Wednesday, January 25, 2017

#059 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#059 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 6 - ध्यान योग - श्लोक 1 से 4*


6/1
*श्रीभगवानुवाच*
*अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः !*
*स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः !!*


6/2
*यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव !*
*न हयसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन !!*


6/3
*आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते !*
*योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते !!*


6/4
*यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते !*
*सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते !!*


*भावार्थ*

श्रीभगवान (श्रीकृष्ण) ने कहा -
जो व्यक्ति कर्मफल का आश्रय न लेकर (अर्थात् कर्मफल के प्रति अनासक्त रहकर) अपने कर्तव्य कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है और अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं होता और कर्मों का त्याग करने वाला योगी नहीं होता. (6/1)

हे अर्जुन ! जिसको लोग संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी व्यक्ति योगी नहीं हो सकता. (6/2)

जो व्यक्ति योग (समता) में संलग्न होना चाहता है, ऐसे मननशील व्यक्ति के लिए कर्तव्य कर्म करना एक साधन है और उस व्यक्ति के लिए यह (अर्थात् निष्काम भाव से दूसरों के हित में आसक्त का त्याग करते हुए विवेकपूर्वक कर्म करना) शान्ति प्राप्ति का साधन है. (6/3)

इसका कारण है कि जब व्यक्ति न तो इन्द्रियों के भोगों में और न ही कर्मों में आसक्त होता है, तब वह संपूर्ण संकल्पों का त्यागी व्यक्ति योगारूढ़ (योग में संलग्न) कहा जाता है. (6/4)

*प्रसंगवश*

श्रीकृष्ण भगवान का स्पष्ट संदेश है कि हमें कर्मफल के प्रति आसक्ति (राग) त्यागकर कर्तव्य कर्म करना चाहिए, जिससे दूसरों का हित होता हो.

संन्यास (सांख्ययोग) और योग (कर्मयोग) दोनों ही कल्याणकारी हैं, दोनों का फल भी एक ही है.

त्याग से शान्ति मिलती है.

कर्म करने के साथ कर्म का उद्देश्य महत्वपूर्ण है. आसक्ति रखने अथवा कामनापूर्ति के लिए कर्म करना और आसक्ति का त्याग करते हुए दूसरों के हित में कर्म करना , इन दोनों में बड़ा अंतर है. भोगी व्यक्ति अपने लिए कर्म करता है और कर्मयोगी दूसरों के लिए कर्म करता है.

*जिज्ञासा*

*संकल्पों का त्याग कैसे करें ?*


हमें मानव शरीर मिला है. यह अमूल्य है और इस जीवन में ही हमें अपना उद्धार करना है, ऐसा विचार करते हुए हमें निरर्थक संकल्पों से दूर रहना है. कर्मयोगी के रूप में दूसरों के हित में आसक्ति का त्याग करते हुए हमें कर्तव्य कर्म करना है. हमें यह विचार करना चाहिए और इस पर दृढ रहना चाहिए कि वास्तव में एक ही सता श्रीभगवान की है, संकल्पों या संसार की सत्ता नहीं है. अतः हमें संकल्पों से उदासीन रहना चाहिए, न ही राग करें और न ही द्वेष.

मन में जितनी भी बातें आती हैं, वे प्रायः भूतकाल या भविष्यकाल से सम्बंधित होती हैं अर्थात् जो गया या जो होने वाला है, पर यह सब अभी (वर्तमान में) नहीं है. जो अभी नहीं है, उसके चिंतन में समय बरबाद करने से बेहतर है कि हम श्रीभगवान के चिंतन में अपने समय को लगाएं. श्रीभगवान सर्वदा हैं और अभी भी हैं, ऐसा विचार कर निर्लिप्तभाव मन में लाएं.

सादर,

केशव राम सिंघल

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