Saturday, January 7, 2017

052 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#052 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 5 - कर्म संन्यास योग - श्लोक 13, 14 और 15*


5/13
*सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी !*
*नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् !!*


5/14
*न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु !*
*न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते !!*


*भावार्थ*

(श्रीकृष्ण अर्जुन से)

जिसकी इन्द्रियाँ और मन (अर्थात जिसका अंतःकरण) वश में है, ऐसा संयमी व्यक्ति सभी कर्मों का मन से परित्याग करके नौ द्वारों वाले भौतिक शरीर रूपी नगर में सुख से रहता हुआ न तो कर्म करता है और ना ही करवाता है. (5/13)

परमात्मा (भगवान) मनुष्यों के लिए ना तो कर्म का सृजन करता है, ना कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, ना ही कर्मफल की रचना करता है. यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है. (5/14)

*प्रसंगवश*

नौ द्वारों वाला भौतिक शरीर = मनुष्य शरीर जिसमें दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र, एक मुख तथा मल-मूत्र का त्याग करने के लिए उपस्थ और गुदा.

सर्वकर्माणि = सभी कर्मों का = शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि और प्राणों से होने वाली तेरह क्रियाएं

प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है. अतः सम्बन्ध बनाकर रहने के कारण व्यक्ति कर्मरहित नहीं हो सकता, पर राग और आसक्ति का त्याग कर व्यक्ति उन क्रियाओं का कर्ता नहीं बनता.

कर्म (या कर्तव्य) का सृजन, कर्म का करना और कर्मफल का संयोग परमात्मा (भगवान) की सृष्टि (रचना) नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और जीव की सृष्टि (रचना) है.

*जिज्ञासा*

जब परमात्मा (भगवान) कर्तव्य, कर्म और कर्मफल का सृजन नहीं करते तो कोई कैसे कर्मों के फलभागी हो सकता है?

इस जिज्ञासा को श्रीकृष्ण आगे के श्लोक में स्पष्ट करते हैं.

5/15
*नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: !*
*अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः !!*


(श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं) -
परमात्मा (भगवान) न तो किसी के पापकर्म को और न ही पुण्यकर्म को ग्रहण करते हैं, लेकिन सारे जीव अज्ञान से आच्छादित रहने के कारण मोहित हो रहे हैं. (5/15)

सादर,

केशव राम सिंघल


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