Monday, January 16, 2017


*#056 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 22 से 24*


5/22
*ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते !*
*आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः !!*


5/23
*शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात !*
*कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः !!*


5/24
*योअन्तः सुखोन्तरारामस्त्यान्तेर्ज्योतिरेव यः !*
*स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोअधिगच्छति !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)
हे अर्जुन (कुंतीपुत्र) ! क्योंकि, जो इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोगविलास (सुख) हैं, वे अंततः दुःख के कारण हैं अतः विवेकशील व्यक्ति उनमें नहीं रमता. (5/22)

जो व्यक्ति इस मनुष्य शरीर में शरीर का नाश होने से पहले (शरीर की मृत्यु से पूर्व) काम-क्रोध से पैदा होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति योगी है और वही सुखी है. (5/23)

जो व्यक्ति अपने (अंतःकरण) में सुख का अनुभव करता है, अपने में ही रमने वाला है तथा जिसकी अंदर की ज्योति परमात्मा में रमती है, वह ब्रह्म में बना हुआ योगी निर्वाण ब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त होता है. (5/24)

*प्रसंगवश*

इस संसार में जितनी भी वस्तुएं हमें मिलती हैं, वे सदा हमारे साथ नहीं रहती अतः हमें इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस संसार में प्राप्त कोई भी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य , धन-सम्पदा आदि मेरी नहीं है और सदा साथ रहने वाली नहीं है. अतः जो हमारे साथ सदा रहने वाली नहीं है, उसके बिना भी हम सदा के लिए सुखपूर्वक प्रसन्नता से रह सकते हैं.

सादर,

केशव राम सिंघल


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