Friday, September 27, 2019


#082 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*


*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*

8/16
*आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोअर्जुन !*
*मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते !!*


*भावार्थ*

श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं -
हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावर्तीवाले हैं (अर्थात् जहाँ जाकर संसार में लौटना पड़ता है), परन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन) ! मुझे (परमात्मा को) प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता.

*प्रसंगवश*

पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक का सुख सीमित, परिवर्तनशील और विनाशी है, लेकिन भगवान को पाने का सुख अनंत, अपार, अगाध है. यह सुख अविनाशी है, कभी नष्ट नहीं होने वाला है. अनंत ब्रह्मा और अनंत ब्रह्माण्ड के समाप्त होने पर भी यह सुख समाप्त नहीं होता. मृत्युलोक (यह पृथ्वी), देवलोक और ब्रह्मलोक जाने वाले को जन्म-मरण के बंधन में रहना होता है, लेकिन जिसने परमात्मा (भगवान) को प्राप्त कर लिया, वह इस बंधन से मुक्त हो जाता है.

दो प्रकार के व्यक्ति ब्रह्मलोक जाते हैं. पहला, सुख भोग के लिए ब्रह्मलोक जाते हैं और लौटकर संसार में आते हैं और दूसरे, क्रम मुक्तिवाले ब्रह्मलोक जाते हैं और ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं. ब्रह्मलोक में भी कोई सदा नहीं रह सकता. ब्रह्मलोक तक सब कर्मफल है.

सादर,

केशव राम सिंघल

# 081 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*


# 081 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*


8/11
*यदक्षरं वेदविदो वंदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः !*
*यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये !!*


8/12, 13
*सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च !*
*मूर्ध्न्यधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् !!*
*ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरनमामनुस्मरन् !*
*यः प्रयाति व्यजन्देहं स याति परमां गतिम् !!*


8/14
*अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः !*
*तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः !!*


8/15
*मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् !*
*नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः !!*


*भावार्थ*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
वेदों के ज्ञाता जिसको अक्षर या ॐ कहते हैं , संन्यास आश्रम में रहने वाले सन्यासी (वीत राग यति) जिसे प्राप्त करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह पद (बात) मैं तेरे को संक्षेप में बताऊंगा. [वीत राग यति = जिनका अंतःकरण निर्मल है और हृदय में परमात्मा को पाने की लगन है.] (8/11) इन्द्रियों के सम्पूर्ण द्वारों का संयम कर मन में हृदय में निरोध कर (अर्थात् मन को विषयों की तरफ जाने से रोककर) और प्राणों को को मस्तक में धारण कर (अर्थात् प्राणों पर अपना अधिकार कर) योगधारणा में स्थित हुआ व्यक्ति इस एक अक्षर ब्रह्म 'ॐ' का मानसिक उच्चारण और मेरा (परमात्मा का) स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह परम गति (अर्थात् निर्गुण-निराकार परमात्मा) को प्राप्त करता है. (8/12, 13) हे पार्थ (अर्जुन) ! अनन्य चित्तवाला जो व्यक्ति, अर्थात् जो यह विचार करे कि वह केवल परमात्मा का है और परमात्मा उसके हैं, मेरा नित्य-निरंतर स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें लगे व्यक्ति के लिए मैं (परमात्मा) सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ. (8/14) महात्मा (ऐसे व्यक्ति जो इन्द्रियों कासंयम कर परमात्माकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं) मुझे (परमात्मा को) प्राप्त कर इस संसार रूपी दुःखालय निरंतर बदलने वाले (अशाश्वत) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते (अर्थात् मुक्ति पा लेते हैं) क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है. [दुःखालय = दुःखों का घर यह संसार है, जो भयंकर दुःख देने वाला है.] (8/15)

सादर,

केशव राम सिंघल

Monday, September 9, 2019

#080 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*


#080 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*


8/7
*तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च !*
*मय्यर्पित्मानोबुद्धिर्मामेवैन्यास्यसंशयः !!*

मय्यर्पित्मानोबुद्धिर्मामेवैन्यास्यसंशयः = मयि + अर्पित + मन + बुद्धि + माम् + एव + एण्यसि + असंशय

8/8
*अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा न्यान्यागामिना !*
*परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिंतयन् !!*


8/9
*कविं पुरानमानुशासिता रमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः !*
*सर्वस्य धातारामचिन्त्य रूपमादित्यवर्णं तमस् परस्तात् !*


