Wednesday, April 30, 2025

#107 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

11 / 01 

अर्जुन उवाचः 

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।। 


11 / 02 

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।


11 / 03 

एवमेतद्यथात्थ  त्वमात्मानं परमेश्वर।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।


11 / 04 

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।।


11 / 05 

श्रीभगवानुवाच - 

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।


11 / 06 

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।। 


11 / 07 

इहैकस्थं जगत् कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि।। 


11 / 08 

न तु मां शक्यसे द्रष्टुं अनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।। 


11 / 09

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः।  

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।। 


11 / 10 

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।  

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।। 


11 / 11 

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।  

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।। 


11 / 12  

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।  

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।। 


11 / 13 

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।  

अपश्यद् देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।। 


11 / 14

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।  

प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।। 


भावार्थ 


अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं - मुझ पर कृपा करके आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश दिया, उससे मेरा यह मोह (भ्रम) पूरी तरह दूर हो गया है। हे कमलनयन (भगवान् श्रीकृष्ण), मैंने आपसे सभी जीवों की उत्पत्ति और अंत के विषय में विस्तार से सुना, साथ ही आपके अविनाशी माहात्म्य को भी जाना। हे परमेश्वर, हे पुरुषोत्तम (भगवान् श्रीकृष्ण), आपने अपने बारे में जो कुछ कहा है, उस आपके दैवी स्वरूप को देखने की मेरी इच्छा है। हे प्रभो, हे योगेश्वर, यदि आप मानते हैं कि मैं आपके अविनाशी (विराट) स्वरूप को देखने में समर्थ हूँ, तो कृपा करके मुझे अपना वह स्वरूप दिखाएँ। 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - हे पार्थ (अर्जुन), अब मेरे सैकड़ों-हजारों प्रकार के दिव्य रूपों को देख, जो विभिन्न रंग और आकृति के हैं। हे भारत (अर्जुन), सूर्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनों और मरुतों को देखो। पहले कभी न देखे गए अनेक आश्चर्यों को देखो। हे गुडाकेश (अर्जुन), मेरे इस देह में समस्त विश्व को एक स्थान पर, चलायमान और अविचल सहित देख, और जो कुछ भी तू देखना चाहता है, वह भी देख। लेकिन तुम मुझे अपनी इन आँखों से नहीं देख सकते, अतः मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ, ताकि तुम मेरे दिव्य योग का दर्शन कर सको। 


संजय राजा धृष्टराष्ट्र से कहते हैं, हे राजा (धृतराष्ट्र), इस प्रकार कहकर महायोगेश्वर श्रीहरि (श्रीकृष्ण) ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यपूर्ण (विराट विश्वरूप) स्वरूप दिखाया। 


अर्जुन ने देखा कि भगवान् कृष्ण के अनेक मुख और नेत्र, अनेक आश्चर्यजनक दृश्य, अनेक दिव्य आभूषण और वे अनेक दिव्य शस्त्र उठाए हुए थे। विश्वरूप में दिव्य मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए, दिव्य सुगंध से सुशोभित, सब कुछ आश्चर्य से भरपूर, अनंत और सर्वत्र व्याप्त था। यदि आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदय हो जाए, तब भी वह उस महात्मा के विश्वरूप के तेज की समानता नहीं कर सकता। उस समय पाण्डव (अर्जुन) ने देवदेव (श्रीकृष्ण) के शरीर में ब्रह्माण्ड को एक स्थान पर, अनेक रूपों में विभक्त देखा। तब मोह और आश्चर्य से भरपूर अर्जुन के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने सिर झुकाकर देव (श्रीकृष्ण) को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोलना शुरू किया।


प्रसंगवश 


गीता अध्याय 11 के पहले चार श्लोकों में अर्जुन की जिज्ञासा, भक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण का चित्रण है। इसके बाद के चार श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार करते हैं और अपने विराट स्वरूप के दर्शन की तैयारी करते हैं, लेकिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि इसके लिए दिव्य दृष्टि आवश्यक है। यह खंड भगवान के सर्वव्यापी, अनंत और ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप को समझने का आधार तैयार करता है। इन श्लोकों से हमें यह सीख मिलती है कि ईश्वर का सच्चा स्वरूप केवल भक्ति, विनम्रता और उनकी कृपा से ही देखा जा सकता है। सामान्य दृष्टि से परे, आध्यात्मिक दृष्टि की आवश्यकता होती है। 


गीता अध्याय 11 के श्लोक 9 से 14 तक भगवान् कृष्ण के विराट विश्वरूप का प्रारंभिक वर्णन है। संजय श्रीकृष्ण के विश्वरूप को अनंत, भव्य, तेजस्वी और सर्वसमावेशी बताते हैं, जिसमें असंख्य मुख, नेत्र, आभूषण, शस्त्र और विश्व के सभी तत्त्व समाहित हैं। अर्जुन इस दर्शन से अभिभूत होकर भक्ति और विस्मय के साथ प्रणाम करते हैं। यह खंड भगवान की अनंतता, सर्वव्यापकता और ऐश्वर्य को रेखांकित करता है। भगवान् के विराट विश्वरूप का दर्शन हमें सिखाता है कि ईश्वर सृष्टि का स्रोत और उसका समग्र स्वरूप हैं। उनकी महिमा मानव बुद्धि से परे है।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Tuesday, April 29, 2025

गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता ज्ञान - 01 - तीन योग और परमात्मा की सर्वव्यापकता

गीता अध्ययन एक प्रयास 

गीता ज्ञान - 01 - तीन योग और परमात्मा की सर्वव्यापकता

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तीन योग हैं - कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग। 


शरीर (अपरा, परिवर्तनशील) को लेकर कर्मयोग है। शरीरी अर्थात् आत्मा (परा, अपरिवर्तनशील) को लेकर ज्ञानयोग है। शरीर और शरीरी (आत्मा) दोनों के मालिक भगवान् हैं, इसको लेकर भक्तियोग है। 


यह मेरा सौभाग्य है की पिछले कुछ समय से गीता अध्ययन का सुअवसर मुझे मिला है। 


परमात्मा = ब्रह्म = भगवान् = ईश्वर 


परमात्मा अनंत हैं। उनका सबकुछ अनंत है। भगवान् श्रीकृष्ण के मुख़ारविन्द से निकली गीता के श्लोकों के भाव (अर्थ) भी अनंत हैं। गीता उपनिषदों का सार है। वास्तव में देखा जाए तो गीता में जो कहा गया है, वह उपनिषदों से भी विशेष है। गीता का तात्पर्य है - वासुदेव सर्वम् अर्थात् भगवान् सभी में विद्यमान हैं। तात्पर्य है कि सत्, असत् और उससे परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा का ही है। यह विचार "वासुदेव सर्वम्" (सब कुछ भगवान हैं)भगवद्गीता के अध्याय 7, श्लोक 19 में भी प्रतिबिंबित होता है, जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं - "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यति। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।" (अनेक जन्मों के अंत में ज्ञानवान व्यक्ति मुझे प्राप्त करता है, यह जानकर कि वासुदेव ही सब कुछ है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।) संसार हमें राग के कारण दीखता है। राग के कारण दूसरी सत्ता दीखती है। राग न हो तो यह संसार कुछ नहीं, केवल ब्रह्म ही है। यदि हम राग-द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा से हमारा साक्षात्कार हो जाएगा, ऐसी संभावना है। सब कुछ परमात्मा ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और गीता समग्र की वाणी है। जो जिस विचार, मनोभाव से गीता को पढ़ता है, उसे गीता वैसी ही लगती है। 


इस आलेख में गीता के तीन प्रमुख योगों—कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग—को परिभाषित किया है - 


- कर्मयोग - शरीर (अपरा, जड़, परिवर्तनशील) से संबंधित है, जो निष्काम कर्म पर जोर देता है।

- ज्ञानयोग - आत्मा (परा, चेतन, अपरिवर्तनशील) के स्वरूप को समझने का मार्ग है।

- भक्तियोग - शरीर और आत्मा दोनों के स्वामी भगवान के प्रति समर्पण का मार्ग है।


गीता असीम है और गीता में जो भाव भरा है, वह बुद्धि में पूरा समझ नहीं आ पाता, इसलिए जो कुछ मैंने यहां सम्प्रेषित किया वह भाव मेरे अंतःकरण में आया और यह भाव न तो अंतिम है और न ही अंतिम हो सकता है। 


ॐ तत् सत्। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 


#106 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

10 / 35 

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्द्सामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽमृतूनां कुसुमाकरः।। 


10 / 36 

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्वतामहम्।। 


10 / 37 

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः। 

मुनॆनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।। 


10 / 38 

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मी जिगीषताम्। 

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 


10 / 39 

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। 

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। 


10 / 40 

नान्तोस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।  

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 


10 / 41 

यद्यद्विभुमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। 

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोन्ऽशसम्भवम्।। 


10 / 42 

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। 

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितोजगत्।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और समासों (छंदों) में गायत्री हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष (अगहन - नवम्बर-दिसंबर) और समस्त ऋतुओं में कुसुमाकर (वसंत ऋतू) हूँ। मैं धूर्तों (छल करने वालों) में जुआरी हूँ, और वैभवशाली लोगों में वैभव हूँ। मैं विजय हूँ, मैं दृढ संकल्प हूँ, मैं सत्वों में सत्व हूँ। मैं वृष्णि कुल में वासुदेव और पांडवों में अर्जुन हूँ। मैं ऋषियों में व्यासदेव हूँ और कवियों (विचारको) में उशना (शुक्राचार्य) हूँ। अराजकता रोकने के लिए मैं सजा हूँ, औरविजय की आकांक्षा करने वालों की नीति हूँ। मैं रहस्यों के बीच मौन हूँ, और बुद्धिमानों के बीच ज्ञान हूँ। हे अर्जुन, जो समस्त जीवों का जनक बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं है, चाहे वह चलायमान हो या अविचल। 

हे शत्रुओं को विजय पाने वाले (अर्जुन), मेरी दिव्य महिमा का कोई अंत नहीं है। इस उद्देश्य से मैंने अपनी महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह जो भी तेजस्वी ऐश्वर्य है, तुम जान लो कि वह मेरी महिमा का एक अंश मात्र से उत्पन्न हुआ है। हे अर्जुन, यह सब जानो कि अपने एक अंश मात्र से पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर मैं इसको धारण करता हूँ।  

(गीता दशम अध्याय समाप्त) 


प्रसंगवश 


गीता का यह खंड यह समझने के लिए है कि भगवान सर्वत्र और सर्वस्व हैं। प्रत्येक श्रेष्ठ, तेजस्वी, और शक्तिशाली वस्तु या गुण उनकी महिमा का एक अंश है। यह अध्याय भक्तों को यह प्रेरणा देता है कि वे हर जगह और हर रूप में भगवान की उपस्थिति को देखें और उनके प्रति श्रद्धा रखें। यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि भगवान की महिमा को समझने के लिए हमें अपने आसपास की श्रेष्ठता, सुंदरता, और शक्ति में उनकी उपस्थिति को देखना चाहिए। यह हमें नम्रता और भक्ति के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देता है।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Sunday, April 27, 2025

#105 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 

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प्रतीकात्मक चित्र भगवान् श्रीकृष्ण - साभार NightCafe

