Thursday, April 10, 2025

#095 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9 / 25 

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः। 

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।  


9 / 26 

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। 

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जो व्यक्ति सकामभाव से देवताओं की आराधना करते हैं, वे देवताओं के परायण हो जाते हैं अर्थात् देवता अपने ऐसे भक्तों को अच्छा फल देते हैं और अपने देवलोक में ले जाते हैं। पितरों की आराधना करने वाले व्यक्ति को पितरों से सहायता मिलती है और वे पितरों के लोक को जाते हैं। भूत-प्रेतों की आराधना करने वाले व्यक्ति को भूत-प्रेतों की योनि मिलती है। पर जो व्यक्ति (भक्त) मेरी आराधना करता है, वह मुझे प्राप्त होता है। जो व्यक्ति (भक्त) पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे प्रेमपूर्वक अर्पित करता है, मुझमें तल्लीन उस अंतकरण हुए भक्त के प्रेमपूर्वक दिए उपहार (भेंट) को मैं स्वीकार कर लेता हूँ। 


प्रसंगवश 


गीता श्लोक 9/25 में भगवान श्रीकृष्ण एक सार्वभौमिक सिद्धांत प्रकट करते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा और कर्म का लक्ष्य ही व्यक्ति की गति को निर्धारित करता है।


भगवान् श्रीकृष्ण चार प्रकार के उपासकों का उल्लेख करते हैं - 


(1) देवव्रता (देवताओं के उपासक) - ऐसे व्यक्ति जो सकाम भाव से देवताओं (जैसे इंद्र, अग्नि, वरुण आदि) की पूजा करते हैं, उन्हें मृत्यु के बाद देवलोक की प्राप्ति होती है। यहाँ "देवलोक" एक अस्थायी सुखद स्थिति है, जो कर्मफल के समाप्त होने पर समाप्त हो जाती है और जीवात्मा को पुनः इस लोक में आना पड़ता है। 


(2) पितृव्रता (पितरों के उपासक) - ऐसे व्यक्ति जो श्राद्ध-तर्पण आदि के माध्यम से पितरों (पूर्वजों) की सेवा करते हैं, वे पितृलोक को प्राप्त करते हैं। यह भी एक सीमित फल है और जीवात्मा को पुनः इस मृत्युलोक में आना पड़ता है। 


(3) भूतेज्या (भूत-प्रेतों के उपासक) -  ऐसे व्यक्ति जो निम्नतर शक्तियों (भूत-प्रेत, यक्ष आदि) की पूजा करते हैं, वे उसी स्तर की योनि या चेतना में चले जाते हैं। भगवान् यहाँ यह संकेत देते हैं कि मनुष्य का चयन उसकी आध्यात्मिक गति को प्रभावित करता है।


(4) मद्याजिन (मेरे भक्त) - ऐसे व्यक्ति जो निष्काम भाव से भगवान की शरण लेते हैं, सेवा-आराधना करते हैं, वे परम गंतव्य—ईश्वर को प्राप्त करते हैं, जो सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु) चक्र से मुक्ति का मार्ग है।


वेदांत के दृष्टिकोण से यह श्लोक उपनिषदों के उस सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है कि "यथा श्रद्धा, तथैव सिद्धि"—जैसी श्रद्धा, वैसी प्राप्ति। मांडूक्य उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में भी यह विचार आता है कि मनुष्य का कर्म और संकल्प उसकी चेतना को आकार देता है। श्रीकृष्ण यहाँ यह ज्ञान देते हैं कि सकाम कर्म एक सीमित परिणाम देता है, जबकि निष्काम भक्ति परम मुक्ति की ओर ले जाती है।


भक्ति संप्रदायों के दृष्टिकोण के अनुसार रामानुजाचार्य जैसे विशिष्टाद्वैतवादी इस श्लोक में भगवान की सर्वोच्चता और उनकी कृपा की महिमा देखते हैं। उनके अनुसार "मद्याजिनोऽपि माम्" में "अपि" शब्द यह दर्शाता है कि भगवान की प्राप्ति सामान्य नहीं, अपितु विशेष कृपा का परिणाम है। वहीं, माधवाचार्य (द्वैत मत) इसे भगवान के प्रति अनन्य भक्ति के महत्व के रूप में देखते हैं।


अन्य दर्शन 


बौद्ध दर्शन में भी कर्म और चेतना का गहरा संबंध बताया गया है। बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म (Rebirth) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे 'संसार' या 'भव चक्र' कहा जाता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, जब तक व्यक्ति निर्वाण (Nirvana) प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे बार-बार पुनर्जन्म लेना पड़ता है। अतः यह विचार मिलता है कि जो व्यक्ति इंद्रिय सुखों या निम्नतर कामनाओं में लिप्त रहता है, वह पुनर्जन्म के चक्र में फँस जाता है। गीता का यह श्लोक इसे समानांतर रूप से दर्शाता है। गीता में मुक्ति का मार्ग भगवान की भक्ति बताया गया है, न कि निर्वाण की खोज।


