Thursday, August 4, 2016

#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#015 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

गीता संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 65 से 72 तक


श्रीकृष्ण कहते हैं -
इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह् आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह् पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है. (गीता अध्याय 2 समाप्त)

चलते-चलते

असत् को जानने से ही असत् से निवृति हो सकती है क्योंकि असत् सदा रहने वाला नहीं है, उसकी स्वतन्त्र सत्ता या अस्तित्व नहीं है। सत् से ही असत् है अर्थात् आत्मा से ही भौतिक शरीर की उपयोगिता है। सत् से ही असत् को अस्तित्व मिलता है।

असत् - यह भौतिक शरीर जो सदा रहने वाला नहीं है।

सत् - आत्मा जो सदा रहने वाला है।

सादर,

केशव राम सिंघल

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