10 / 26 

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। 

गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।। 


10 / 27 

उच्चैः श्रवसमश्वानांविद्धि माममृतोद्भवम्। 

एरावतं  गजेन्द्राणा नराणां च नराधिपम्।। 


10  / 28 

आयुधानामहं वज्रं धेनुनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।


10 / 29 

अनन्ताश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। 

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।। 


10 / 30 

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कल्यत्यामहम्। 

मृगाणां च म्रगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।। 


10 / 31 

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्। 

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।  


10 / 32 

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन। 

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।। 


10 /33 

अक्षराणामकारोऽस्मि  द्वन्द्वः सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः।। 


10 / 34 

मृत्युः सर्वहारश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम। 

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


मैं सभी वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल का वृक्ष) तथा देवताओं और ऋषियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ और सिद्ध पुरुषों में ऋषि कपिल हूँ। समुद्र मंथन से उत्पन्न अश्वों में मुझे उच्चैःश्रवा अश्व जानो, हाथियों में मैं ऐरावत हूँ और मनुष्यों में राजा हूँ। शस्त्रों में मैं वज्र हूँ और गौओं में कामधेनु हूँ। संतान उत्पत्ति के लिए मैं ही प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में वासुकि हूँ। अनेक फनों वाले नागों में मई अनन्त (शेषनाग) हूँ और जलचरों में वरुण हूँ। मैं पितरों में अर्यमा नामक पितृ हूँ और समस्त नियमन के निर्वाहकों  में मैं मृत्यु का नियामक यम हूँ। मैं ही दैत्यों (असुरों) में प्रह्लाद हूँ, और गणना करने वालों का समय (काल) हूँ। मैं पशुओं में सिंह (शेर) और पक्षियों में वैनतेय (गरुड़) हूँ। मैं पवित्र करने वालों में वायु हूँ और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ। मछलियों में मैं मगर हूँ; मैं नदियों में जाह्नवी (गंगा) हूँ। हे अर्जुन, मैं ही समस्त सृष्टि का आदि, अन्त और मध्य हूँ।

समस्त विद्याओं में आध्यात्मिक ज्ञान हूँ, और तर्कों में निर्णय हूँ। मैं अक्षरों में अकार (ओङ्कार) और समासों में द्वंद्व समास हूँ। मैं ही अक्षय काल हूँ, सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा), सर्वव्यापी हूँ। मैं सबकी पराजय  मृत्यु हूँ, तथा भविष्य का पुनरुत्थान (उत्पन्न करने वाला) हूँ। स्त्रियों में प्रसिद्धि, सुन्दरता, वाणी, स्मृति, बुद्धि, धैर्य और क्षमा हूँ।


प्रसंगवश 


इन श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अपनी महिमा को प्रकट करते हुए कहते हैं कि वे सभी चीजों में सर्वोच्च या अद्वितीय रूप में विद्यमान हैं, जैसे - (1) प्रकृति में - पीपल वृक्ष, गंगा नदी, वायु, सिंह, गरुड़, मकर, (2) देवताओं और प्राणियों में - नारद, कपिल मुनि, चित्ररथ, वासुकि, शेषनाग, वरुण, यम, प्रह्लाद, (3) मानव और सामाजिक क्षेत्र में - राजा, श्रीराम, कामदेव, (4) आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षेत्र में - आध्यात्मिक ज्ञान, ओङ्कार, द्वंद्व समास, मृत्यु, काल, सृष्टिकर्ता, (5) स्त्रियों के गुणों में: कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा।


इन श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण यह संदेश दे रहे हैं कि वे सृष्टि के प्रत्येक पहलू में, चाहे वह प्रकृति, प्राणी, गुण, या समय हो, सर्वत्र व्याप्त हैं। यह अर्जुन को यह समझाने के लिए है कि ईश्वर केवल एक सीमित रूप में नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि में उनकी उपस्थिति है।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Saturday, April 26, 2025

#104 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 

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10 / 22 

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। 

इन्द्रियाणां मनश्चस्मि भूतानामस्मि चेतना।। 


10 / 23 

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्। 

वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।। 


10 / 24 

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ ब्रहस्पतिम्। 

सेनानीना स्कन्दः सरसामास्मि सागरः।।


10 / 25 

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


वेदों में मैं सामवेद हूँ; देवताओं में मैं वासव (इंद्र) हूँ, मैं इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों (जीवों) की चेतना (प्राण-शक्ति, ज्ञान-शक्ति) हूँ। मैं रुद्रों में शंकर हूँ, तथा यक्ष-राक्षसों में धन का स्वामी हूँ। मैं वसुओं में अग्नि हूँ और शिखरों में सुमेरु पर्वत हूँ। हे पार्थ (अर्जुन), तू मुझे पुरोहितों में प्रधान ब्रह्मा जान। मैं सेनापतियों में स्कन्द (कार्तिकेय) हूँ और मैं जलाशयों में सागर हूँ। मैं महिर्षियों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर (ओङ्कार) हूँ। सभी प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वाला हिमालय मैं हूँ। 


प्रसंगवश 


वेद, दुनिया के सबसे प्राचीन लिखित धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं, जिन्हें संस्कृत में "विद्" (ज्ञान) शब्द से लिया गया है। वेद हिंदू धर्म के मूल हैं और ये चार हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों में सामवेद की प्रधानता है, तथा यह ग्रन्थ भगवान् की मधुर संगीतमय स्तुतियों से भरा पड़ा है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु आदि जितने भी देवता हैं, उनमें वासव (इंद्र) प्रमुख हैं।  मन अन्य दस इन्द्रियों (आँख, कान, त्वचा, जीभ, नाक, वाक्, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा) का स्वामी और प्रेरक है। ग्यारह रूद्र बताए जाते हैं - हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित वृषाकपि, शम्भु (शंकर), कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली। आठ वसु बताए जाते हैं - धर, ध्रुव, सोम, अहः, अनिल, अनल (अग्नि), प्रत्यूष, और प्रभास। सुमेरु पर्वत को नक्षत्र और दीपों का केंद्र तथा सुवर्ण और रत्नों का भण्डार माना जाता है, इस प्रकार इसे अन्य पर्वतों से श्रेष्ठ माना जाता है। 


स्कंद (कार्तिकेय) एक प्रमुख हिंदू देवता हैं, जिन्हें युद्ध और विजय का देवता माना जाता है। ये भगवान शिव और पार्वती के पुत्र हैं और गणेश के भाई हैं। इन्हें देवताओं के सेनापति के रूप में भी जाना जाता है।  जपयज्ञ की सादगी और शक्ति भगवान की सर्वसुलभ भक्ति को रेखांकित करती है। हिमालय की अटलता और विशालता भगवान की स्थिरता और महानता का प्रतीक है।


भगवान् गीता अध्याय 10 में 20 से 39 तक अपने 82 रूपों का वर्णन करते हैं, जिसमें वे अपनी विभूतियों (दिव्य अभिव्यक्तियों) का बोध कराते हैं, जो विश्व में सर्वश्रेष्ठ और प्रमुख रूपों में प्रकट होती हैं।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Monday, April 21, 2025

प्रसंगवश - शब्द की शक्ति - सृष्टि से भक्ति

 प्रसंगवश - 

शब्द की शक्ति - सृष्टि से भक्ति

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

शब्द केवल ध्वनि नहीं, बल्कि सृष्टि का मूल और जीवन का प्रेरक है। वैदिक दर्शन और आधुनिक विज्ञान दोनों ही शब्द की उत्पत्ति को ब्रह्मांड के प्रारंभ से जोड़ते हैं। यह आलेख शब्द की शक्ति को वैदिक, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करता है।


वैदिक मान्यताओं के अनुसार, सृष्टि के प्रारंभ में केवल 'तत्' (ब्रह्म) था। यह ब्रह्म निराकार और निर्गुण था। शब्द की उत्पत्ति ब्रह्म के साथ हुई, जो सृष्टि का आधार बना। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है, "शब्द ही ब्रह्म है।"  विज्ञान के अनुसार, 13.8 अरब वर्ष पहले बिग बैंग ने ब्रह्मांड को जन्म दिया। इस विस्फोट के साथ अंतरिक्ष, समय और ऊर्जा का निर्माण हुआ। प्रारंभिक ब्रह्मांड में ध्वनि तरंगों ने कणों को आकार दिया, जो शब्द की वैदिक अवधारणा से साम्य रखता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि बिग बैंग के बाद उत्पन्न ध्वनि तरंगें (कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड) ने ब्रह्मांड के प्रारंभिक ढांचे को आकार दिया, जो वैदिक शब्द की सृजनात्मक शक्ति से मिलता-जुलता है। इस प्रकार, वैदिक और वैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोण शब्द को सृष्टि का मूल मानते हैं, जो हमारे जीवन में भी गहरा प्रभाव डालता है।


शब्द कानों से हृदय तक पहुँचता है। सोते हुए व्यक्ति को नाम से पुकारकर जगाने की शक्ति शब्द में निहित है। यह अज्ञान को दूर कर चेतना को जागृत करता है। इसी तरह, सकारात्मक शब्द, जैसे भक्ति भरे भजन या प्रेरक भाषण, जीवन को बदल सकते हैं। महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्य के प्रेरणादायी शब्दों ने लाखों लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में प्रेरित किया। वैदिक मंत्रों (जैसे, गायत्री मंत्र) का उच्चारण मन और आत्मा को शुद्ध करने के साथ शांति देता है। रामचरितमानस और गीता के शब्द हमें आध्यात्मिक मार्ग पर ले जाते हैं, जिससे मन और आत्मा शुद्ध होते हैं। साहित्यकारों के शब्द समाज को गहराई से प्रभावित करते हैं। वे समाज का प्रतिबिंब होने के साथ-साथ इसे आकार देते हैं, नए विचार जन्म देते हैं, और रूढ़ियों को चुनौती देते हैं। उदाहरण के तौर पर, कबीर के दोहे आज भी हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं। यदि शब्दों में अपशब्द या नकारात्मक भाषा का उपयोग हो तो यह मानसिक और सामाजिक नुकसान भी कर सकता है। उदाहरण के लिए, अपशब्द या नकारात्मक भाषा तनाव, वैमनस्य और सामाजिक दूरी को बढ़ा सकती है।


हमें शब्द की शक्ति के सकारात्मक इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए कि यदि हम भगवान् की भक्ति स्वरूप भगवान् के विषय में सुने तो भगवान् की असीम कृपा हम पर बरसेगी। सकारात्मक शब्द (जैसे प्रेरणादायक भाषण या दयालु बातें) भी हमारे जीवन में बदलाव ला सकते हैं। शब्द केवल ध्वनि नहीं, बल्कि सृष्टि की शक्ति है। इसका सकारात्मक उपयोग हमें न केवल आध्यात्मिक रूप से समृद्ध करता है, बल्कि समाज और संसार को भी बेहतर बनाता है। शब्द ब्रह्मांड की ध्वनि और जीवन की प्रेरणा है। भगवान की भक्ति में शब्द का उपयोग हमें उनकी कृपा का पात्र बनाता है। आइए, अपने शब्दों को प्रेम, सत्य और भक्ति का माध्यम बनाएँ, ताकि हम एक बेहतर संसार का निर्माण करें।


सादर,

केशव राम सिंघल 

#शब्दकीशक्ति, #वैदिकदर्शन, #आध्यात्मिकता, #प्रेरणा 

#103 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 
जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 





















10 / 19 
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः। 
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। 

10 / 20 
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। 

10 / 21 
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्। 
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।। 

