Sunday, November 27, 2016

#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#038 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 15 से 18*


4/15
*एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: !*
*कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् !!*


4/16
*किं कर्म किमकर्मेति कवयोअप्यत्र मोहिता: !*
*तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेअशुभात् !!*


4/17
*कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः !*
*अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: !!*


4/18
*कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: !*
*स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् !!*



*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से) -
पूर्वकाल के कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों (मुमुक्षुओं) ने भी यह जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा किए जाने वाले कर्मों को उन्हीं की तरह कर ! (4/15)

कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में विद्वान भी मोहित (भ्रमित) हो जाते हैं. कर्म क्या है, यह मैं तुझे अच्छी तरह से कहूँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे. (4/16)

व्यक्ति को कर्म, अकर्म और विकर्म को जानना चाहिए, क्योंकि कर्म के बारे में समझना अत्यन्त कठिन है. (4/17)

जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह् व्यक्तियों में बुद्धिमान है, योगी है और समस्त कर्मों को करने वाला है. (4/18)

*तात्पर्य*

मुमुक्षा जाग्रत होना = वैराग्य का अनुभव होना
मुमुक्षु = कल्याण चाहने वाला व्यक्ति

श्रीभगवान के उपदेश का सार है कि जिस तरह मुमुक्षुओं ने (कल्याण चाहने वाले व्यक्तियों ने वैराग्य का अनुभव होने पर भी) कर्मयोग की महत्ता को जानकर कर्तव्य-कर्म किए हैं, इसलिए हमें भी निष्काम भाव से कर्तव्य-कर्म करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

*प्रसंगवश*

*कर्मयोग की महत्ता*

कर्मयोग = कर्म करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना.

कर्म संसार के लिए और योग अपने लिए. कर्मयोग की महत्ता को हमें समझना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है.

व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप दिखता है, यह बात हमें समझनी चाहिए. व्यक्ति (कर्ता) के भाव के अनुसार कर्म सात्विक, राजस या तामस हो सकता है. यदि व्यक्ति में कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं है, कोई राग नहीं है, कोई आसक्ति नहीं है अर्थात् व्यक्ति कर्म निष्कामभाव से करता है तो ऐसा कर्म करने के बावजूद अकर्म हो जाता है. यदि कर्म न करते हुए भी व्यक्ति में फल की इच्छा है, राग है या आसक्ति है तो कर्म न करते हुए भी कर्म हो रहा है. यदि व्यक्ति निर्लिप्त है तो कर्म करना और कर्म ना करना, दोनों ही अकर्म हैं. और यदि व्यक्ति लिप्त है तो कर्म करना या कर्म ना करना, दोनों ही कर्म हैं और व्यक्ति को फल की इच्छा में बांधने वाले हैं. यदि व्यक्ति कोई कर्म दूसरों को दुःख या हानि पहुंचाने के लिए करता है तो यह विकर्म है.

कर्मयोग में व्यक्ति (योगी) निष्कामभाव से कर्म करता है अत: यह कर्म नहीं है, अकर्म है, सेवा है, जिसमें त्याग मुख्य है.

अकर्म = निष्कामभाव से किए जाने वाला कर्म
कर्म = फल की इच्छा रखना, फल की इच्छा से किए जाने वाला कर्म
विकर्म = निषेध कर्म, जिससे दूसरों का अहित होता हो या हानि पहुँचती हो.


सादर,

केशव राम सिंघल

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