Friday, January 27, 2017

#060 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#060 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण !*

*गीता अध्याय 6 - ध्यान योग - श्लोक 5 व 6*


6/5
*उद्धारेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् !*
*आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः !!*


6/6
*बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: !*
*अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् !!*


*भावार्थ*

व्यक्ति स्वयं अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे, क्योंकि आत्मा अपना ही मित्र है और आत्मा ही अपना शत्रु है. (6/5)

जिस व्यक्ति ने स्वयं अपने अंतःकरण को जीत लिया है, उसके लिए वह स्वयं ही अपना मित्र है और जिसने अपने अंतःकरण को नहीं जीता है, वह व्यक्ति स्वयं ही अपने से शत्रु की भांति व्यवहार करता है. (6/6)

*प्रसंगवश*

जिसने अपनी आत्मा को जीत लिया अर्थात् जिसका अंतःकरण (मन) काबू में है, उसके लिए उसकी आत्मा उसका मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए उसका अंतःकरण (मन) उसका शत्रु बना रहेगा.

*जिज्ञासा*

*हम अपना उद्धार कैसे करें ?*


शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणादि से अपने को ऊंचा उठाने का प्रयास करें. जड़ वस्तुओं से सम्बन्ध त्यागें. हमें यह समझ लेना चाहिए कि असत् के द्वारा सत् की प्राप्ति नहीं होती, वरन असत् के त्याग से सत् की प्राप्ति होती है. पदार्थ, क्रिया और संकल्पों में आसक्त ना हो. हममें ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काम में लेने से हम अपना उद्धार कर सकते हैं. ज्ञानयोग, भक्तियोग या कर्मयोग (किसी भी एक साधन) द्वारा हम अपना उद्धार कर सकते हैं. अपने उद्धार और पतन में व्यक्ति स्वयं ही कारण होता है, दूसरा कोई नहीं.

*विचार करें*

क्या 'मैं' शरीर हूँ ? क्या शरीर मेरा है ? यदि शरीर मेरा है, तो यह मेरे साथ सदा क्यों नहीं रहता ?

'मैं' शरीर नहीं हूँ. 'मैं' अपरिवर्तनशील हूँ, जबकि 'शरीर' परिवर्तनशील है. 'मैं' कभी मरता नहीं. 'मैं' अविनाशी हूँ. यहाँ 'मैं' से तात्पर्य 'मेरे अंतःकरण' से है. इस 'मैं' में राग-द्वेष या लिप्तता का कोई भाव नहीं है.

जब 'मैं' प्रकृतिजन्य पदार्थों से अपना सम्बन्ध स्थापित करता है तो निर्लिप्तता का भाव समाप्त हो जाता है और अहंकार, राग-द्वेष आदि उत्पन्न हो जाते हैं. उस समय मेरा 'मैं' स्वयं का शत्रु हो जाता है.

सादर,

केशव राम सिंघल


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