भावार्थ 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 

ओह, मैं तुम्हें आत्मा की दिव्य महिमा के बारे में बताऊँगा। हे कुरुश्रेष्ठ (अर्जुन), मेरी प्राथमिकताओं के विषय में मेरे विवरण का कोई अंत नहीं है। हे गुडाकेश (निद्रा पर विजय पाने वाले अर्जुन), मैं सभी प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला आत्मा हूँ। मैं ही सभी प्राणियों का आदि (उद्गम), मध्य और अन्त हूँ। मैं सूर्यों (आदित्यों, अदिति के पुत्रों) में विष्णु हूँ, तथा प्रकाश किरणों वाला सूर्य हूँ। मैं मरुतों में मरीचि हूँ; मैं तारों का अधिपति चन्द्रमा हूँ। 

प्रसंगवश 

भगवान् की महानता, वैभव और ऐश्वर्य को समझ पाना हमारे लिए संभव नहीं है। हम जीव हैं और हमारी इन्द्रियाँ सीमित हैं। भगवान का स्वरूप अनंत और सर्वव्यापी है। वे सृष्टि के प्रत्येक कण में, प्रत्येक शक्ति और प्राकृतिक तत्व में विद्यमान हैं। यह समझ हमको अपनी सीमितता को पार कर ईश्वर की महानता के प्रति श्रद्धा और समर्पण की ओर ले जाती है।

अब हम आदित्यो और मरुतों के बारे में जानने का प्रयास करेंगे। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार जब असुरों ने देवताओं पर आक्रमण किया था, उस समय आदित्यों ने देवताओं की रक्षा की थी। आदित्य देवी अदिति और ऋषि कश्यप के पुत्र थे, जिनकी संख्या बारह है। इन्हें द्वादश आदित्य कहा जाता है। ये बारह पुत्र सूर्य के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये बारह आदित्य हैं - (1) विष्णु, (2) धाता, (3) मित्र, (4) अर्यमा, (5) शक्र, (6) वरुण, (7) अंश, (8) भग, (9) विवस्वान, (10) पूषा, (11) सविता, और (12) त्वष्टा। विष्णु आदित्यों में विशिष्ट और सर्वोच्च हैं और वे विश्व के पालनकर्ता हैं। प्रत्येक माह सूर्य का एक विशिष्ट रूप पूजा जाता है। 

अब हम मरुतों के बारे में जानेंगे। मरुत वायु के देवता हैं और इंद्र के सहयोगी माने जाते हैं। ये देवी दिति और ऋषि कश्यप के पुत्र थे। इनकी संख्या उनचास थी, जो सात समूहों में बँटे हुए थे। प्रत्येक समूह में सात मरुत थे। मरीचि को सभी मरुतों का प्रमुख माना जाता था।  कहा जाता है कि जब दिति गर्भवती थीं, तब इंद्र ने उनके गर्भ को सात भागों में विभक्त कर दिया था और प्रत्येक भाग से सात मरुत उत्पन्न हुए, इस प्रकार इनकी संख्या उनचास हुई। मरुत इंद्र की सेना के भाग हैं और उन्हें वायु, तूफ़ान और प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक माना जाता है। वे शक्तिशाली, तेजस्वी और युद्धप्रिय हैं। वे वर्षा लाने और प्रकृति को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

सार रूप में हम कह सकते हैं कि आदित्य सूर्य के रूप और देवताओं के रक्षक हैं और मरुत वायु और तूफ़ान के देवता हैं, जो प्रकृति की गतिशीलता को नियंत्रित करते हैं। आदित्य और मरुत दोनों ही ब्रह्माण्ड के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  

दिति - असुरों की माता 
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 कश्यप की दूसरी पत्नी दिति से दानवों (असुरों) का जन्म हुआ, जैसे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। अदिति की संतानें (देवता) और दिति की संतानें (दानव) परस्पर विरोधी थीं। ,,,,,,,,,, एक कथा में, दिति ने गर्भ में शक्तिशाली पुत्रों को जन्म देने की इच्छा की, जो इंद्र से भी बलशाली हों। इंद्र ने दिति के गर्भ को सात भागों में विभक्त कर दिया, जिससे मरुत (वायु के देवता) उत्पन्न हुए। दिति ने दानवों और देवों दोनों को उत्पन्न किया। 
 
इस सन्दर्भ में निम्न जानकारी पता चलती है - 

- दिति ने दानवों (हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष आदि) और मरुतों (वायु के देवता) दोनों को जन्म दिया।
- दानव दिति की सामान्य संतानें थीं, जो असुर-स्वभाव की थीं।
- मरुत एक अपवाद थे, जो इंद्र के हस्तक्षेप के कारण देवता बने और इंद्र के सहयोगी रहे।

इस प्रकार, दिति की संतानें संदर्भ और परिस्थितियों के आधार पर देव और दानव दोनों ही थे, लेकिन उनकी प्राथमिक भूमिका असुरों की माता के रूप में रही।

सादर,
केशव राम सिंघल 

Friday, April 18, 2025

#102 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 












10 / 10 

तेषा सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। 

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।। 


10 / 11 

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। 

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भावस्था। 


अर्जुन उवाच 


10 / 12 

परं बृह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्। 

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ।। 


10 / 13 

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा। 

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।। 


10 / 14 

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। 

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।। 


10 / 15 

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। 

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।। 


10 / 16 

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः। 

याभिर्विभूति भिरलोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।। 


10 / 17 

कथं विद्यामहं योगिनस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। 


10 / 18  

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। 

भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।

 

भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जो व्यक्ति निरंतर प्रेमपूर्वक मेरी पूजा में लगे रहते हैं, मैं उसे बुद्धियोग (ज्ञान) देता हूँ, जिससे वह मुझे प्राप्त करता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है। मेरे भक्त पर कृपा करने के लिए उसके ह्रदय में स्थित अज्ञान का अन्धकार प्रकाशयुक्त ज्ञान के दीपक से दूर करता हूँ। 


अर्जुन श्रीकृष्ण भगवान् से कहते हैं - 


आप ही परम ब्रह्म (भगवान्), परम धाम, पवित्र और परम पुरुष हैं। आप शाश्वत (सनातन, नित्य रहने वाले) दिव्य, पुरुष, परमात्मा, आदि ईश्वर, अजन्मा और सर्वव्यापक (सभी जगह रहने वाले, सर्वशक्तिमान) हैं। ऐसा आपके बारे में सभी ऋषि , देवर्षि, नारद, असित, देवल और व्यास कहते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे कह रहे हो। हे केशव (श्रीकृष्ण) जो कुछ तुम मुझसे कह रहे हो, मुझे लगता है कि वह सब सत्य है। हे प्रभु, आपके व्यक्तिम् (स्वरूप) को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव। हे भूतभावन (सभी के उद्गम), प्राणियों के रचयिता, सभी प्राणियों के स्वामी, सभी देवताओं के देवता, ब्रह्मांड के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप अपने आप को स्वयं ही जानते हो। जिस महिमा से आप इन लोकों में व्याप्त हैं, उन सभी बातों को विस्तार से बताइये, क्योंकि आत्मा की महिमा दिव्य है। हे भगवान् (श्रीकृष्ण), मैं योगी होकर सदैव आपका चिंतन करते हुए आपको कैसे जान सकता हूँ? किन-किन भावों में आपका चिंतन (स्मरण) किया जा सकता है? हे जनार्दन (श्रीकृष्ण), आप अपना सामर्थ्य और ऐश्वर्य विस्तार से कहो क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनकर मेरी तृप्ति नहीं हुई है अर्थात् मैं और सुनना चाहता हूँ। 


सार 


भगवान श्रीकृष्ण सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों में व्याप्त हैं। वे भक्ति और ज्ञान के माध्यम से भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं, जबकि अर्जुन उनकी महानता को समझकर उनके बारे में और जानने की उत्सुकता व्यक्त करते हैं। यह भक्ति, ज्ञान, और परमात्मा की महिमा के प्रति श्रद्धा का सुंदर समन्वय है। अर्जुन का प्रश्न भक्त की जिज्ञासा को दर्शाता है, जो परमात्मा के स्वरूप को गहराई से समझना चाहता है।


चिंतन 


हमें श्रीकृष्ण की उन विभूतियों का ध्यान करना चाहिए, जो प्रकृति, मानव जीवन, और विश्व में उनकी उपस्थिति को दर्शाती हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य, चंद्र, अग्नि, या मानव हृदय में विद्यमान विवेक उनकी विभूतियाँ हैं।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Wednesday, April 16, 2025

दैनिक जीवन में भक्ति

दैनिक जीवन में भक्ति 

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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

जय श्रीकृष्ण 🙏


कैसे करें प्रभु की भक्ति ये प्रश्न मुझे बार-बार उद्वेलित करता है,

भगवद्गीता भक्ति और समर्पण के साथ जीने की प्रेरणा देता है, 

कुछ मिनट करो भगवान का जप या उनके स्वरूप का चिंतन,

भक्तों के साथ करो संगति और चर्चा यही भक्ति  ज्ञान लेना है। 


सुबह या शाम 5-10 मिनट भगवान के नाम का करें जप, 

"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" या "हरे कृष्ण" पढ़े यह मंत्र,

श्रीकृष्ण बाल स्वरूप और बाल लीलाओं का करें स्मरण, 

भगवद्गीता उपदेश ज्ञान का करें दिल को शांत कर मनन। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 


#101 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 
जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 
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10 / 6 
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तया। 
मद्भावा मानसा जाता येवां लोक इमाः प्रजाः।। 

10 / 7 
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। 
सोविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। 

10 / 8 
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। 
आईटीआई मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। 

10 / 9 
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। 
कथ यन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।। 

भावार्थ 

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 
 
बहुत पहले सात महान ऋषि, चार मनु ऋषि से इस संसार के ये प्राणी मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो व्यक्ति मेरी विलक्षण शक्ति और सामर्थ्य को और योग को भली प्रकार जानता है, वह मेरी अनन्य भक्ति में लग जाता है। मैं सभी चीज़ों (संसार, प्रकृति, जड़-चेतन आदि) का स्रोत हूँ और सभी चीज़ें मुझसे ही निकलती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति मुझे ऐसा मानकर अपना भाव रखते हुए मेरी आराधना करते हैं। जिस व्यक्ति में मेरा मन लगा है और जिसने मुझमें जीवन अर्पित कर दिया है, वे एक दूसरे को मेरे गुण, प्रभाव आदि का ज्ञान करती और कहते हुए सदैव संतुष्ट रहते हैं और मुझमें आनंदित रहते हैं। 

प्रसंगवश 

श्लोक 10/6 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में सात महर्षि और चार मनु उनके मन से उत्पन्न हुए, और इनसे ही समस्त लोगों की उत्पत्ति हुई। यहाँ भगवान अपनी सृष्टिकर्ता शक्ति को प्रकट करते हैं। "मद्भावा" और "मानसा जाता" शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि की रचना भगवान के संकल्प से हुई है। यह श्लोक उनकी सर्वोच्चता और सृष्टि के मूल स्रोत होने का बोध कराता है। यह श्लोक हमें बताता है कि समस्त सृष्टि भगवान की इच्छा और संकल्प का परिणाम है। यह हमें भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता की ओर ध्यान आकर्षित करता है। सात महर्षि और चार मनु प्रतीकात्मक रूप से सृष्टि के प्रारंभिक बुद्धिमान और नियामक तत्वों को दर्शाते हैं, जो भगवान के ही अंश हैं।

