Friday, August 19, 2016

#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#018 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*नमस्कार !*

*प्रसंगवश*

*विषया ..... निवर्तते !!* (2/59)


*भावार्थ* - व्यक्ति भले ही निषेधात्मक प्रतिबंधों द्वारा इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयास कर ले, फिर भी उसमें इंद्रिय-विषयों के भोग की लालसा (इच्छा) बनी रहती है, लेकिन स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति की लालसा (इच्छा) परमात्मा (श्रीभगवान) का अनुभव होने पर समाप्त हो जाती है. *तात्पर्य* - व्यक्ति रसबुद्धि में डूबा रहता है और वह इंद्रिय-विषय को पाने की इच्छा में डूबा रहता है. योग (इंद्रियों के निग्रह) द्वारा रसबुद्धि से निवृत हुआ जा सकता है और रसबुद्धि से निवृत होने पर इंद्रिय-विषयों की लालसा समाप्त होती है.


*यततो .... मन: !!* (2/60)

*भावार्थ* - इन्द्रियाँ इतनी प्रबल और वेगवान होती है कि वे विवेकी व्यक्ति के मन को भी बलपूर्वक उत्तेजित करती रहती हैं, जो उन्हें काबू में रखने का प्रयत्न करता है.


*तानि ..... प्रतिष्ठिता !!* (2/61)

*भावार्थ* - जो अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में कर इंद्रिय-संयमन करता है और जिसकी चेतना परमात्मा (श्रीभगवान) में स्थिर हो जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है.

*ध्यायतो ........ कामात्क्रोधोअभिजायते !!* (2/62)

*भावार्थ* - इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और ऐसे आकर्षण से काम-इच्छा और काम-इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है. *तात्पर्य* - इंद्रिय विषयों के चिंतन से भौतिक इच्छाएं उत्पन्न होती हैं. और यदि कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है. इंद्रिया हर समय कुछ-न-कुछ करने के लिए उत्सुक रहती हैं, इसलिए बेहतर है कि भौतिकतावाद से ध्यान हटाया जाए और ईश्वर की दिव्य प्रेमाभक्ति में समय लगाया जाए.


*क्रोधाद्भवति ....... बुद्धिनाशात्प्रणश्यति* (2/63)

*भावार्थ* - क्रोध से मोह (लगाव) उत्पन्न होता है और मोह से स्मृति भ्रम पैदा होता है. जब स्मृति भ्रम होता है तो बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धि का विनाश होने पर व्यक्ति का अद्य:पतन हो जाता है.

सम्मोह: = मोह, लगाव, आकर्षण, खिंचाव
सम्मोहात्स्म्रतिविभ्रम = सम्मोहात् + स्म्रतिविभ्रम = सम्मोह से स्म्रति विभ्रम

*सम्मोह:* (2/63) से तात्पर्य ऐसे मोह (लगाव) से है, जो *स्म्रतिविभ्रम:* (स्मृति भ्रम) पैदा करता है अर्थात् जिससे याददाश्त भ्रमित हो जाती है.



*रागद्वेषवियुक्तैस्तु ...... प्रसादमधिगच्छति !!* (2/64)

*भावार्थ* - लेकिन समस्त राग-द्वेष से मुक्त और अपनी इंद्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति श्रीभगवान की कृपा प्राप्त करता है. *तात्पर्य* - श्रीभगवान की कृपा अर्थात् शान्ति और प्रसन्नता.



*चलते-चलते*

- स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थिरबुद्दि होने के लिए इंद्रिय-विषयों से मन हटाना अत्यन्त आवश्यक है.

- यदि इंद्रिय-विषयों से दूर रहने का प्रयत्न नहीं किया जाए तो व्यक्ति के मन में इंद्रिय-विषयों के प्रति एक आकर्षण, खिंचाव पैदा होता है और व्यक्ति रसबुद्दि से ग्रसित हो जाता है.

- इंद्रिय-विषयों का चिंतन करने से बेहतर है कि हम परमात्मा (श्रीभगवान) का चिंतन करें और अपने कर्तव्यों को पूरा करें.


सादर,

केशव राम सिंघल


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