Thursday, August 18, 2016

#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#017 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ !*

*जय श्रीकृष्ण !*

*प्रसंगवश जिज्ञासा*


*कामना का मुख्य कारण क्या है? क्या यह पदार्थ या जीव या कुछ और की प्रकृति है?*

विषय भोग की इच्छा होना कामना है. कामना जब बलवती होती है तो वह वासना में बदल जाती है. कामना और वासना दोनों में इच्छा का वास है. अन्तकरण: में छिपी इच्छा वासना हो सकती है.

मन एक कारण है, जिसमें कामना आती है पर उसमें भी कामना हर समय नहीं होती. शरीर इंद्रियों का मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के फलस्वरूप कामना आती है.

कामना जीव की प्रकृति है, क्योंकि जीव में शरीर-इंद्रियाँ, मन और बुद्धि होती है.

*संगात्संजायते काम* (2/62) में बताया गया है कि इंद्रिय विषयों का चिंतन करने से इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण पैदा होता है.

*इंद्रियाणान् .....* (2/67) में बताया गया है - "जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है."

हमें गीता के *अध्याय 2 के श्लोक 65 से 72* के भावार्थ को समझने का प्रयत्न करना चाहिए, जिसका भावार्थ निम्न है: "इस प्रकार श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त व्यक्ति के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और ऐसे प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि स्थिर रहती है. जिसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, ऐसे व्यक्ति का मन भी स्थिर नहीं रहता है, उसे शान्ति नहीं मिलती और सुख भी नहीं मिल पाता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को ते़ज (प्रचंड) वायु (या लहर) उसे दूर बहा ले जाती है, उसी प्रकार चंचल इंद्रियों के साथ मन सदा लगा रहता है और यह व्यक्ति की बुद्धि को दूर बहा ले जाती है अर्थात व्यक्ति अपने मन को स्थिर नहीं रख पाता है. इसलिए, जिस व्यक्ति की इंद्रियाँ इंद्रिय-विषयों से विरत रहकर उसके वश में रहती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है. सब जीवों के लिए जो रात्रि (सोने का समय) है, वह आत्मसंयमी व्यक्ति के लिए जागने का समय है और जो सब जीवों के लिए जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षण करने वाले व्यक्ति के लिए रात्रि के समान है. जैसे विभिन्न नदियों का जल निरंतर प्रवाह से समुंद्र को विचलित नहीं कर पाता, उसी प्रकार स्थिर बुद्धि का व्यक्ति भोगों को नही चाहते हुए शान्ति में स्थिर रहता है. जो व्यक्ति इंद्रियतृप्ति की भौतिक इच्छाओं का त्याग कर देता है और जो इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-शून्य रहता है, वह पूर्ण (वास्तविक) शान्ति प्राप्त करता है. यही वह आध्यात्मिक स्थिति है जिसे प्राप्त कर व्यक्ति कभी मोहित नहीं होता और इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में वह ब्रह्म-आनंद प्राप्त करता है."

सादर,

केशव राम सिंघल


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