श्लोक 10/7 में भगवान् श्रीकृष्ण भक्ति और योग तत्व के बारे में कहते हैं। यहाँ वे ज्ञान और भक्ति के संयोग को रेखांकित करते हैं। भगवान् की महिमा को समझना (ज्ञान) भक्ति का आधार बनता है, जो मनुष्य को अटल विश्वास की ओर ले जाता है। यह ज्ञान हमें प्रेरित करता है कि भगवान के स्वरूप और शक्तियों का चिंतन करने से हमारी भक्ति दृढ़ होती है।

श्लोक 10/8 भगवान् की सर्वोच्चता को स्थापित करता है और यह दर्शाता है कि सच्चा ज्ञान भक्ति में परिणत होता है। भक्ति केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि हृदय की भावना और समर्पण से युक्त होनी चाहिए।

श्लोक 10 / 6 में भगवान् के भक्त के बारे में छह बाते कही गई हैं। भक्त के ये गुण भक्ति के आदर्श स्वरूप को प्रकट करते हैं, जो निम्न हैं - 

(1) मच्चित्ता - जिनका मन भगवान् में जो रम गया है  । 
(2) मद्गतप्राणाः - भगवान् को जिसने अपना जीवन अर्पित कर दिया। 
(3) बोधयन्तः परस्परम् - जो एक-दूसरे को भगवान के गुणों का ज्ञान देते हैं।
(4) कथयन्तः - जो भगवान् की महिमा का कथन करते हैं।
(5) तुष्यन्ति - जो सदा संतुष्ट रहते हैं।  
(6) रमन्ति - जो भगवान् में आनंदित रहते हैं। 

 यहाँ भक्ति के सामाजिक और व्यक्तिगत आयामों को दर्शाया गया है। भक्त न केवल स्वयं भगवान् में लीन रहते हैं, बल्कि दूसरों को भी उनके गुणों का बोध कराते हैं। भक्त का जीवन संतुष्टि और आनंद से परिपूर्ण होता है, क्योंकि उनका ध्यान भौतिक सुखों से हटकर भगवान् पर केंद्रित  रहता है। 

सार सन्देश 

इन श्लोकों का सार संदेश यह है कि भगवान ही सृष्टि के स्रोत, संचालक और अंतिम लक्ष्य हैं। उनकी महिमा को समझना और उनके प्रति भक्ति विकसित करना मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर आनंदमय जीवन की ओर ले जाता है। भक्ति केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक भी है, जहाँ भक्त एक-दूसरे को प्रेरित करते हैं और भगवान के गुणों का प्रचार करते हैं।

सादर,
केशव राम सिंघल

Tuesday, April 15, 2025

#100 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 10 - भगवान् की महिमा 









प्रतीकात्मक चित्र - भगवान् श्रीकृष्ण - साभार NightCafe 


10 / 1 

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः। 

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।। 


10 / 2 

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षय। 

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।। 


10 / 3 

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। 

असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।। 


10 / 4 

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। 

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। 


10 / 5 

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। 

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथाग्वधाः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


हे महाबाहु (अर्जुन), प्रिय मित्र,आगे मेरी बात सुनो। जो कुछ मैं तुम्हें कहूँगा वह तुम्हारे हित के लिए होगा। न तो देवतागण और न ही महान ऋषिगण मेरे मूल को जानते हैं, क्योंकि मैं ही समस्त देवताओं और महर्षियों का मूल हूँ। वह जो मुझे और जन्म के आरंभ को जानता है, वह व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। बुद्धि, ज्ञान, मोह, क्षमा, सत्य, संयम, शांति, सुख, दुःख, अस्तित्व, अभाव, भय, निर्भयता, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश, जीवों की ये अलग-अलग भावनाएँ मुझसे ही उत्पन्न होती हैं। 


प्रसंगवश 


गीता के दसवें अध्याय में भगवान् गुह्य ज्ञान अर्जुन को देते हैं। भगवान् परम शक्ति हैं, वे सम्पूर्ण शक्ति, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य और त्याग से युक्त हैं। भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है। वे ही समस्त कारणों के कारण हैं। हम प्राणी भगवान् के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि भगवान् ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के स्वामी हैं। वे सृष्टि से पूर्व भी थे और सृष्टि के प्रलय होने के बाद भी रहेंगे। भगवान ही समस्त सृष्टि के मूल कारण हैं। जो भगवान् को जान और समझ लेता है, वह अपने सभी पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है। 


जीवों के अच्छे और बुरे सभी गुण भगवान् द्वारा ही उत्पन्न किए गए हैं। गीता श्लोक 10 / 4 और 5 में बीस तरह के भावों को बताया गया है, जो निम्न हैं - 


(1) बुद्धि - सही-गलत का अंतर करने वाली विवेक-शक्ति ही बुद्धि है। 

(2) ज्ञान - ज्ञान का अर्थ है जान लेना। 

(3) असम्मोह - असम्मोह का अर्थ है मोह (संशय) से दूर होना।  

(4) क्षमा - क्षमा का अर्थ है कि सहिष्णु दूसरों की गलतियों को बिना दंड दिए सह लेना। 

(5) सत्य - जो जैसा है, वही बतलाना। तथ्यों और घटनाओं को सही बतलाना। 

(6) दम - इन्द्रियों का निग्रह (संयम)। 

(7) शम - मन का निग्रह (संयम। 

(8) सुख - शरीर, मन, इन्द्रियों के अनुकूल परिस्थिति के फलस्वरूप ह्रदय में होने वाली प्रसन्नता। 

(9) दुःख - शरीर, मन, इन्द्रियों के अनुकूल परिस्थिति के फलस्वरूप ह्रदय में होने वाली अप्रसन्नता। 

(10) भव - उत्पत्ति या जन्म। यहाँ जन्म का सम्बन्ध शरीर से है। 

(11) अभाव - विनाश या मृत्यु। यहाँ मृत्यु का सम्बन्ध भी शरीर से है। 

(12) भय - व्यक्ति के अंतकरण में अनिष्ट होने की आशंका, भविष्य की चिंता। 

(13) अभय - भय का नहीं रहना।  

(14) अहिंसा - तन, मन और वचन से किसी को कष्ट नहीं देना। 

(15) समता - अपने अंतकरण में कोई विषमता न आए, दूसरों के प्रति राग-द्वेष न रहे। 

(16) तुष्टि - संतुष्ट रहना चाहे मिले अथवा न मिले, अत्यधिक संग्रह के लिए उत्सुक न हो। 

(17) तप - तपस्या करना, अपने कर्तव्य का हर परिस्थिति में पालन करना। स्वेच्छा से उपवास करना भी एक प्रकार की तपस्या है। 

(18) दान - अपनी आय का कुछ भाग बिना किसी लाभ की आशा से शुभ कार्य में लगाना, निर्धन को आर्थिक मदद देना। 

(19) यश - अच्छे आचरण, भाव और गुण को लेकर होने वाली सांसारिक प्रशंसा या प्रसिद्धि। 

(20) अपयश - बुरे आचरण, भाव और गुण को लेकर होने वाली सांसारिक निंदा। 


भगवान् द्वारा बताए गए ये भाव हमारे जीवन के हर पहलू को दर्शाते हैं और हमें यह जानना चाहिए कि ये सभी गुण अंततः भगवान से ही उत्पन्न होते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि जीवन में संतुलन और समर्पण कितना महत्वपूर्ण है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


Sunday, April 13, 2025

#099 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 













9 /34 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। 

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण  अर्जुन से कहते हैं - 


अपने मन में मुझे याद करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार मुझ में समर्पित होकर और मुझ से एकाकार होकर, तू मुझे ही प्राप्त होगा।


प्रसंगवश 


श्लोक 9 /34 गीता अध्याय 9 का अंतिम श्लोक है। गीता का यह श्लोक भक्ति और समर्पण का गहन संदेश देता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि मन, भक्ति, पूजा और समर्पण के माध्यम से भगवान के साथ एकाकार होने से मोक्ष संभव है। इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण के ज्ञान का तात्पर्य है कि केवल भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ो ताकि कल्याण (मोक्ष) हो सके। यह हमारा दुर्भाग्य है या अज्ञानता कि हम परिवर्तनशील अपरा भौतिक जगत में बँध जाते हैं और सत्यता का अनुभव नहीं करते। हम अपने शरीर के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेते हैं और हमें शरीर का सुख-दुःख अपना सुख-दुःख लगता है। हमें शरीर से अलग अपने अस्तित्व का भान नहीं होता, यही हमारी अज्ञानता है। हमारी अज्ञानता हमें शरीर और भौतिक जगत से बांधती है, जबकि सत्य हमारा आत्मिक अस्तित्व है।


नवे अध्याय का सार 


सम्पूर्ण प्राणियों और इस जगत को उत्पन्न करने वाले भगवान् ही हैं। परा और अपरा प्रकृति भगवान् के नियंत्रण में है। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन (आश्रित) हैं और प्रकृति भगवान् के  अधीन (आश्रित) है। इस प्रकार हम सभी भगवान् के अधीन (आश्रित) हैं और हमें मोक्ष पाने के लिए अर्थात् जन्म-मरण चक्र से छूटने के लिए भगवान् की आराधना करने की जरुरत है, जिसमें भाव की प्रधानता है, न कि नियमों या विधियों की। यह संदेश कितना सरल और गहरा है कि नियमों से अधिक भाव की प्रधानता है। आइए, हम सब मिलकर भगवान का धन्यवाद करें और उनके प्रति अपनी भक्ति को और गहरा करें।  


सादर,

केशव राम सिंघल 


#098 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान













9 / 30 

अपि चेतसुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। 

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।। 


9 / 31 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति। 

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।। 


9 / 32 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। 

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 


9 / 33 

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। 

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 


भावार्थ 


यदि कोई दुराचारी मन वाला भी अनन्य भाव से (श्रद्धापूर्वक, बिना विचलित हुए) मेरी ही भक्ति करता है, तो ऐसे व्यक्ति को संत माना जाना चाहिए क्योंकि उसने सही निर्णय लिया है। ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही धर्मपरायण व्यक्ति बन शाश्वत शांति प्राप्त कर लेता है। हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), ऐसा मुझ से वादा करो कि मेरे भक्त (अर्जुन) का नाश नहीं होगा। हे पार्थ (अर्जुन), चाहे वह पापमय जन्म (पापयोनि) का ही क्यों न हो, मुझ पर भरोसा करने के कारण स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को प्राप्त करते हैं। पवित्र आचरण करने वाले समर्पित ब्राह्मण और राजर्षि (क्षत्रिय) का तो कहना ही क्या, इस सनातन और दुःखमय संसार में तू मेरी भक्ति कर।


प्रसंगवश 


गीता अध्याय 9 के 30 से 33 तक के श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया भक्ति मार्ग का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रासंगिक प्रतीत होता है। 


