Tuesday, October 11, 2016

#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#029 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 3 - कर्म योग - श्लोक 28*

*तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: !*
*गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सञ्जते !!* (3/28)


*भावार्थ* - (श्रीकृष्ण अर्जुन से) - परन्तु, हे अर्जुन ! गुण-विभाग और कर्म-विभाग के अन्तर को जानने वाला ज्ञानी व्यक्ति यह जानकर आसक्त नहीं होता कि सभी गुण ही गुणों में बरत रहे हैं. (अर्थात् यह जानकर आसक्त नहीं होता कि इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं. वह कभी भी इन्द्रियों के जाल में नहीं फंसता और अपने आपको इन्द्रियतृप्ति से दूर रखता है.)

*प्रसंगवश*

*गुण-विभाग क्या है?*


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ आदि सब गुणमय हैं, यही 'गुण-विभाग' है.

*कर्म-विभाग क्या है?*

शरीरादि से होने वाली क्रिया 'कर्म-विभाग' है.

*गुण ही गुणों में बरत रहे हैं*

समस्त क्रियाएं समष्टि शक्ति से संपन्न हो रही हैं. उदारण के तौर पर, आँख का गुण देखना, कान का गुण सुनना आदि, ये देखना-सुनना-खानापीना आदि सब क्रियाएं हैं . ये सब समष्टि शक्ति से संपन्न हो रहा है अर्थात गुण ही गुणों में बरत रहे हैं.

अज्ञानी व्यक्ति गुण-विभाग और कर्म-विभाग से अपना सम्बन्ध मान लेता है. मुख्य कारण 'राग' (मोह) है, जिससे वह बंधता है. यह राग (मोह) अविवेक/अज्ञान के कारण होता है. विवेक जाग्रत होने पर राग (मोह) नष्ट हो जाता है. आवश्यकता राग (मोह) को मिटाने की है.

जब व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है तो उसे अनुभूति होती है कि वह ईश्वर का अंश है पर किसी कारण वह देहात्मबुद्धि में फंस गया है और फलत: वह सभी प्रकार के भौतिक बंधनों से विचलित नहीं होता.

परिवर्तनशील प्रकृति के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध वस्तुत: है नहीं, केवल माना हुआ है. प्रकृति से माने हुए सम्बन्ध को यदि व्यक्ति विचार द्वारा मिटाता है तो यह 'ज्ञानयोग' है. और यदि वह इसी सम्बन्ध को दूसरों का हित करते हुए कर्म कर मिटाता है तो यह 'कर्मयोग' है. प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही योग-अनुभव होता है.

*योग-अनुभव अर्थात परमात्मा (ईश्वर) से सम्बन्ध का अनुभव !*

सादर,

केशव राम सिंघल


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