Tuesday, October 11, 2016

#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#028 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 3 - श्लोक 25 से 27*

*सक्ता: कर्मण्यविद्वान्सो यथा कुर्वन्ति भारत !*
*कुर्या द्विद्वांस्तथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् !!* (3/25)


*भावार्थ* - हे अर्जुन ! जिस प्रकार अज्ञानी लोग कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं, आसक्ति से दूर रहकर विद्वानजन भी लोकसंग्रह चाहते हुए उसी प्रकार कर्म करें.

*न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् !*
*जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्त: समाचरन् !* (3/26)


*भावार्थ* - विद्वानजन कर्म में आसक्त होकर अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करें (अर्थात् कर्म में अविश्वास/अश्रद्धा पैदा ना करें), समस्त कर्म करते हुए उनसे भी वैसा ही करवाएँ.

*प्रकृते: क्रियमाणामि गुणै: कर्माणि सर्वश: !*
*अहंङ्कारविमूढात्मा कर्तानिति मन्यते !!* (3/27)


*भावार्थ* - सभी कर्म हर तरह से प्रकृति के गुणों के कारण संपन्न होते हैं (लेकिन) अहंकार से मोहित व्यक्ति सोचता है कि मैं कर्ता हूँ.

*चलते-चलते*

जब तक आसक्ति से दूर रहकर (अर्थात् निष्कामभाव से) से मैं अपना कर्म नहीं करूँगा, तब तक मेरा जीवन-मरण नहीं समाप्त होने वाला. आसक्ति से दूर रहकर कर्म करने से ही सद्गति की प्राप्ति होती है. कर्म अपने लिए न करके कर्तव्य-कर्म दूसरों के हित के लिए करना है.

सादर,

केशव राम सिंघल




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