हमें यह जानना चाहिए कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश होने से तत्त्वतः वह निर्दोष है। प्रकृति (संसार) की आसक्ति के कारण उसमें कुछ दोष आ जाते हैं। यदि उसके मन में दोषों या पापों से घृणा हो जाए और ऐसा निश्चय हो जाए कि भगवान् की भक्ति करनी है तो ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही धर्मपरायण व्यक्ति बन जाता है। भक्त और भगवान् का सम्बन्ध रोगी और चिकित्सक जैसा है। निर्बल रोगी अपने चिकित्सक पर विश्वास करता है कि वही उसके रोग को मिटाने वाला है। हमें भी वैसा ही विश्वास भगवान् पर करना चाहिए। यदि भगवान् की कृपा और आश्रय हम पर है तो फिर हमारा पतन होने की संभावना बिलकुल भी नहीं है। पापयोनि में अन्य जीव, जैसे पशु, पक्षी आदि भी शामिल किए जा सकते हैं।  


गीता के अध्याय 9 के श्लोकों (30-33) में भगवान श्रीकृष्ण भक्ति के समावेशी और उदार स्वरूप के बारे में ज्ञान देते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति का मार्ग हर व्यक्ति के लिए खुला है, चाहे उसका जन्म, कर्म, सामाजिक स्थिति या अतीत कैसा भी रहा हो। कुछ प्रमुख बातें निम्न हैं -  


(1) अनन्य भक्ति की शक्ति (श्लोक 9.30) - इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि यदि कोई दुराचारी भी अनन्य भाव से उनकी भक्ति करता है, तो उसे संत माना जाना चाहिए। यह दर्शाता है कि भक्ति में हृदय की शुद्धता और निष्ठा सर्वोपरि है। व्यक्ति का अतीत और व्यक्ति की सामाजिक या आर्थिक स्थिति मायने नहीं है, यदि उसका संकल्प भगवान के प्रति दृढ़ है। यह भक्ति मार्ग की सहजता और सभी के लिए उसकी पहुँच को रेखांकित करता है।


(2) शीघ्र परिवर्तन और शांति (श्लोक 9.31) - यह श्लोक भक्ति के परिवर्तनशील प्रभाव को दर्शाता है। जो व्यक्ति भगवान की शरण लेता है, वह शीघ्र ही धर्मपरायण बन जाता है और शाश्वत शांति प्राप्त करता है। भगवान का यह आश्वासन कि "मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता" भक्त के लिए अटूट विश्वास का आधार बनता है। यह भक्त और भगवान के बीच गहन विश्वास और प्रेम के बंधन को दर्शाता है।


(3) सर्वसमावेशी भक्ति (श्लोक 9.32) - यह श्लोक भक्ति के लोकतांत्रिक स्वरूप को उजागर करता है। भगवान कहते हैं कि चाहे कोई भी पापयोनि (अर्थात् सामाजिक दृष्टि से निम्न समझे जाने वाले वर्ग) से हो, जैसे स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, या अन्य, जो भी उनकी शरण लेता है, वह परम गति को प्राप्त करता है। यह महाभारत काल के सामाजिक ढाँचे में क्रांतिकारी संदेश था, जो आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह भगवान् की ओर से हर तरह के भेदभाव को नकारता है। उनका सभी के लिए समान भाव है। 


(4) सभी के लिए प्रेरणा (श्लोक 9.33) - जब पापयोनि वाले (अर्थात् सामाजिक दृष्टि से निम्न समझे जाने वाले वर्ग) भी भक्ति से परम गति पा सकते हैं, तो पवित्र ब्राह्मणों और राजर्षियों (क्षत्रियों) के लिए यह और भी सहज है। भगवान कृष्ण अर्जुन को इस नश्वर, दुखमय संसार में उनकी भक्ति करने का आह्वान करते हैं। यह श्लोक भक्ति को सभी के लिए एकमात्र सच्चा मार्ग बताता है, जो जीवन को अर्थ और शांति प्रदान करता है।

 

आज के समय में प्रासंगिकता 


आज के समय में लोग सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत भेदभाव से जूझ रहे हैं, ऐसे में गीता के ये श्लोक लोगों में आशा का संचार करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का यह कथन कि कोई भी उनकी शरण लेकर परम गति पा सकता है, व्यक्ति को अपनी कमियों या सामाजिक बाधाओं से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। भगवान् श्रीकृष्ण इन श्लोकों में भक्ति को कर्म से जोड़ते हैं। भगवान् कर्म को भक्ति के साथ जोड़कर उसे शुद्ध करने का ज्ञान देते हैं। यह गीता के ज्ञान में कर्मयोग और भक्तियोग के समन्वय को दर्शाता है। श्लोक 9.31 में "शाश्वत शांति" का उल्लेख गीता के उस दर्शन को इंगित करता है, जहाँ शांति केवल बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि वह आंतरिक समर्पण और भगवान के साथ भक्ति द्वारा स्थापित एकता से प्राप्त हो सकती है। यह आज के तनावपूर्ण जीवन में विशेष रूप से प्रासंगिक है।


सार 

 

भगवान श्रीकृष्ण का यह संदेश कि उनकी शरण में कोई भी असफल नहीं होता, हर व्यक्ति के लिए प्रेरणादायी है। हमें यह पता चलता है कि भगवान् की भक्ति में न तो भेदभाव है, न ही कोई सीमा। यह एक ऐसा मार्ग है, जो हर जीव को परमात्मा से जोड़ सकता है। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


Friday, April 11, 2025

#097 - गीता अध्ययन एक प्रयास - कर्मों का समर्पण और निष्काम कर्म

गीता अध्ययन एक प्रयास 
जय श्रीकृष्ण
गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान
कर्मों का समर्पण और निष्काम कर्म 
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प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe 

गीता में यह ज्ञान दिया गया है कि जो व्यक्ति (भक्त) अपने सभी कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देता है, वह पूरी तरह से मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त होता है अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्त होता है यानी कि वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। निष्काम कर्म से तात्पर्य ऐसे कर्म से है जो फल की इच्छा के बिना किए जाते हैं। इस सन्दर्भ में गीता श्लोक 9 /  27 से 29 का अध्ययन करना चाहिए, जिससे हमें निम्न शिक्षाएँ मिलती हैं - 

(1) कर्मों का समर्पण हमारे हित में है। सभी कार्य भगवान को अर्पित करने से कर्मबंधन टूटता है।
(2) हमें निष्काम भावना से कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा त्यागकर कार्य करना मोक्ष का मार्ग है।
(3) भगवान सभी के प्रति समान हैं, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं। 
(4) संन्यास और भक्ति के माध्यम से भगवान की प्राप्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हमारे जीवन का परम लक्ष्य हो सकता है। 

आइये, कर्मों के समर्पण और निष्काम कर्म को हम दैनिक जीवन के उदाहरण से  समझे - 

(1) घरेलू कार्यों में समर्पण - एक ग्रहणी अपने परिवार के लिए भोजन बनाती है। सामान्यतः वह यह सोच सकती है कि उसे प्रशंसा मिलनी चाहिए या उसका बनाया भोजन सबको पसंद आना चाहिए। निष्काम कर्म का अभ्यास यह होगा कि वह भोजन को भगवान को अर्पित करने की भावना से बनाएँ, जैसे कि यह एक सेवा है। वह यह सोचें कि यह कार्य परिवार की भलाई के लिए और भगवान की कृपा के रूप में किया जा रहा है, बिना किसी प्रशंसा या परिणाम की अपेक्षा के। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे गृहणी के अपने कार्य में आनंद बढ़ेगा, और यदि कोई आलोचना भी हो, तो वह मन को विचलित नहीं करेगी।

(2) सामाजिक सेवा में निष्काम भाव - ऐसे अनेक अवसर हमें मिलते हैं जब हम किसी सामुदायिक सेवा कार्यों में भाग लेते हैं, जैसे गाँव या मोहल्ले में सफाई अभियान, जरूरतमंदों को भोजन वितरण या चिकित्सा शिविर। निष्काम कर्म तब होता है जब हम यह कार्य केवल इसलिए करते हैं क्योंकि यह सही है और भगवान की सृष्टि की सेवा है, न कि नाम, सम्मान, या पुरस्कार की इच्छा से। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि यह हमें अहंकार से मुक्त करेगा और इस तरह कार्य अधिक अर्थपूर्ण बनता है।

(3) दैनिक पूजा या ध्यान में समर्पण - जब हम सुबह पूजा या ध्यान करते हैं, तो सामान्यतः हमारे मन में कुछ माँगने की इच्छा हो सकती है, जैसे - मेरे कार्य सफल हों या मुझे लाभ मिले। निष्काम भाव से पूजा या ध्यान तब होता है जब हम केवल भगवान के प्रति कृतज्ञता और समर्पण के साथ पूजा या ध्यान करते हैं, बिना किसी सांसारिक इच्छा के। इस प्रकार यह पूजा या ध्यान भगवान को अर्पित होती है। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे हमारा मन शांत और केंद्रित होता है, और हम आंतरिक रूप से अपने को समृद्ध महसूस करते हैं।

(4) रिश्तों में निष्काम भाव - हम अपने मित्र या परिवार के लिए कुछ करते हैं, जैसे किसी की मदद करना, समय देना या पैतृक संपत्ति में भाई / बहन के पक्ष में अपना हक़ छोड़ना। यदि हम यह अपेक्षा करें कि बदले में हमें कुछ मिलेगा (जैसे धन्यवाद, कोई लाभ या एहसान), तो यह कर्म बंधन बन सकता है। निष्काम कर्म तब है जब हम यह सोचकर मदद करते हैं कि यह हमारा कर्तव्य है और भगवान का कार्य है, बिना किसी प्रत्याशा के। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे रिश्तों में विश्वास और प्रेम बढ़ता है, और मन में शांति रहती है।    

कार्यस्थल पर निष्काम कर्म 

कार्यस्थल पर निष्काम कर्म अर्थात् बिना फल की इच्छा के काम करना प्रारंभ में चुनौतीपूर्ण लग सकता है, क्योंकि वहाँ परिणाम (जैसे पदोन्नति, वेतन वृद्धि, या मान्यता) की अपेक्षा स्वाभाविक होती है। लेकिन गीता का दर्शन इसे संभव बनाता है। यहाँ कुछ व्यावहारिक सुझाव और दृष्टिकोण हैं, जिसे अपनाकर हम अपना निष्काम भाव अपने कर्मों में ला सकते हैं -

(1) अपने कार्य को कर्तव्य मानें - हम अपने कार्य को केवल नौकरी न समझें, बल्कि इसे एक कर्तव्य के रूप में देखें, जो समाज, संगठन, या भगवान की सृष्टि की सेवा के लिए है। उदाहरण के लिए, यदि मैं शिक्षक हूँ, तो यह सोचूँ कि मैं अपने शिक्षा दायित्व को पूरा कर बच्चों का भविष्य बना रहा हूँ। यदि मैं व्यवसायी हूँ, तो यह मानूँ कि मैं ग्राहकों की अपेक्षाएँ पूरी कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए, एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपने कोड को इसलिए बेहतर बनाए, क्योंकि यह उसके संगठन और उपयोगकर्ताओं के लिए उपयोगी है, न कि केवल बॉस की प्रशंसा के लिए। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि अपने अंदर निष्काम भावना लाने से कार्य में लगन बढ़ती है, और परिणाम की चिंता कम होती है।

(2) परिणाम भगवान को समर्पित करें - हम कोई भी कार्य शुरू करने से पहले अपने मन में यह भाव लाएँ कि मैं यह कार्य भगवान को अर्पित करता हूँ। इसका जो भी परिणाम होगा, वह उनकी इच्छा है। यह गीता के "मदर्पणम्" का व्यावहारिक रूप है। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे हैं, तो पूरी मेहनत करें, पर यह न सोचें कि इस कार्य करने से मुझे पदोन्नति मिलनी ही चाहिए। इसके बजाय, मैं यह सोचूँ कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, अब परिणाम भगवान पर छोड़ता हूँ। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे मेरा कार्य सम्बन्धी तनाव कम होगा और असफलता या आलोचना का डर नहीं रहेगा।

