Monday, January 23, 2017

#058 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#058 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*

*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 5 से मेरी सीख*


मुक्ति (मोक्ष या कल्याण, जो भी कहें) के लिए संन्यास (कर्मों का परित्याग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारी हैं, पर संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है.

संन्यास = सांख्ययोग = कर्मों का परित्याग, पर कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं और ऐसी साधना जिसमें विवेक-विचार की प्रमुखता रहती है और एक मात्र दृष्टि परमात्म तत्त्व पर रहती है.

कर्मयोग के बिना संन्यास का साधन होना कठिन है.

कर्मयोगी सेवा करने के लिए सभी को अपना मानता है, पर अपने लिए किसी को भी अपना नहीं मानता.

कोई भी व्यक्ति संन्यास (सांख्ययोग) या कर्मयोग का पालन कर सकता है. सांख्ययोगी कर्तव्य का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है. कर्मयोग में दूसरों की निष्काम भाव से सेवा करने से कामना-आसक्ति से सम्बन्ध विच्छेद होता है. संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग की साधन-प्रणाली भिन्न है, पर साध्य एक ही है.

संन्यास = सांख्ययोग = ज्ञानयोग

कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों का फल आत्मज्ञान अर्थात कल्याण अर्थात परमात्मा को प्राप्त करना है. हमें अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में रखनी चाहिए, अपना अंतःकरण (मन) निर्मल रखना चाहिए. हमें अपने समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर आसक्ति (राग, मोह) का त्याग कर कर्तव्य-कर्म सहित अपने सभी कर्म करने चाहिए, इस प्रकार हम ब्रह्म (परमात्मा) को प्राप्त कर सकेंगे.

हमें कर्म करना चाहिए और साथ ही कर्म करने का ज्ञान आना चाहिए. यदि हम कर्म करते हैं, पर कर्म करने की विद्या का हमें ज्ञान नहीं है अथवा कर्म करने की विद्या का ज्ञान तो है पर कर्म नहीं करते, तब दोनों ही स्थितियों में हमारे द्वारा सुचारुरूप से कर्म नहीं होते हैं. इसलिए कर्म करने के साथ कर्मों को जानना भी महत्वपूर्ण है.

परमात्मा का ध्यान करने से जब मन-बुद्धि में राग-द्वेष, कामना, विषमता का सर्वदा अभाव हो जाता है, तब अंतःकरण में स्वतः समता आ जाती है. सभी कुछ तो ब्रह्म (परमात्मा, भगवान) का है तो फिर किसी से कैसा द्वेष, राग या मोह ... यही भाव हमें समता की ओर ले जाता है.

इस संसार में जितनी भी वस्तुएं हमें मिलती हैं, वे सदा हमारे साथ नहीं रहती अतः हमें इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस संसार में प्राप्त कोई भी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, सामर्थ्य , धन-सम्पदा आदि मेरी नहीं है और सदा साथ रहने वाली नहीं है. अतः जो हमारे साथ सदा रहने वाली नहीं है, उसके बिना भी हम सदा के लिए सुखपूर्वक प्रसन्नता से रह सकते हैं.

सादर,

केशव राम सिंघल

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