गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण 🙏
गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा
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10 / 6
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तया।
मद्भावा मानसा जाता येवां लोक इमाः प्रजाः।।
10 / 7
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।
10 / 8
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
आईटीआई मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।
10 / 9
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथ यन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
भावार्थ
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
बहुत पहले सात महान ऋषि, चार मनु ऋषि से इस संसार के ये प्राणी मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो व्यक्ति मेरी विलक्षण शक्ति और सामर्थ्य को और योग को भली प्रकार जानता है, वह मेरी अनन्य भक्ति में लग जाता है। मैं सभी चीज़ों (संसार, प्रकृति, जड़-चेतन आदि) का स्रोत हूँ और सभी चीज़ें मुझसे ही निकलती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति मुझे ऐसा मानकर अपना भाव रखते हुए मेरी आराधना करते हैं। जिस व्यक्ति में मेरा मन लगा है और जिसने मुझमें जीवन अर्पित कर दिया है, वे एक दूसरे को मेरे गुण, प्रभाव आदि का ज्ञान करती और कहते हुए सदैव संतुष्ट रहते हैं और मुझमें आनंदित रहते हैं।
प्रसंगवश
श्लोक 10/6 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में सात महर्षि और चार मनु उनके मन से उत्पन्न हुए, और इनसे ही समस्त लोगों की उत्पत्ति हुई। यहाँ भगवान अपनी सृष्टिकर्ता शक्ति को प्रकट करते हैं। "मद्भावा" और "मानसा जाता" शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि की रचना भगवान के संकल्प से हुई है। यह श्लोक उनकी सर्वोच्चता और सृष्टि के मूल स्रोत होने का बोध कराता है। यह श्लोक हमें बताता है कि समस्त सृष्टि भगवान की इच्छा और संकल्प का परिणाम है। यह हमें भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता की ओर ध्यान आकर्षित करता है। सात महर्षि और चार मनु प्रतीकात्मक रूप से सृष्टि के प्रारंभिक बुद्धिमान और नियामक तत्वों को दर्शाते हैं, जो भगवान के ही अंश हैं।
श्लोक 10/7 में भगवान् श्रीकृष्ण भक्ति और योग तत्व के बारे में कहते हैं। यहाँ वे ज्ञान और भक्ति के संयोग को रेखांकित करते हैं। भगवान् की महिमा को समझना (ज्ञान) भक्ति का आधार बनता है, जो मनुष्य को अटल विश्वास की ओर ले जाता है। यह ज्ञान हमें प्रेरित करता है कि भगवान के स्वरूप और शक्तियों का चिंतन करने से हमारी भक्ति दृढ़ होती है।
श्लोक 10/8 भगवान् की सर्वोच्चता को स्थापित करता है और यह दर्शाता है कि सच्चा ज्ञान भक्ति में परिणत होता है। भक्ति केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि हृदय की भावना और समर्पण से युक्त होनी चाहिए।
श्लोक 10 / 6 में भगवान् के भक्त के बारे में छह बाते कही गई हैं। भक्त के ये गुण भक्ति के आदर्श स्वरूप को प्रकट करते हैं, जो निम्न हैं -
(1) मच्चित्ता - जिनका मन भगवान् में जो रम गया है ।
(2) मद्गतप्राणाः - भगवान् को जिसने अपना जीवन अर्पित कर दिया।
(3) बोधयन्तः परस्परम् - जो एक-दूसरे को भगवान के गुणों का ज्ञान देते हैं।
(4) कथयन्तः - जो भगवान् की महिमा का कथन करते हैं।
(5) तुष्यन्ति - जो सदा संतुष्ट रहते हैं।
(6) रमन्ति - जो भगवान् में आनंदित रहते हैं।
यहाँ भक्ति के सामाजिक और व्यक्तिगत आयामों को दर्शाया गया है। भक्त न केवल स्वयं भगवान् में लीन रहते हैं, बल्कि दूसरों को भी उनके गुणों का बोध कराते हैं। भक्त का जीवन संतुष्टि और आनंद से परिपूर्ण होता है, क्योंकि उनका ध्यान भौतिक सुखों से हटकर भगवान् पर केंद्रित रहता है।
सार सन्देश
इन श्लोकों का सार संदेश यह है कि भगवान ही सृष्टि के स्रोत, संचालक और अंतिम लक्ष्य हैं। उनकी महिमा को समझना और उनके प्रति भक्ति विकसित करना मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर आनंदमय जीवन की ओर ले जाता है। भक्ति केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक भी है, जहाँ भक्त एक-दूसरे को प्रेरित करते हैं और भगवान के गुणों का प्रचार करते हैं।
सादर,
केशव राम सिंघल
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