(3) प्रक्रिया पर ध्यान दें, परिणाम पर नहीं - हमें अपने कार्य की प्रक्रिया को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या मैं इसे और बेहतर ढंग से कर सकता हूँ या क्या यह कार्य मेरे मूल्यों के अनुरूप है? परिणाम, जैसे अधिलाभ या प्रशंसा की कामना से बचना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक विक्रेता (सेल्सपर्सन) को ग्राहकों के साथ ईमानदारी और मेहनत से बातचीत करनी चाहिए, बिना यह सोचे कि येन-केन-प्रकारेण मुझे यह सौदा पक्का करना है। विक्रेता को केवल अपनी प्रस्तुति और सेवा को बेहतर बनाना चाहिए। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे कार्य की गुणवत्ता बढ़ती है, और मन शांत रहता है।

(4) सहकर्मियों के साथ निष्काम भाव -:हमें कार्यस्थल पर सहकर्मियों की मदद करनी चाहिए, बिना यह अपेक्षा किए कि वे बदले में वे कुछ करेंगे या देंगे। यदि कोई सहकर्मी गलती करता है, तो उसे सुधारने में या मार्गदर्शन देने में मदद करें, बिना यह सोचे कि इससे मुझे क्या मिलेगा। उदाहरण के लिए, यदि हमारी टीम में कोई नया कर्मचारी है, तो उसे प्रशिक्षित करें, यह सोचकर कि यह संगठन के लिए अच्छा है, न कि यह दिखाने के लिए कि हम कितने योग्य हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे कार्यस्थल पर संबंध मजबूत होते हैं, और हमारे सकारात्मक प्रभाव में वृद्धि होती है।

(5) आलोचना और प्रशंसा को समान भाव से देखें - गीता में भगवान की शिक्षा है कि सुख-दुःख, प्रशंसा-निंदा को समान भाव से देखना चाहिए। कार्यस्थल पर यदि अधिकारी हमारी प्रशंसा या आलोचना करे, तो दोनों को शांत मन से हम स्वीकार करें। यह सोचें कि हमारा कार्य भगवान को समर्पित है और आलोचना को सुधार का अवसर मानें।  यदि प्रशंसा मिले, तो उसे अहंकार का कारण न बनने दें। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे मानसिक संतुलन बना रहता है, और हम दबाव में भी स्थिर रहते हैं।

(6) नियमित आत्म-चिंतन - दिन के अंत में हमें कुछ मिनट निकालकर अपने कार्यों का मूल्यांकनकरना चाहिए। स्वयं से यह पूछें कि क्या मैंने आज अपने कार्य को पूरी निष्ठा से किया या क्या मैंने परिणाम की चिंता को छोड़कर कार्य किया? यह चिंतन हमें निष्काम कर्म की ओर ले जाएगा। उदाहरण के लिए, एक प्रबंधक (मैनेजर) दिन के अंत में यह देखे कि उसने अपनी टीम को कितनी निष्पक्षता और समर्पण से नेतृत्व दिया, बिना यह सोचे कि उसे अगली तिमाही में क्या मिलेगा। इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि इससे हमारी कार्यशैली में सुधार होगा, और हम अधिक आत्म-जागरूक बनते हैं।

कुछ छोटे कदम 

(1) सुबह का संकल्प -  कार्य शुरू करने से पहले 1-2 मिनट के लिए यह संकल्प लें - आज मैं अपने कार्य को भगवान को समर्पित करता हूँ और फल की चिंता नहीं करूँगा। 

(2) ध्यान और प्रेरणा - कार्यस्थल पर तनाव के समय गीता के श्लोक (जैसे 9.27) को याद करें या कोई मंत्र (जैसे "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय") का जाप करें। यह मन को शांत रखेगा।

(3) छोटे कार्यों से शुरुआत करें - पहले छोटे कार्यों (जैसे ईमेल लिखना या मीटिंग की तैयारी) को निष्काम भाव से करें, फिर धीरे-धीरे बड़े प्रोजेक्ट्स पर लागू करें। हर कार्य की प्लानिंग पर  ध्यान दें। कार्य करने के बाद कार्य की जाँच करें और कोई कमी हो तो सुधार करें। 

(4) कृतज्ञता माने और व्यक्त करें - दिन के अंत में उन बातों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करें, जो आपके कार्य से दूसरों को लाभ पहुँचाती हैं। इससे समर्पण की भावना बढ़ती है। यदि किसी ने आपके किसी कार्य में आपको सहयोग दिया है तो उसे धन्यवाद ज्ञापित करें। 

सार 

निष्काम कर्म और कर्मों का समर्पण का अभ्यास दैनिक जीवन में कार्यस्थल पर तनाव को कम करता है, कार्य की गुणवत्ता को बढ़ाता है, और मन को शांति प्रदान करता है। यह गीता के दर्शन को जीवंत करने का व्यावहारिक तरीका है।  

अंत में एक प्रश्न -
आप अपने दैनिक जीवन में निष्काम कर्म को कैसे लागू करते हैं? अपनी कहानी साझा करें!

सादर,  
केशव राम सिंघल 

Thursday, April 10, 2025

#096 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 









प्रतीकात्मक चित्र - भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता ज्ञान देते हुए

साभार - ओपनएआई (OpenAI)


9 / 27 

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। 

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। 



9 / 28 

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। 

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि। 


9 / 29 

समोऽहं  सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। 

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), जो कुछ भी तुम करते हो, जो कुछ भी तुम खाते हो, जो कुछ भी तुम त्याग करते हो, जो कुछ भी तुम देते हो।  तुम जो भी तपस्या करते हो, वह सब मुझे अर्पित करो। इस प्रकार तुम शुभ और अशुभ फलों के कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाओगे। त्यागयोग से युक्त मन से मुक्त होकर तुम मेरे पास आओगे। मैं सभी प्राणियों के लिए समान हूँ, मेरे लिए न तो कोई घृणा (द्वेष) करने योग्य है और न ही कोई प्रेम (राग, मोह) करने योग्य। परन्तु जो व्यक्ति (भक्त) भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।


प्रसंगवश 


श्लोक 9.27 में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन के प्रत्येक कार्य—खाना, हवन करना, दान देना, तप करना—सब कुछ भगवान को अर्पित कर देना चाहिए। यहाँ "मदर्पणम्" का तात्पर्य है कि सभी कर्मों को अहंकार और स्वार्थ से मुक्त कर, भगवान की इच्छा और कृपा के प्रति समर्पित करना। इससे कर्मों का बंधन टूटता है। यह श्लोक कर्मयोग का सार है। यह सिखाता है कि सांसारिक कार्यों को भी भक्ति के साथ करने से वे मोक्ष का साधन बन सकते हैं।


 श्लोक 9.28 के अनुसार जब सभी कर्म भगवान को अर्पित किए जाते हैं, तो शुभ और अशुभ फलों से मुक्ति मिलती है। संन्यासयोग (कर्मों का त्याग और भगवान में समर्पण) से युक्त व्यक्ति बंधनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त करता है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि कर्मों का फल ही बंधन का कारण है। जब कर्म भगवान को समर्पित होते हैं, तो फल की चिंता समाप्त हो जाती है, और यह मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।


श्लोक 9.29 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी प्राणियों के प्रति समान हैं—न कोई प्रिय है, न अप्रिय। लेकिन जो भक्त भक्ति के साथ उनकी उपासना करते हैं, वे भगवान में और भगवान उनमें समाहित हो जाते हैं। यह श्लोक भगवान की निष्पक्षता और भक्ति की महत्ता को दर्शाता है। भगवान सभी के लिए समान हैं, पर भक्त का समर्पण उन्हें विशेष रूप से भगवान के निकट लाता है। यह भक्तियोग का आधार है।


अपने कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देना ही संन्यासयोग है। ऐसा व्यक्ति (भक्त) जो अपने सभी कर्मों को भगवान् को अर्पित कर देता है, वह पूरी तरह से मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त होता है। यहाँ हमें यह समझना चाहिए कि हम जो भी कर्म करते हैं, वे सभी कर्म हमारे शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा किए जाते हैं और ये सभी बाह्य हैं और इनका फल भी बाहरी होता है। हमारे कर्मों के फलस्वरूप ही हमें सुख या दुःख मिलता है। यह सुखी-दुःखी होना ही हमारा कर्मबन्धन है। भगवान् को प्राप्त होना ही मोक्ष है। भगवान् की सम्पूर्ण प्राणियों में व्यापकता, प्रियता, कृपा और आत्मीयता समान है, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं। 


मेरी सीख 


गीता में वर्णित ये श्लोक कर्मयोग, भक्तियोग, और संन्यासयोग का समन्वय प्रस्तुत करते हैं। इनसे निम्न शिक्षाएँ मिलती हैं - 


(1) कर्मों का समर्पण हमारे हित में है। सभी कार्य भगवान को अर्पित करने से कर्मबंधन टूटता है।

(2) हमें निष्काम भावना से कर्म करने चाहिए। फल की इच्छा त्यागकर कार्य करना मोक्ष का मार्ग है।

(3) भगवान सभी के प्रति समान हैं, पर भक्त के लिए वे विशेष हैं।

(4) संन्यास और भक्ति के माध्यम से भगवान की प्राप्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति हमारे जीवन का परम लक्ष्य हो सकता है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 

 

#095 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9 / 25 

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः। 

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।  


9 / 26 

 पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। 

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


जो व्यक्ति सकामभाव से देवताओं की आराधना करते हैं, वे देवताओं के परायण हो जाते हैं अर्थात् देवता अपने ऐसे भक्तों को अच्छा फल देते हैं और अपने देवलोक में ले जाते हैं। पितरों की आराधना करने वाले व्यक्ति को पितरों से सहायता मिलती है और वे पितरों के लोक को जाते हैं। भूत-प्रेतों की आराधना करने वाले व्यक्ति को भूत-प्रेतों की योनि मिलती है। पर जो व्यक्ति (भक्त) मेरी आराधना करता है, वह मुझे प्राप्त होता है। जो व्यक्ति (भक्त) पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मुझे प्रेमपूर्वक अर्पित करता है, मुझमें तल्लीन उस अंतकरण हुए भक्त के प्रेमपूर्वक दिए उपहार (भेंट) को मैं स्वीकार कर लेता हूँ। 


प्रसंगवश 


गीता श्लोक 9/25 में भगवान श्रीकृष्ण एक सार्वभौमिक सिद्धांत प्रकट करते हैं कि व्यक्ति की श्रद्धा और कर्म का लक्ष्य ही व्यक्ति की गति को निर्धारित करता है।


भगवान् श्रीकृष्ण चार प्रकार के उपासकों का उल्लेख करते हैं - 


(1) देवव्रता (देवताओं के उपासक) - ऐसे व्यक्ति जो सकाम भाव से देवताओं (जैसे इंद्र, अग्नि, वरुण आदि) की पूजा करते हैं, उन्हें मृत्यु के बाद देवलोक की प्राप्ति होती है। यहाँ "देवलोक" एक अस्थायी सुखद स्थिति है, जो कर्मफल के समाप्त होने पर समाप्त हो जाती है और जीवात्मा को पुनः इस लोक में आना पड़ता है। 


