Tuesday, December 6, 2016

#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#042 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 4 - श्लोक 29 से 34*


4/29
*अपने जुह्वति प्राणं प्राणेअपानं तथापरे !*
*प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा !!*


4/30
*अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति !*
*सर्वेअप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा !!*


4/31
*यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म संतनाम् !*
*नायं लोकोअस्त्ययज्ञस्य कुतोअन्य: कुरुसंत्तम !!*


4/32
*एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे !*
*कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे !!*


4/33
*श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप !*
*सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञान परिसमाप्यते !!*


4/34
*तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया: !*
*उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
कुछ योगी अपानवायु में प्राण वायु को हवन करते हैं और अपानवायु में प्राण वायु की आहुति देते हैं, प्राण और अपान की गति रोककर वे प्राणायाम (समाधि) के लिए समर्पित रहते हैं. (4/29)

नियमित आहार करने वाले कुछ अन्य योगी प्राणों की प्राणों में आहुति देते हैं. ये सभी योगी यज्ञों को जानने वाले हैं और इनके पाप यज्ञों द्वारा समाप्त हो जाते हैं. (4/30)

हे अर्जुन ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले श्रीभगवान को प्राप्त होते हैं. जो व्यक्ति यज्ञ नहीं करता, उसके लिए यह मनुष्यलोक सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? (4/31)

ऐसे बहुत से यज्ञों का वर्णन वेदवाणी में विस्तार से हुआ है. इन सब यज्ञों को कर्मों से उत्पन्न (अर्थात कर्मजन्य) जान और इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा. (4/32)

हे अर्जुन ! द्रव्य यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है. हे पार्थ ! सारे कर्म और पदार्थ ज्ञान में समाप्त (लीन) हो जाते हैं. (4/33)

उस ज्ञान के लिए तुम ज्ञानियों के पास जाकर उनको सादर प्रणाम करो और सेवा करो, सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे अनुभवी ज्ञानी उस ज्ञान का तुम्हें उपदेश देंगे. (4/34)

*प्रसंगवश*

अध्याय 4 के श्लोक 29 व 30 में जिस यज्ञ का वर्णन हुआ है, वह एक प्रकार का प्राणायाम यज्ञ है, जिसमें योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपान में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं.

*प्राणों की प्राणों में आहुति* = प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना = ना श्वास बाहर निकालना और ना श्वास भीतर लेना.

*यज्ञ* = नि:स्वार्थभाव से दूसरों के हित के लिए कर्तव्य कर्म करना

यज्ञ से सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं.

गीता के अध्याय 4 में 24वें से 30वे श्लोक तक कुल ग्यारह तरह के यज्ञ बताए हैं. इसके अलावा विषय-हवन यज्ञ का सन्दर्भ गीता के अध्याय 2 के श्लोक 64 व 65 में आया है. इस तरह बारह तरह के ये यज्ञ निम्न हैं:

*ब्रह्मयज्ञ* - योगी द्वारा प्रत्येक कर्म में ब्रह्मरुप अनुभव करना. (सन्दर्भ श्लोक 24)

*देवयज्ञ* - समस्त सांसारिक क्रियाओं तथा पदार्थों अपना और अपने लिए ना मानना. (सन्दर्भ श्लोक 25)

*विचाररुप यज्ञ* - कर्तव्यकर्म यज्ञ = यज्ञार्थ कर्म करना = दूसरों की सेवा के लिए कर्म करना (सन्दर्भ श्लोक 25)

*संयमरूप यज्ञ* - संयम रखना = इंद्रियों को इंद्रिय-विषयों में प्रवृत ना होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 26)

*समाधिरुप यज्ञ* - मन-बुद्धि सहित सभी इंद्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में लीन होना. (सन्दर्भ श्लोक 27)

*द्रव्य यज्ञ* - संसार में मन्दिर, धर्मशाला, विद्यालय आदि बनवाना, गरीब लोगों को अन्न, वस्त्र, औषध आदि दान देना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*तपो यज्ञ* - अपने कर्तव्य पालन में जो कठिनाईयां आएं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*योगयज्ञ* = अंतःकरण की समता रखना = कार्य होने और कार्य ना होने, परिणाम मिलाने और ना मिलाने, अनुकूल और प्रतिकूल (विपरीत) परिस्थिति में, प्रशंसा होने और निन्दा होने में, आदर और निरादर में समान भाव रखना = अंतःकरण में हलचल, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का ना होना. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ* = लोकहित में धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन करना, अपनी वृतियों और जीवन का अध्ययन करना. गीता का अध्ययन स्वाध्याय ज्ञान यज्ञ का एक भाग है. (सन्दर्भ श्लोक 28)

*प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा बाहर की वायु को बाईं नासिका के द्वारा अन्दर खींचा जाता है, फिर वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई अपन में लीन हो जाती है और फिर योगी प्राणवायु और अपानवायु (दोनों) की गति रोक देते हैं. (सन्दर्भ श्लोक 29)

*नियमित आहार करते हुए प्राणायाम यज्ञ* - योगी द्वारा नियमित आहार लिया जाता है और उपर्युक्त प्राणायाम यज्ञ किया जाता है. (सन्दर्भ श्लोक 30)

*विषय-हवन यज्ञ* - समस्त राग-द्वेष से मुक्त होकर अपनी इंद्रियों को वश में करना अर्थात् व्यवहारकाल में इंद्रियों का विषयों से संयोग होने पर राग-द्वेष ना पैदा होने देना. (सन्दर्भ श्लोक 64 व 65 - अध्याय 2)

उपर्युक्त वर्णित बारह प्रकार के यज्ञों में स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ ज्ञान प्राप्ति का साधन है, जिसके आठ अंतरंग साधन हैं - (1) विवेक, (2) वैराग्य, (3) शमादि षट्सम्पत्ति (शाम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा और समाधान), (4) मुमुक्षता, (5) श्रवण, (6) मनन, (7) निदिध्यासन, (8) तत्त्वपदार्थसंशोधन

*विवेक* = सत् और असत् को अलग-अलग जानना
*वैराग्य* = सत् और असत् को जानकर असत् का त्याग करना अर्थात् संसार से विमुख होना.
*शम* = मन को इंद्रिय विषयों से हटाना
*दम* = इन्द्रियों को विषयों से हटाना
*श्रद्धा* = ईश्वर, शास्त्र आदि का पूज्यभाव से विश्वास करना
*उपरति* = वृतियों का संसार की ओर से हट जाना
*तितिक्षा* = सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को उपेक्षाभाव से सहना
*समाधान* = अंत:करण में शंकाओं का ना रहना
*मुमुक्षता* = संसार से छूटने की इच्छा
*श्रवण* = शास्त्रों को भावपूर्वक सुनना
*मनन* = चिंतन करना
*निदिध्यासन* = विपरीत भावना (संसार की सत्ता को मानना और ईश्वर की सत्ता को ना मानना) को हटाना अर्थात् संसार की सत्ता को ना मानकर ईश्वर की सत्ता को मानना

सादर,

केशव राम सिंघल



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