Sunday, August 28, 2016

#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#021 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 1 से 8*

*अर्जुन उवाच*
*ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन !*
*तत्किन् कर्मणि घोरे मान् नियोजयसि केशव !!* (3/1)
*व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिन् मोहयसीव में !*
*तदेकन् वाद निश्चित्य येन श्रेयोअहमाप्नुयाम् !!* (3/2)


*भावार्थ* - अर्जुन श्रीकृष्ण से - यदि आप बुद्धि (ज्ञान) को सकाम कर्म से श्रेष्ठ मानते हो तो फिर मुझे इस हिंसात्मक कर्म (अर्थात् युद्ध में क्यों लगाना चाहते हो? अनेक अर्थो वाले आपके उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है. अत: कृपा कर निश्चित् उस बात को कहे जिससे मैं वास्तविक लाभ पा सकूँ.

*श्रीभगवानुवाच*
*लोकेअस्मिन्द्विविधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ !*
*ज्ञानयोगेन सांख्यानान् कर्मयोगेन योगिनाम् !!*
(3/3)

*भावार्थ* - श्रीकृष्ण अर्जुन से - हे निष्पाप अर्जुन ! मैंने पहले कहा - संसार में दो प्रकार की निष्ठा (श्रद्धा) वाले व्यक्ति होते हैं - ज्ञानी की निष्ठा ज्ञानयोग से और भक्त की निष्ठा भक्तियोग से.

*न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यन् पुरुषोंअश्नुते !*
*न च सन्यसनादेव सिद्धिन् समधिगच्छति !!*
(3/4)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति न तो नियत कर्म से विमुख होकर कर्मबंधन से मुक्ति पा सकता है और न कर्मों के त्याग (अर्थात् संन्यास) से सिद्धि प्राप्त कर सकता है.

*न हि कश्चित्क्षमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत !*
*कार्यते ह्यवशः: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै !!*
(3/5)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - कोई भी व्यक्ति किसी समय क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के कारण सभी को विवश होकर कर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता है.

*कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् !*
*इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते !!*
(3/6)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - जो कमेंद्रियों (और ज्ञानेन्द्रियों) को वश में कर मन से इन्द्रियविषयों को सोचता है, वह मूर्ख व्यक्ति मिथ्याचारी कहा जाता है. *स्पष्टीकरण* - कमेंद्रियां पांच हैं - वाक, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा. ज्ञानेन्द्रियाँ भी पांच हैं - श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण. इस श्लोक में कर्मेन्द्रियाणि से तात्पर्य सभी कमेंद्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से है.

*यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेअर्जुन !*
कर्मेन्द्रियै: कर्णयोगमासक्त: स विशिष्यते !!*
(3/7)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - लेकिन, हे अर्जुन ! जो (व्यक्ति) मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में कर बिना किसी आसक्ति के आचरण (व्यवहार) करता है, वही श्रेष्ठ है.

*नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः !*
*शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः !!*
(3/8)

*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - तुम अपना नियत कर्म करो क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म के बिना तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता.

सादर,

केशव राम सिंघल


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