Sunday, April 13, 2025

#098 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान













9 / 30 

अपि चेतसुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। 

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।। 


9 / 31 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति। 

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।। 


9 / 32 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। 

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 


9 / 33 

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। 

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 


भावार्थ 


यदि कोई दुराचारी मन वाला भी अनन्य भाव से (श्रद्धापूर्वक, बिना विचलित हुए) मेरी ही भक्ति करता है, तो ऐसे व्यक्ति को संत माना जाना चाहिए क्योंकि उसने सही निर्णय लिया है। ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही धर्मपरायण व्यक्ति बन शाश्वत शांति प्राप्त कर लेता है। हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), ऐसा मुझ से वादा करो कि मेरे भक्त (अर्जुन) का नाश नहीं होगा। हे पार्थ (अर्जुन), चाहे वह पापमय जन्म (पापयोनि) का ही क्यों न हो, मुझ पर भरोसा करने के कारण स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को प्राप्त करते हैं। पवित्र आचरण करने वाले समर्पित ब्राह्मण और राजर्षि (क्षत्रिय) का तो कहना ही क्या, इस सनातन और दुःखमय संसार में तू मेरी भक्ति कर।


प्रसंगवश 


गीता अध्याय 9 के 30 से 33 तक के श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया भक्ति मार्ग का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रासंगिक प्रतीत होता है। 


हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश होने से तत्त्वतः वह निर्दोष है। प्रकृति (संसार) की आसक्ति के कारण उसमें कुछ दोष आ जाते हैं। यदि उसके मन में दोषों या पापों से घृणा हो जाए और ऐसा निश्चय हो जाए कि भगवान् की भक्ति करनी है तो ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही धर्मपरायण व्यक्ति बन जाता है। भक्त और भगवान् का सम्बन्ध रोगी और चिकित्सक जैसा है। निर्बल रोगी अपने चिकित्सक पर विश्वास करता है कि वही उसके रोग को मिटाने वाला है। हमें भी वैसा ही विश्वास भगवान् पर करना चाहिए। यदि भगवान् की कृपा और आश्रय हम पर है तो फिर हमारा पतन होने की संभावना बिलकुल भी नहीं है। पापयोनि में अन्य जीव, जैसे पशु, पक्षी आदि भी शामिल किए जा सकते हैं।  


गीता के अध्याय 9 के श्लोकों (30-33) में भगवान श्रीकृष्ण भक्ति के समावेशी और उदार स्वरूप के बारे में ज्ञान देते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए खुला है, चाहे उसका जन्म, कर्म, सामाजिक स्थिति या अतीत कैसा भी रहा हो। कुछ प्रमुख बातें निम्न हैं -  


(1) अनन्य भक्ति की शक्ति (श्लोक 9.30) - इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि यदि कोई दुराचारी भी अनन्य भाव से उनकी भक्ति करता है, तो उसे संत माना जाना चाहिए। यह दर्शाता है कि भक्ति में हृदय की शुद्धता और निष्ठा सर्वोपरि है। व्यक्ति का अतीत और व्यक्ति की सामाजिक या आर्थिक स्थिति मायने नहीं है, यदि उसका संकल्प भगवान के प्रति दृढ़ है। यह भक्ति मार्ग की सहजता और सभी के लिए उसकी पहुँच को रेखांकित करता है।


(2) शीघ्र परिवर्तन और शांति (श्लोक 9.31) - यह श्लोक भक्ति के परिवर्तनशील प्रभाव को दर्शाता है। जो व्यक्ति भगवान की शरण लेता है, वह शीघ्र ही धर्मपरायण बन जाता है और शाश्वत शांति प्राप्त करता है। भगवान का यह आश्वासन कि "मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता" भक्त के लिए अटूट विश्वास का आधार बनता है। यह भक्त और भगवान के बीच गहन विश्वास और प्रेम के बंधन को दर्शाता है।


(3) सर्वसमावेशी भक्ति (श्लोक 9.32) - यह श्लोक भक्ति के लोकतांत्रिक स्वरूप को उजागर करता है। भगवान कहते हैं कि चाहे कोई भी पापयोनि (अर्थात् सामाजिक दृष्टि से निम्न समझे जाने वाले वर्ग) से हो, जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, या अन्य, जो भी उनकी शरण लेता है, वह परम गति को प्राप्त करता है। यह महाभारत काल के सामाजिक ढाँचे में क्रांतिकारी संदेश था, जो आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह भगवान् की ओर से हर तरह के भेदभाव को नकारता है। उनका सभी के लिए समान भाव है। 


(4) सभी के लिए प्रेरणा (श्लोक 9.33) - जब पापयोनि वाले (अर्थात् सामाजिक दृष्टि से निम्न समझे जाने वाले वर्ग) भी भक्ति से परम गति पा सकते हैं, तो पवित्र ब्राह्मणों और राजर्षियों (क्षत्रियों) के लिए यह और भी सहज है। भगवान कृष्ण अर्जुन को इस नश्वर, दुखमय संसार में उनकी भक्ति करने का आह्वान करते हैं। यह श्लोक भक्ति को सभी के लिए एकमात्र सच्चा मार्ग बताता है, जो जीवन को अर्थ और शांति प्रदान करता है।

 

आज के समय में प्रासंगिकता 


आज के समय में लोग सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत भेदभाव से जूझ रहे हैं, ऐसे में गीता के ये श्लोक लोगों में आशा का संचार करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन कि कोई भी उनकी शरण लेकर परम गति पा सकता है, व्यक्ति को अपनी कमियों या सामाजिक बाधाओं से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। भगवान् श्रीकृष्ण इन श्लोकों में भक्ति को कर्म से जोड़ते हैं। भगवान् कर्म को भक्ति के साथ जोड़कर उसे शुद्ध करने का ज्ञान देते हैं। यह गीता के ज्ञान में कर्मयोग और भक्तियोग के समन्वय को दर्शाता है। श्लोक 9.31 में "शाश्वत शांति" का उल्लेख गीता के उस दर्शन को इंगित करता है, जहाँ शांति केवल बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि वह आंतरिक समर्पण और भगवान के साथ भक्ति द्वारा स्थापित एकता से प्राप्त हो सकती है। यह आज के तनावपूर्ण जीवन में विशेष रूप से प्रासंगिक है।


सार 

 

भगवान श्रीकृष्ण का यह संदेश कि उनकी शरण में कोई भी असफल नहीं होता, हर व्यक्ति के लिए प्रेरणादायी है। हमें यह पता चलता है कि भगवान् की भक्ति में न तो भेदभाव है, न ही कोई सीमा। यह एक ऐसा मार्ग है, जो हर जीव को परमात्मा से जोड़ सकता है। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


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