Tuesday, April 29, 2025

गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता ज्ञान - 01 - तीन योग और परमात्मा की सर्वव्यापकता

गीता अध्ययन एक प्रयास 

गीता ज्ञान - 01 - तीन योग और परमात्मा की सर्वव्यापकता

******** 








तीन योग हैं - कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग। 


शरीर (अपरा, परिवर्तनशील) को लेकर कर्मयोग है। शरीरी अर्थात् आत्मा (परा, अपरिवर्तनशील) को लेकर ज्ञानयोग है। शरीर और शरीरी (आत्मा) दोनों के मालिक भगवान् हैं, इसको लेकर भक्तियोग है। 


यह मेरा सौभाग्य है की पिछले कुछ समय से गीता अध्ययन का सुअवसर मुझे मिला है। 


परमात्मा = ब्रह्म = भगवान् = ईश्वर 


परमात्मा अनंत हैं। उनका सबकुछ अनंत है। भगवान् श्रीकृष्ण के मुख़ारविन्द से निकली गीता के श्लोकों के भाव (अर्थ) भी अनंत हैं। गीता उपनिषदों का सार है। वास्तव में देखा जाए तो गीता में जो कहा गया है, वह उपनिषदों से भी विशेष है। गीता का तात्पर्य है - वासुदेव सर्वम् अर्थात् भगवान् सभी में विद्यमान हैं। तात्पर्य है कि सत्, असत् और उससे परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का ही है। यह विचार "वासुदेव सर्वम्" (सब कुछ भगवान हैं)भगवद्गीता के अध्याय 7, श्लोक 19 में भी प्रतिबिंबित होता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं - "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यति। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।" (अनेक जन्मों के अंत में ज्ञानवान व्यक्ति मुझे प्राप्त करता है, यह जानकर कि वासुदेव ही सब कुछ है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।) संसार हमें राग के कारण दीखता है। राग के कारण दूसरी सत्ता दीखती है। राग न हो तो यह संसार कुछ नहीं, केवल ब्रह्म ही है। यदि हम राग-द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा से हमारा साक्षात्कार हो जाएगा, ऐसी संभावना है। सब कुछ परमात्मा ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और गीता समग्र की वाणी है। जो जिस विचार, मनोभाव से गीता को पढ़ता है, उसे गीता वैसी ही लगती है। 


इस आलेख में गीता के तीन प्रमुख योगों—कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग—को परिभाषित किया है - 


- कर्मयोग - शरीर (अपरा, जड़, परिवर्तनशील) से संबंधित है, जो निष्काम कर्म पर जोर देता है।

- ज्ञानयोग - आत्मा (परा, चेतन, अपरिवर्तनशील) के स्वरूप को समझने का मार्ग है।

- भक्तियोग - शरीर और आत्मा दोनों के स्वामी भगवान के प्रति समर्पण का मार्ग है।


गीता असीम है और गीता में जो भाव भरा है, वह बुद्धि में पूरा समझ नहीं आ पाता, इसलिए जो कुछ मैंने यहां सम्प्रेषित किया वह भाव मेरे अंतःकरण में आया और यह भाव न तो अंतिम है और न ही अंतिम हो सकता है। 


ॐ तत् सत्। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 


No comments: