6) हे धनञ्जय (अर्जुन) ! मुझसे (भगवान से) परे अन्य कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. यह जो हम देखते हैं वह सब कुछ (सम्पूर्ण जगत) मुझ (भगवान) में ही है, जैसे धागे में मणियाँ गुंथी रहती हैं. (7/7)

*प्रसंगवश*

यह संसार भगवान से ही उत्पन्न होता है, उसी के द्वारा रचाया-बसाया गया है और अंत में भगवान में ही लीन हो जाना है - ऐसा जानना 'ज्ञान' है. सब कुछ भगवान का स्वरूप ही है, भगवान के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं - ऐसा अनुभव हो जाना 'विज्ञान' है.

सादर,
केशव राम सिंघल

Wednesday, April 18, 2018

#070 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#070 - गीता अध्ययन एक प्रयास*
*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 7 - दिव्य ज्ञान*


7/1
*श्रीभगवानुवाच*
*मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।*
*असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।*


7/2
*ज्ञानं तेअहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।*
*यञ्ज्ञात्वा नेह भूयोअन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।*


7/3
*मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।*
*यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः।।*


7/4
*भूमिरापोअनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।*
*अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।*


7/5
*अपरिमेयमितस्त्वन्यान् प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।*
*जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे अर्जुन ! जिसका मन मेरे में लग गया है और जिसे केवल मुझमें विश्वास है, वह जो भी कार्य (कर्मयोग, भक्तियोग) करता है, वह योग का अभ्यास ही है और ऐसा व्यक्ति मुझे (भगवान को) समग्र रूप से जान लेता है। जिस तत्व को तू जान सकता है, उसका मैं वर्णन करता हूँ, तू सुन। (7/1) अब मैं तुम्हें विज्ञान सहित ज्ञान (दिव्य ज्ञान) कहूंगा, जिसे जानने के बाद फिर इस विषय में जानने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहेगा. (7/2) कई हजार मनुष्यों में से कोई एक इस प्रकार की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और इस तरह की सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है. (7/3) भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश (पंचमहाभूत), मन, बुद्धि और अहंकार - आठ प्रकार से विभक्त मेरी अपरा (भौतिक) प्रकृतियाँ हैं. (7/4) हे महाबाहो (अर्जुन) ! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा (चेतन) प्रकृति है, जो जीवरूप में इस जगत की भौतिक (अपरा) प्रकृति का उपयोग (विदोहन) कर रहे हैं. (7/5)


*प्रसंगवश*

अपरा = परिवर्तनशील
परा = अपरिवर्तनशील
जीव = परमात्मा का अंश, जो केवल स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही यह जीव बना है.

जीव अपने विभिन्न कार्यों के लिए अपरा शक्तियों (भौतिक प्रकृति) का उपयोग करता है. परा शक्ति (जीव) द्वारा यह संसार कार्यशील है. पराशक्ति (जीव) का नियंत्रण परमात्मा के पास है. जीव सर्वशक्तिमान नहीं, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, वह तो परमात्मा के नियंत्रण के अधीन है. जीव रूप परा प्रकृति ने ही अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है.

माया के प्रभाव के कारण ही जीव (परा) का अहंकार (अपरा शक्ति) सोचता है - "मैं इस संसार को जीत सकता हूँ. ये सारी भौतिक उपलब्धियां मेरी हैं." जब जीव भौतिक विचारों से मुक्त हो जाता है, तभी वह वास्तविक स्थिति को प्राप्त हो पाता है.

जीव संसार की सत्ता को महत्व देता है, तभी तो वह कामना, सुख-भोग की इच्छा के कारण जन्म-मरण के बंधन में है.

गीता अध्याय 7 में भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य ज्ञान कहा है, जिसे सुनने में लाभ ही है।

जिसका मन स्वाभाविक तौर से भगवान की ओर खिंच जाता है और जिसे भगवान में विश्वास हो जाता है, वह भगवान के समग्र रूप को जान पाता है। सब कुछ भगवान ही हैं।

सादर,
केशव राम सिंघल