Tuesday, April 15, 2025

#100 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 









प्रतीकात्मक चित्र - भगवान् श्रीकृष्ण - साभार NightCafe 


10 / 1 

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः। 

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।। 


10 / 2 

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षय। 

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।। 


10 / 3 

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। 

असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।। 


10 / 4 

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। 

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। 


10 / 5 

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। 

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथाग्वधाः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


हे महाबाहु (अर्जुन), प्रिय मित्र,आगे मेरी बात सुनो। जो कुछ मैं तुम्हें कहूँगा वह तुम्हारे हित के लिए होगा। न तो देवतागण और न ही महान ऋषिगण मेरे मूल को जानते हैं, क्योंकि मैं ही समस्त देवताओं और महर्षियों का मूल हूँ। वह जो मुझे और जन्म के आरंभ को जानता है, वह व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। बुद्धि, ज्ञान, मोह, क्षमा, सत्य, संयम, शांति, सुख, दुःख, अस्तित्व, अभाव, भय, निर्भयता, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश, जीवों की ये अलग-अलग भावनाएँ मुझसे ही उत्पन्न होती हैं। 


प्रसंगवश 


गीता के दसवें अध्याय में भगवान् गुह्य ज्ञान अर्जुन को देते हैं। भगवान् परम शक्ति हैं, वे सम्पूर्ण शक्ति, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य और त्याग से युक्त हैं। भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है। वे ही समस्त कारणों के कारण हैं। हम प्राणी भगवान् के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि भगवान् ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के स्वामी हैं। वे सृष्टि से पूर्व भी थे और सृष्टि के प्रलय होने के बाद भी रहेंगे। भगवान ही समस्त सृष्टि के मूल कारण हैं। जो भगवान् को जान और समझ लेता है, वह अपने सभी पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है। 


जीवों के अच्छे और बुरे सभी गुण भगवान् द्वारा ही उत्पन्न किए गए हैं। गीता श्लोक 10 / 4 और 5 में बीस तरह के भावों को बताया गया है, जो निम्न हैं - 


(1) बुद्धि - सही-गलत का अंतर करने वाली विवेक-शक्ति ही बुद्धि है। 

(2) ज्ञान - ज्ञान का अर्थ है जान लेना। 

(3) असम्मोह - असम्मोह का अर्थ है मोह (संशय) से दूर होना।  

(4) क्षमा - क्षमा का अर्थ है कि सहिष्णु दूसरों की गलतियों को बिना दंड दिए सह लेना। 

(5) सत्य - जो जैसा है, वही बतलाना। तथ्यों और घटनाओं को सही बतलाना। 

(6) दम - इन्द्रियों का निग्रह (संयम)। 

(7) शम - मन का निग्रह (संयम। 

(8) सुख - शरीर, मन, इन्द्रियों के अनुकूल परिस्थिति के फलस्वरूप ह्रदय में होने वाली प्रसन्नता। 

(9) दुःख - शरीर, मन, इन्द्रियों के अनुकूल परिस्थिति के फलस्वरूप ह्रदय में होने वाली अप्रसन्नता। 

(10) भव - उत्पत्ति या जन्म। यहाँ जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। 

(11) अभाव - विनाश या मृत्यु। यहाँ मृत्यु का सम्बन्ध भी शरीर से है। 

(12) भय - व्यक्ति के अंतकरण में अनिष्ट होने की आशंका, भविष्य की चिंता। 

(13) अभय - भय का नहीं रहना।  

(14) अहिंसा - तन, मन और वचन से किसी को कष्ट नहीं देना। 

(15) समता - अपने अंतकरण में कोई विषमता न आए, दूसरों के प्रति राग-द्वेष न रहे। 

(16) तुष्टि - संतुष्ट रहना चाहे मिले अथवा न मिले, अत्यधिक संग्रह के लिए उत्सुक न हो। 

(17) तप - तपस्या करना, अपने कर्तव्य का हर परिस्थिति में पालन करना। स्वेच्छा से उपवास करना भी एक प्रकार की तपस्या है। 

(18) दान - अपनी आय का कुछ भाग बिना किसी लाभ की आशा से शुभ कार्य में लगाना, निर्धन को आर्थिक मदद देना। 

(19) यश - अच्छे आचरण, भाव और गुण को लेकर होने वाली सांसारिक प्रशंसा या प्रसिद्धि। 

(20) अपयश - बुरे आचरण, भाव और गुण को लेकर होने वाली सांसारिक निंदा। 


भगवान् द्वारा बताए गए ये भाव हमारे जीवन के हर पहलू को दर्शाते हैं और हमें यह जानना चाहिए कि ये सभी गुण अंततः भगवान से ही उत्पन्न होते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि जीवन में संतुलन और समर्पण कितना महत्वपूर्ण है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


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