(2) पितृव्रता (पितरों के उपासक) - ऐसे व्यक्ति जो श्राद्ध-तर्पण आदि के माध्यम से पितरों (पूर्वजों) की सेवा करते हैं, वे पितृलोक को प्राप्त करते हैं। यह भी एक सीमित फल है और जीवात्मा को पुनः इस मृत्युलोक में आना पड़ता है। 


(3) भूतेज्या (भूत-प्रेतों के उपासक) -  ऐसे व्यक्ति जो निम्नतर शक्तियों (भूत-प्रेत, यक्ष आदि) की पूजा करते हैं, वे उसी स्तर की योनि या चेतना में चले जाते हैं। भगवान् यहाँ यह संकेत देते हैं कि मनुष्य का चयन उसकी आध्यात्मिक गति को प्रभावित करता है।


(4) मद्याजिन (मेरे भक्त) - ऐसे व्यक्ति जो निष्काम भाव से भगवान की शरण लेते हैं, सेवा-आराधना करते हैं, वे परम गंतव्य—ईश्वर को प्राप्त करते हैं, जो सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु) चक्र से मुक्ति का मार्ग है।


वेदांत के दृष्टिकोण से यह श्लोक उपनिषदों के उस सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है कि "यथा श्रद्धा, तथैव सिद्धि"—जैसी श्रद्धा, वैसी प्राप्ति। मांडूक्य उपनिषद और छांदोग्य उपनिषद में भी यह विचार आता है कि मनुष्य का कर्म और संकल्प उसकी चेतना को आकार देता है। श्रीकृष्ण यहाँ यह ज्ञान देते हैं कि सकाम कर्म एक सीमित परिणाम देता है, जबकि निष्काम भक्ति परम मुक्ति की ओर ले जाती है।


भक्ति संप्रदायों के दृष्टिकोण के अनुसार रामानुजाचार्य जैसे विशिष्टाद्वैतवादी इस श्लोक में भगवान की सर्वोच्चता और उनकी कृपा की महिमा देखते हैं। उनके अनुसार "मद्याजिनोऽपि माम्" में "अपि" शब्द यह दर्शाता है कि भगवान की प्राप्ति सामान्य नहीं, अपितु विशेष कृपा का परिणाम है। वहीं, माधवाचार्य (द्वैत मत) इसे भगवान के प्रति अनन्य भक्ति के महत्व के रूप में देखते हैं।


अन्य दर्शन 


बौद्ध दर्शन में भी कर्म और चेतना का गहरा संबंध बताया गया है। बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म (Rebirth) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे 'संसार' या 'भव चक्र' कहा जाता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, जब तक व्यक्ति निर्वाण (Nirvana) प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे बार-बार पुनर्जन्म लेना पड़ता है। अतः यह विचार मिलता है कि जो व्यक्ति इंद्रिय सुखों या निम्नतर कामनाओं में लिप्त रहता है, वह पुनर्जन्म के चक्र में फँस जाता है। गीता का यह श्लोक इसे समानांतर रूप से दर्शाता है। गीता में मुक्ति का मार्ग भगवान की भक्ति बताया गया है, न कि निर्वाण की खोज।


पश्चिमी दर्शन में विशेषतौर पर प्लेटो के "रिपब्लिक" में आत्मा की गति का विचार आता है, जहाँ आत्मा अपने जीवनकाल के कर्मों के आधार पर विभिन्न लोकों में जाती है। गीता का यह श्लोक इसे और स्पष्ट करता है कि उपासना का लक्ष्य ही आत्मा की दिशा तय करता है।

 

गीता का श्लोक  9/26 भक्ति के सरल और शुद्ध स्वरूप को उजागर करता है। भगवान कहते हैं कि भेंट की भौतिक मात्रा या मूल्य महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि भक्त का भाव और प्रेम ही स्वीकार्य है। यहाँ "प्रयतात्मनः" (शुद्ध मन वाले) शब्द यह दर्शाता है कि भक्त का हृदय निर्मल और समर्पित होना चाहिए।


वेदांत के दृष्टिकोण से यह श्लोक ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वग्राह्यता को दर्शाता है। ईश्वर को किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे स्वयं सर्वस्व हैं (बृहदारण्यक उपनिषद: "पूर्णमदः पूर्णमिदम्")। फिर भी, वे भक्त के प्रेम और भेंट को स्वीकार करते हैं, जो उनकी करुणा और सुलभता को दिखाता है।


भक्ति संप्रदायों के दृष्टिकोण से यह श्लोक भक्ति मार्ग की सहजता का प्रतीक है। चैतन्य महाप्रभु जैसे गौड़ीय वैष्णव संतों ने इसे भगवान के प्रति प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति माना। तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा, "प्रेम तें प्रभु किङ्कर ज्यों जानी"—प्रेम से भगवान भक्त को अपना सेवक मान लेते हैं। यहाँ विधि-विधान से अधिक भाव की महत्ता है।


सूफी परंपरा के सूफी संत रूमी ने लिखा, "जो दिल से दिया जाता है, वही ईश्वर तक पहुँचता है।" सूफी संत का यह विचार गीता के इस श्लोक से मेल खाता है कि भक्ति में प्रेम और समर्पण ही महत्वपूर्ण है, न कि बाहरी आडंबर।


ईसाई दर्शन के बाइबिल में लिखा है -  "जहाँ तेरा खजाना है, वहाँ तेरा हृदय भी होगा" (मत्ती 6:21)— बाइबिल का यह विचार गीता के इस श्लोक से मिलता-जुलता है, जहाँ भक्त का हृदय ही उसकी भेंट को मूल्यवान बनाता है।


आधुनिक मनोविज्ञान में "इरादे की शक्ति" (Power of Intention) को देखा जा सकता है। जब कोई कार्य प्रेम और शुद्धता से किया जाता है तो उसका प्रभाव गहरा होता है—यही विज्ञान और अध्यात्म का संगम है।


समग्र संदेश 


इन दोनों श्लोकों का संदेश यह है कि मनुष्य का जीवन उसके विश्वास, कर्म और भाव से संचालित होता है। सकाम कर्म सीमित फल देता है, जबकि निष्काम भक्ति परम मुक्ति का द्वार खोलती है। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ भक्ति की सहजता और गहराई को एक साथ स्थापित करते हैं—न तो भेंट का मूल्य मायने रखता है, न ही कर्मकांड की जटिलता; केवल प्रेम और शुद्धता ही पर्याप्त है।


हमें यह प्रेरणा और सीख मिलती है कि हम अपने जीवन में निष्काम भाव को अपनाएँ और ईश्वर के प्रति प्रेम को प्राथमिकता दें।  


इस संसार में अधिकतर व्यक्ति सांसारिक भोग और ऐश्वर्य की कामना करते हैं तथा सकाम भाव से अपने-अपने इष्ट की आराधना में लगे रहते हैं। ऐसे लोग जो निष्काम भाव से ईश्वर की आराधना नहीं करते, वे मोक्ष को नहीं पा पाते तथा सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु)चक्र में उलझे रहते हैं। बेहतर है कि व्यक्ति सकामभाव से नहीं, बल्कि निष्काम भाव से सेवा-आराधना करे, ताकि उसका उद्धार हो और वह सांसारिक आवागमन (जीवन-मृत्यु) चक्र से मुक्त हो सके।  


गीता के इन श्लोकों में प्रकृति और पदार्थ की प्रमुखता नहीं है, बल्कि व्यक्ति (भक्त) के भाव की प्रमुखता है। भगवान् की उपासना या आराधना में प्रेम और अपनेपन की प्रधानता है, विधि की नहीं। सेवा, उपासना या आराधना निष्काम भाव से होनी चाहिए। 


सादर, 

केशव राम सिंघल  



Wednesday, April 9, 2025

#094 - गीता अध्ययन एक प्रयास - प्रसंगवश - सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 

प्रसंगवश - सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति 

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क्या कर्मकांड (सकाम कर्म) और भक्ति हमें एक ही लक्ष्य तक ले जाते हैं? आइए गीता के प्रकाश में देखें।


सोमयज्ञ


सोमयज्ञ वेदों में वर्णित सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि सोमयज्ञ करने वाले व्यक्ति पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। जिस सोम रस का प्रसंग गीता में दिया गया है, कहा जाता है कि वह सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष के पत्ते का रस होता है। यह भी कहा जाता है कि सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्ते का रस निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। रसेन्द्रचूड़ामणि में एक श्लोक है - "इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा। अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते।।" सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष आज के समय में अत्यंत दुर्लभ है। अतः सोमयज्ञ करना दुर्लभ है, फिर भी सोमयज्ञ का दार्शनिक पहलू यह हो सकता है कि हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान् की आराधना के साथ जीवन में अच्छे कर्म करें। यह एक विचारणीय बिंदु है कि वैदिक काल में सोमरस को न केवल भौतिक रूप से, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से भी आत्मा के अमृत या शुद्धिकरण के साधन के रूप में देखा जाता था। यह कथन कि "हम अपने कर्म और विचारों को शुद्ध कर भगवान की आराधना के साथ जीवन में अच्छे कर्म करें" सोमयज्ञ के मूल उद्देश्य—आत्म-शुद्धि और समर्पण—को आधुनिक संदर्भ में जीवंत करता है।  यहाँ यह ध्यान रखने वाली बात है कि  "मुँह में राम और बगल में छुरी" नहीं होना चाहिए। यह सोमयज्ञ जैसे कर्मकांडों के बाह्य प्रदर्शन से परे हृदय की शुद्धता और कर्म की सात्विकता की ओर इशारा करता है। आज के समय में, जब सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड संभव नहीं हैं, तो इसे हम ध्यान, सेवा, और सत्यनिष्ठा जैसे आंतरिक यज्ञों से जोड़ सकते हैं। उदाहरण —जैसे, दूसरों की निःस्वार्थ सेवा को एक "सोमयज्ञ" मानना, जहाँ हम अपनी ऊर्जा को समाज के कल्याण में अर्पित करते हैं। विद्वानों में सोमवल्ली लता या सोमवृक्ष की पहचान को लेकर मतभेद हैं। कुछ इसे *Ephedra sinica* (एक उत्तेजक पौधा) मानते हैं, जो मध्य एशिया में पाया जाता था। अन्य इसे *Sarcostemma acidum* या *Amanita muscaria* (एक प्रकार का मशरूम) से जोड़ते हैं। ऋग्वेद में इसके गुणों का वर्णन है—यह सुगंधित, तीक्ष्ण स्वाद वाला, और शारीरिक-मानसिक शक्ति बढ़ाने वाला बताया गया है।  


सोमयज्ञ को केवल भौतिक कर्मकांड तक सीमित नहीं देखा जाना चाहिए। इसको हम एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया भी मान सकते हैं। सोमयज्ञ आत्मशुद्धि का प्रतीक हो सकता है। सोमरस को सोमवल्ली या सोमवृक्ष के पत्तों से निचोड़ना, शुद्ध करना और अग्नि में अर्पित करना आत्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया को दर्शाता है। जैसे सोम को पवित्र किया जाता है, वैसे ही हम मन को संयम और भक्ति से शुद्ध कर सकते हैं। सोमयज्ञ को हम समर्पण का प्रतीक मान सकते हैं। जिस प्रकार सोमरस को अग्नि में अर्पित करना पूर्ण समर्पण का संकेत है। यह प्रक्रिया मन के विकारों को "निचोड़कर" (संयम से) और उन्हें ईश्वर को अर्पित करने (अहंकार का त्याग) की ओर संकेत करती है। यह हमें सिखाता है कि अपने श्रेष्ठ गुणों को परमात्मा को समर्पित करने से ही सच्चा फल मिलता है। सोमयज्ञ को अमृतत्व की खोज का एक साधन माना जाता रहा और सोम रस को "अमृत" कहा गया। दार्शनिक रूप से, सोमयज्ञ उस आंतरिक आनंद या चेतना की ओर इशारा करता है जो जन्म-मृत्यु के चक्र से परे है। गीता में श्रीकृष्ण इसी ओर संकेत करते हैं कि सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) अस्थायी फल देते हैं, जबकि निष्काम भक्ति स्थायी मुक्ति देती है।  


सोमयज्ञ वैदिक परंपरा का एक प्रमुख कर्मकांड है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में सर्वाधिक बार मिलता है। ऋग्वेद के नवम मंडल में 114 सूक्त सोम को समर्पित हैं, जिनमें सोम को देवता, औषधि, और अमृत के रूप में वर्णित किया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को निचोड़कर, उसे शुद्ध करने के बाद अग्नि में अर्पित किया जाता था। यह यज्ञ मुख्य रूप से इंद्र, अग्नि और अन्य देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता था। सोम यज्ञ के चार उद्देश्य (देवताओं को प्रसन्न करना, पापमुक्ति, स्वर्गप्राप्ति, और सामाजिक शांति) वास्तव में इसके बाह्य लक्ष्य हैं, आंतरिक रूप से, सोम यज्ञ मन की शुद्धि और आत्मा को उच्च लोकों से जोड़ने का माध्यम था।  


वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास भले ही कम हो गया हो, पर इसका दर्शन जीवंत है। इसे हम निम्न रूप में देख सकते हैं - 


(1) सोमरस की जगह आज हम मंत्र और ध्यान के द्वारा मन को शुद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं ।  

(2) सेवा और अच्छे कर्मों को समाज और ईश्वर के लिए समर्पित करना एक प्रकार का आधुनिक "यज्ञ" है।  


अनन्य भक्ति 


गीता श्लोक 9/22—"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्"— में अनन्य भक्ति का सार दिया गया है। यहाँ "अनन्य" का अर्थ है "बिना किसी अन्य के प्रति आसक्ति" और "चिन्तयन्तो मां" का अर्थ है "केवल मुझ पर मन को केंद्रित करना।" श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे भक्तों की हर चिंता (योग: जो अभी नहीं है उसे प्राप्त करना; क्षेम: जो प्राप्त है उसे सुरक्षित रखना) वे (भगवान्) स्वयं संभालते हैं। अनन्य भक्ति का अर्थ है कि भक्त का मन केवल भगवान पर ही केंद्रित हो, और वह किसी अन्य चीज में नहीं भटके। मन का केवल भगवान पर केंद्रित होना "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां" के भाव को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। यह एकाग्रता पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जीवन के हर क्षण में भगवान के प्रति समर्पण और विश्वास को दर्शाती है। उदाहरण के लिए, यह कर्म में निष्कामता, विचारों में पवित्रता, और व्यवहार में करुणा के रूप में प्रकट हो सकती है।  


अनन्य भक्ति के लक्षण  


(1) भगवान् के प्रति कनिष्ठता - भक्त का मन भगवान के अतिरिक्त कहीं और नहीं भटकना चाहिए। उसी प्रकार जैसे हनुमान ने भगवान् राम के प्रति पूर्ण निष्ठा दिखाई।  

(2) निष्कामता -  भक्ति फल की कामना से मुक्त होनी चाहिए। भक्त केवल भगवान के प्रेम और कृपा का आकांक्षी होता है, न कि सांसारिक लाभ का। रोज़मर्रा के जीवन में निष्कामता के लिए उदाहरण —जैसे, कठिन परिस्थितियों में शांति बनाए रखना या दूसरों के प्रति क्रोध के बजाय क्षमा का भाव रखना। 

(3) नित्य संयोग - भक्त हर पल भगवान से जुड़ा रहना चाहिए, चाहे वह कार्य करता हो, सोचता हो, या विश्राम करता हो।  


 अनन्य भक्ति आत्मा का परमात्मा में विलय है। जैसे नदी सागर में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती है, वैसे ही भक्त भगवान में लीन हो जाता है। गीता में अनन्य भक्ति की सीख बार-बार आती है (जैसे 18/66 में "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज") कि अनन्य भक्ति ही अंतिम मुक्ति का साधन है।  


अनन्य भक्ति केवल मंदिर में मूर्ति के सामने बैठना नहीं है। यह जीवन का एक दृष्टिकोण है। जैसे अपने हर कार्य को भगवान को अर्पित करना, जैसे अर्जुन ने युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा मानकर लड़ा। हर परिस्थिति में भगवान पर भरोसा रखना, जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के समय किया। भगवान को मित्र, गुरु, या प्रियतम के रूप में देखना, जैसा कि अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण को मित्र और गुरु माना। जैसा कि मीरा ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में देखा।  


सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति  

 

सोमयज्ञ सकाम कर्म का प्रतीक है, जो अस्थायी फल देता है। अनन्य भक्ति निष्कामता का मार्ग है, जो स्थायी शांति और मुक्ति देता है। सोमयज्ञ बाह्य विधि-विधान पर आधारित है, जबकि अनन्य भक्ति हृदय की शुद्धता और समर्पण पर। सोमयज्ञ स्वर्ग जैसे सीमित लोक देता है, पर अनन्य भक्ति भगवान के साथ एकता प्रदान करती है।  


सार 


सोमयज्ञ से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कर्म का महत्व है, पर उसका लक्ष्य शुद्धि और समर्पण होना चाहिए। अनन्य भक्ति हमें यह सिखाती है कि जब यह समर्पण पूर्ण हो जाता है, तो कर्मकांडों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है, और भक्त सीधे भगवान के चरणों में पहुँच जाता है।  


सोमयज्ञ और अनन्य भक्ति के दोनों पहलू जीवन के दो छोरों को दर्शाते हैं—एक जो साधना की शुरुआत है (कर्मकांड), और दूसरा जो उसका परम लक्ष्य है भक्ति के माध्यम से मोक्ष। सोमयज्ञ जैसे कर्मकांड साधना का प्रारंभिक चरण हो सकते हैं, जो मन को एकाग्र करने में सहायक हैं, पर अनन्य भक्ति वह परम अवस्था है जहाँ साधक साधनाओं को भी पार कर जाता है।  


सादर,  

केशव राम सिंघल 



Tuesday, April 8, 2025

#093 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण

गीता अध्याय 9 - ज्ञान विज्ञान 


9 / 20 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। 

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्। 


9 / 21 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति। 

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।। 


9 / 22 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। 

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 


9 / 23 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।। 


9 / 24 

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। 

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं - 


तीनों वेदों के जानने वाले, सोमरस का उपयोग कर पाप नहीं करने वाले व्यक्ति सोमयज्ञ द्वारा मेरा पूजन करते हैं। वे पवित्र देवलोक को पाते हैं और स्वर्ग के दिव्य भोगों का आनंद लेते हैं। 


त्रैविद्या = तीन वेद = ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद 

सोमपाः = सोम यज्ञ करने वाले 


स्वर्गलोक के दिव्य भोगो (पुण्यों)को भोगकर ऐसी जीवात्माएँ पुण्यों के ख़त्म होने पर पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) पर आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) में वर्णित सकाम धर्म का पालन कर भोग की कामना करने वाली जीवात्माएँ आवागमन करती रहती हैं अर्थात् जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहती हैं। 


जो अनन्यभाव (विशिष्ट भाव) से मेरा (भगवान् का) चिंतन करते हुए मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं , ऐसे सदा लगे भक्तों की आवश्यकताओं और सुरक्षा को मैं देखता हूँ अर्थात् भगवान् देखते हैं।  


हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), जो भी व्यक्ति श्रद्धा के साथ अन्य देवताओं की आराधना करते हैं, वे भी मेरी (भगवान् की) आराधना करते हैं, पर ऐसे व्यक्ति देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं। मैं ही निश्चित तौर पर सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ, पर जो मेरे वास्तविक तत्व (गुण) को नहीं जानते, उनका पतन होता है। 


प्रसंगवश 


सोमयज्ञ के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं - 


(1) देवताओं को प्रसन्न करना 

(2) अपने पापों से मुक्त होना 

(3) स्वर्गप्राप्ति की कामना करना 

(4) समाज में शान्ति और समृद्धि की कामना करना 


ऋग्वेद में सोम पौधे का वर्णन है, जिसमें सोम पौधे के गुणों और उपयोग के बारे में बताया गया है। सोमयज्ञ में सोम पौधे के रस को अग्नि में अर्पित किया जाता है। वर्तमान समय में सोमयज्ञ का अभ्यास बहुत कम हो गया है। आजकल सोम पौधे की उपलब्धता के बारे में जानकारी नहीं मिल पाती है। 


उपर्युक्त श्लोकों का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मकांड और भक्ति के बीच अंतर समझा रहे हैं। श्लोक 20-21 में वे बताते हैं कि वेदों में वर्णित सकाम कर्म (जैसे सोमयज्ञ) करने वाले लोग स्वर्गलोक के सुख भोगते हैं, परंतु पुण्य समाप्त होने पर वे पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं। वहीं, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति का महत्व बताया गया है, जिसमें भगवान स्वयं अपने भक्तों का योग (प्राप्ति) और क्षेम (रक्षा) संभालते हैं। श्लोक 23-24 में यह स्पष्ट किया गया है कि सभी यज्ञ और पूजा अंततः भगवान तक पहुँचती है, परंतु जो लोग उन्हें तत्त्वतः नहीं जानते, वे इस चक्र से मुक्त नहीं हो पाते अर्थात जीवन-मृत्यु के बंधन चक्र में रहते हैं। 


इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण सकाम कर्म (फल की कामना से युक्त कर्म) और निष्काम भक्ति (अनन्य भक्ति) के बीच अंतर को रेखांकित कर रहे हैं। श्लोक 20-21 में सोमयज्ञ जैसे वैदिक कर्मकांडों का वर्णन है, जो स्वर्गलोक जैसे अस्थायी फल प्रदान करते हैं। यहाँ यह संदेश है कि भौतिक या स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति के लिए किए गए कर्म जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं कर सकते। दूसरी ओर, श्लोक 22 में अनन्य भक्ति की महत्ता को दर्शाया गया है, जहाँ भगवान स्वयं भक्त की हर चिंता का भार उठाते हैं। यह निष्काम भक्ति का वह मार्ग है जो मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्लोक 23-24 में श्रीकृष्ण एक और गहन सत्य उजागर करते हैं कि सभी पूजा-अर्चना, चाहे वह अन्य देवताओं के लिए ही क्यों न हो, अंततः उसी परमेश्वर तक पहुँचती है। परंतु अज्ञानवश लोग उन्हें सर्वोच्च तत्त्व के रूप में नहीं पहचानते, जिसके कारण वे संसार के बंधनों में फँसे रहते हैं। यह एकेश्वरवाद और सर्वव्यापी भगवद्-तत्त्व का सुंदर प्रतिपादन है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


प्रतीकात्मक चित्र - साभार NightCafe