8/10
*प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव !*
*भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् !!*


*भावार्थ*

श्रीभगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
इसलिए तू हर समय मेरा स्मरण कर और युद्ध (कर्तव्यकर्म) भी कर. मुझमें (भगवान में) मन बुद्धि अर्पित करने वाला निसंदेह मुझे (भगवान को) ही प्राप्त होगा. (8/7) हे पार्थ (अर्जुन) ! अभ्यासयोग (संसार से मन हटाकर परमात्मा में बार-बार मन लगाना) से युक्त और अविचलित भाव (अन्य का चिंतन न करने वाले चित्त) से परम दिव्य पुरुष (परमात्मा) का चिंतन करता हुआ शरीर छोड़ने वाला व्यक्ति उसी को अर्थात् परम दिव्य परमात्मा को प्राप्त होता है. (8/8) जो व्यक्ति सर्वज्ञ, अनादि (प्राचीनतम, पुरातन) सब पर शासन करने वाला(नियन्ता) सूक्ष्म से अत्यंत सूक्ष्म सभी का पालक (पालन-पोषण करने वाला) अज्ञान से अत्यंत परे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप (ज्ञान स्वरूप) ऐसे अकल्पनीय स्वरूप का चिंतन करता है. (8/9) वह भक्तियुक्त व्यक्ति अंत समय में (मरते वक्त) स्थिर मन और योग-शक्ति से अपने प्राणों को अपनी भृकुटी (दोनों भौहों) के मध्य में स्थिर कर लेता है, शरीर छोड़ने पर उसपरं दिव्य पुरुष (परमात्मा) को ही प्राप्त होता है. (8/10)

सादर,

केशव राम सिंघल

#079 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*


#079 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*

8/5
*अंतकाले च मामेव स्वरन्मुक्त्वा कलेवरम् !*
*यः प्रयाति स सद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः !!*

8/6
*यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् !*
*तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः !!*

*भावार्थ*


जो व्यक्ति मृत्यु के समय में मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरे (भगवान के) स्वरूप को ही प्राप्त होता है (अर्थात उसकाकल्याण होता है), इसमें संशय (कोइ संदेह) नहीं है.

हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन) ! अंतकाल में व्यक्ति जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस भाव से सदा भावित होते हुए उस-उस भाव को ही प्राप्त होता है (अर्थात् उस योनि में चला जाता है, जिसका उसने स्मरण किया).

*प्रसंगवश*

परमात्मा को पाने की चाहना रखने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं. पहला, विवेक प्रधान साधक, जो मस्तिष्क प्रधान होता है और जिसमेँ श्रद्धा तो होती है पर जानने की मुख्यता होती है. दूसरा, श्रद्धा प्रधान , जो हृदय प्रधान होता है जिसमेँ जानने के साथ मानने की मुख्यता होती है.

व्यक्ति अंतकाल (मृत्यु के समय) में जैसा चिन्तन करता है, वैसी उसकी गति होती है. यदि वह अंत समय में भगवान का स्मरण करता है,तो उसे सदगति मिलती है, उसका कल्याण होता है. जिसका जैसा स्वभाव होता है, वह वैसा ही स्मरण करेगा. अतः हमें अपने स्वभाव को सदा निर्मल बनाते हुए भगवान का स्मरण करना चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल

#078 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*


#078 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*

*श्रीभगवानुवाच*
8/3
*अक्षरंब्रह्म परमं स्वभावोअध्यात्ममुच्यते !*
*भूतभावोद्भवकरो विसर्ग कर्मसञ्ज्ञितः !!*

8/4
*अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवतम् !*
*अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृतां वर !!*

*भावार्थ*


श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं -
परम अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म है, परा प्रकृति (अपरिवर्तनशील दिव्य जीव) को अध्यात्म कहते हैं. जीवों के भौतिक रूप से प्रकट (होने वाली) गतिविधि कर्म है. (8/3) हे देहधारियों में श्रेष्ठ (अर्जुन) ! क्षर भाव (नाशवान पदार्थ - यह परिवर्तनशील भौतिक प्रकृति) अधिभूत है. ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देह (शरीर) में मैं (परमात्मा) ही अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) हूँ. (8/4)

*प्रसंगवश*

परा प्रकृति भगवान का स्वभाव है. यह अपरिवर्तनशील है. जीव परा प्रकृति है. जीव भगवान् (परमात्मा) का अंश है. जीव सदा विद्यमान रहता है.

सादर,

केशव राम सिंघल