पश्चिमी दर्शन में विशेषतौर पर प्लेटो के "रिपब्लिक" में आत्मा की गति का विचार आता है, जहाँ आत्मा अपने जीवनकाल के कर्मों के आधार पर विभिन्न लोकों में जाती है। गीता का यह श्लोक इसे और स्पष्ट करता है कि उपासना का लक्ष्य ही आत्मा की दिशा तय करता है।

 

गीता का श्लोक  9/26 भक्ति के सरल और शुद्ध स्वरूप को उजागर करता है। भगवान कहते हैं कि भेंट की भौतिक मात्रा या मूल्य महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि भक्त का भाव और प्रेम ही स्वीकार्य है। यहाँ "प्रयतात्मनः" (शुद्ध मन वाले) शब्द यह दर्शाता है कि भक्त का हृदय निर्मल और समर्पित होना चाहिए।


वेदांत के दृष्टिकोण से यह श्लोक ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वग्राह्यता को दर्शाता है। ईश्वर को किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे स्वयं सर्वस्व हैं (बृहदारण्यक उपनिषद: "पूर्णमदः पूर्णमिदम्")। फिर भी, वे भक्त के प्रेम और भेंट को स्वीकार करते हैं, जो उनकी करुणा और सुलभता को दिखाता है।


भक्ति संप्रदायों के दृष्टिकोण से यह श्लोक भक्ति मार्ग की सहजता का प्रतीक है। चैतन्य महाप्रभु जैसे गौड़ीय वैष्णव संतों ने इसे भगवान के प्रति प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति माना। तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा, "प्रेम तें प्रभु किङ्कर ज्यों जानी"—प्रेम से भगवान भक्त को अपना सेवक मान लेते हैं। यहाँ विधि-विधान से अधिक भाव की महत्ता है।


सूफी परंपरा के सूफी संत रूमी ने लिखा, "जो दिल से दिया जाता है, वही ईश्वर तक पहुँचता है।" सूफी संत का यह विचार गीता के इस श्लोक से मेल खाता है कि भक्ति में प्रेम और समर्पण ही महत्वपूर्ण है, न कि बाहरी आडंबर।


ईसाई दर्शन के बाइबिल में लिखा है -  "जहाँ तेरा खजाना है, वहाँ तेरा हृदय भी होगा" (मत्ती 6:21)— बाइबिल का यह विचार गीता के इस श्लोक से मिलता-जुलता है, जहाँ भक्त का हृदय ही उसकी भेंट को मूल्यवान बनाता है।


आधुनिक मनोविज्ञान में "इरादे की शक्ति" (Power of Intention) को देखा जा सकता है। जब कोई कार्य प्रेम और शुद्धता से किया जाता है तो उसका प्रभाव गहरा होता है—यही विज्ञान और अध्यात्म का संगम है।


समग्र संदेश 


इन दोनों श्लोकों का संदेश यह है कि मनुष्य का जीवन उसके विश्वास, कर्म और भाव से संचालित होता है। सकाम कर्म सीमित फल देता है, जबकि निष्काम भक्ति परम मुक्ति का द्वार खोलती है। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ भक्ति की सहजता और गहराई को एक साथ स्थापित करते हैं—न तो भेंट का मूल्य मायने रखता है, न ही कर्मकांड की जटिलता; केवल प्रेम और शुद्धता ही पर्याप्त है।


हमें यह प्रेरणा और सीख मिलती है कि हम अपने जीवन में निष्काम भाव को अपनाएँ और ईश्वर के प्रति प्रेम को प्राथमिकता दें।  


इस संसार में अधिकतर व्यक्ति सांसारिक भोग और ऐश्वर्य की कामना करते हैं तथा सकाम भाव से अपने-अपने इष्ट की आराधना में लगे रहते हैं। ऐसे लोग जो निष्काम भाव से ईश्वर की आराधना नहीं करते, वे मोक्ष को नहीं पा पाते तथा सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु)चक्र में उलझे रहते हैं। बेहतर है कि व्यक्ति सकामभाव से नहीं, बल्कि निष्काम भाव से सेवा-आराधना करे, ताकि उसका उद्धार हो और वह सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु) चक्र से मुक्त हो सके।  


गीता के इन श्लोकों में प्रकृति और पदार्थ की प्रमुखता नहीं है, बल्कि व्यक्ति (भक्त) के भाव की प्रमुखता है। भगवान् की उपासना या आराधना में प्रेम और अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं। सेवा, उपासना या आराधना निष्काम भाव से होनी चाहिए। 


सादर, 

केशव राम सिंघल  



No comments: