गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण 🙏
गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप
=========
प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe
11 / 01
अर्जुन उवाचः
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।
11 / 02
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।
11 / 03
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।
11 / 04
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।
11 / 05
श्रीभगवानुवाच -
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।
11 / 06
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।।
11 / 07
इहैकस्थं जगत् कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।।
11 / 08
न तु मां शक्यसे द्रष्टुं अनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।
11 / 09
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।
11 / 10
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।
11 / 11
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।
11 / 12
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।
11 / 13
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद् देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।
11 / 14
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।
भावार्थ
अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं - मुझ पर कृपा करके आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया, उससे मेरा यह मोह (भ्रम) पूरी तरह दूर हो गया है। हे कमलनयन (भगवान् श्रीकृष्ण), मैंने आपसे सभी जीवों की उत्पत्ति और अंत के विषय में विस्तार से सुना, साथ ही आपके अविनाशी माहात्म्य को भी जाना। हे परमेश्वर, हे पुरुषोत्तम (भगवान् श्रीकृष्ण), आपने अपने बारे में जो कुछ कहा है, उस आपके दैवी स्वरूप को देखने की मेरी इच्छा है। हे प्रभो, हे योगेश्वर, यदि आप मानते हैं कि मैं आपके अविनाशी (विराट) स्वरूप को देखने में समर्थ हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना वह स्वरूप दिखाएँ।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - हे पार्थ (अर्जुन), अब मेरे सैकड़ों-हजारों प्रकार के दिव्य रूपों को देख, जो विभिन्न रंग और आकृति के हैं। हे भारत (अर्जुन), सूर्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनों और मरुतों को देखो। पहले कभी न देखे गए अनेक आश्चर्यों को देखो। हे गुडाकेश (अर्जुन), मेरे इस देह में समस्त विश्व को एक स्थान पर, चलायमान और अविचल सहित देख, और जो कुछ भी तू देखना चाहता है, वह भी देख। लेकिन तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते, अतः मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ, ताकि तुम मेरे दिव्य योग का दर्शन कर सको।
संजय राजा धृष्टराष्ट्र से कहते हैं, हे राजा (धृतराष्ट्र), इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर श्रीहरि (श्रीकृष्ण) ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यपूर्ण (विराट विश्वरूप) स्वरूप दिखाया।
अर्जुन ने देखा कि भगवान् कृष्ण के अनेक मुख और नेत्र, अनेक आश्चर्यजनक दृश्य, अनेक दिव्य आभूषण और वे अनेक दिव्य शस्त्र उठाए हुए थे। विश्वरूप में दिव्य मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए, दिव्य सुगंध से सुशोभित, सब कुछ आश्चर्य से भरपूर, अनंत और सर्वत्र व्याप्त था। यदि आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदय हो जाए, तब भी वह उस महात्मा के विश्वरूप के तेज की समानता नहीं कर सकता। उस समय पाण्डव (अर्जुन) ने देवदेव (श्रीकृष्ण) के शरीर में ब्रह्माण्ड को एक स्थान पर, अनेक रूपों में विभक्त देखा। तब मोह और आश्चर्य से भरपूर अर्जुन के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने सिर झुकाकर देव (श्रीकृष्ण) को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोलना शुरू किया।
प्रसंगवश
गीता अध्याय 11 के पहले चार श्लोकों में अर्जुन की जिज्ञासा, भक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण का चित्रण है। इसके बाद के चार श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार करते हैं और अपने विराट स्वरूप के दर्शन की तैयारी करते हैं, लेकिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि इसके लिए दिव्य दृष्टि आवश्यक है। यह खंड भगवान के सर्वव्यापी, अनंत और ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप को समझने का आधार तैयार करता है। इन श्लोकों से हमें यह सीख मिलती है कि ईश्वर का सच्चा स्वरूप केवल भक्ति, विनम्रता और उनकी कृपा से ही देखा जा सकता है। सामान्य दृष्टि से परे, आध्यात्मिक दृष्टि की आवश्यकता होती है।
गीता अध्याय 11 के श्लोक 9 से 14 तक भगवान् कृष्ण के विराट विश्वरूप का प्रारंभिक वर्णन है। संजय श्रीकृष्ण के विश्वरूप को अनंत, भव्य, तेजस्वी और सर्वसमावेशी बताते हैं, जिसमें असंख्य मुख, नेत्र, आभूषण, शस्त्र और विश्व के सभी तत्त्व समाहित हैं। अर्जुन इस दर्शन से अभिभूत होकर भक्ति और विस्मय के साथ प्रणाम करते हैं। यह खंड भगवान की अनंतता, सर्वव्यापकता और ऐश्वर्य को रेखांकित करता है। भगवान् के विराट विश्वरूप का दर्शन हमें सिखाता है कि ईश्वर सृष्टि का स्रोत और उसका समग्र स्वरूप हैं। उनकी महिमा मानव बुद्धि से परे है।
सादर,
केशव राम सिंघल
No comments:
Post a Comment