गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण
गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान
प्रतीकात्मक चित्र - भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए
साभार - ओपनएआई (OpenAI)
9 / 27
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
9 / 28
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।
9 / 29
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
भावार्थ
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), जो कुछ भी तुम करते हो, जो कुछ भी तुम खाते हो, जो कुछ भी तुम त्याग करते हो, जो कुछ भी तुम देते हो। तुम जो भी तपस्या करते हो, वह सब मुझे अर्पित करो। इस प्रकार तुम शुभ और अशुभ फलों के कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाओगे। त्यागयोग से युक्त मन से मुक्त होकर तुम मेरे पास आओगे। मैं सभी प्राणियों के लिए समान हूँ, मेरे लिए न तो कोई घृणा (द्वेष) करने योग्य है और न ही कोई प्रेम (राग, मोह) करने योग्य। परन्तु जो व्यक्ति (भक्त) भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।
प्रसंगवश
श्लोक 9.27 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन के प्रत्येक कार्य—खाना, हवन करना, दान देना, तप करना—सब कुछ भगवान को अर्पित कर देना चाहिए। यहाँ "मदर्पणम्" का तात्पर्य है कि सभी कर्मों को अहंकार और स्वार्थ से मुक्त कर, भगवान की इच्छा और कृपा के प्रति समर्पित करना। इससे कर्मों का बंधन टूटता है। यह श्लोक कर्मयोग का सार है। यह सिखाता है कि सांसारिक कार्यों को भी भक्ति के साथ करने से वे मोक्ष का साधन बन सकते हैं।
श्लोक 9.28 के अनुसार जब सभी कर्म भगवान को अर्पित किए जाते हैं, तो शुभ और अशुभ फलों से मुक्ति मिलती है। संन्यासयोग (कर्मों का त्याग और भगवान में समर्पण) से युक्त व्यक्ति बंधनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त करता है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि कर्मों का फल ही बंधन का कारण है। जब कर्म भगवान को समर्पित होते हैं, तो फल की चिंता समाप्त हो जाती है, और यह मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्लोक 9.29 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी प्राणियों के प्रति समान हैं—न कोई प्रिय है, न अप्रिय। लेकिन जो भक्त भक्ति के साथ उनकी उपासना करते हैं, वे भगवान में और भगवान उनमें समाहित हो जाते हैं। यह श्लोक भगवान की निष्पक्षता और भक्ति की महत्ता को दर्शाता है। भगवान सभी के लिए समान हैं, पर भक्त का समर्पण उन्हें विशेष रूप से भगवान के निकट लाता है। यह भक्तियोग का आधार है।
अपने कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देना ही संन्यासयोग है। ऐसा व्यक्ति (भक्त) जो अपने सभी कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देता है, वह पूरी तरह से मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त होता है। यहाँ हमें यह समझना चाहिए कि हम जो भी कर्म करते हैं, वे सभी कर्म हमारे शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा किए जाते हैं और ये सभी बाह्य हैं और इनका फल भी बाहरी होता है। हमारे कर्मों के फलस्वरूप ही हमें सुख या दुःख मिलता है। यह सुखी-दुःखी होना ही हमारा कर्मबन्धन है। भगवान् को प्राप्त होना ही मोक्ष है। भगवान् की सम्पूर्ण प्राणियों में व्यापकता, प्रियता, कृपा और आत्मीयता समान है, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं।
मेरी सीख
गीता में वर्णित ये श्लोक कर्मयोग, भक्तियोग, और संन्यासयोग का समन्वय प्रस्तुत करते हैं। इनसे निम्न शिक्षाएँ मिलती हैं -
(1) कर्मों का समर्पण हमारे हित में है। सभी कार्य भगवान को अर्पित करने से कर्मबंधन टूटता है।
(2) हमें निष्काम भावना से कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा त्यागकर कार्य करना मोक्ष का मार्ग है।
(3) भगवान सभी के प्रति समान हैं, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं।
(4) संन्यास और भक्ति के माध्यम से भगवान की प्राप्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हमारे जीवन का परम लक्ष्य हो सकता है।
सादर,
केशव राम सिंघल
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