कर्म, अकर्म और विकर्म – जीवन की दिशा
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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI)
कोई भी कार्य जो हम सोचकर, बोलकर या शरीर द्वारा करते हैं, वह कर्म कहलाता है। यह कोई भी छोटा या बड़ा काम हो सकता है। कर्म की सरल परिभाषा – कर्म वह कार्य है, जो मन, वाणी और शरीर द्वारा किया जाए। कर्म के कुछ उदाहरण – छात्र का पढ़ाई करना, किसान का खेत जोतना, माता-पिता का बच्चों की देखभाल करना, बात करना, चलना, खाना, पूजा करना, या किसी का बुरा सोचना। किसी का बुरा सोचना, झूठ बोलना, चोरी करना – ये भी कर्म हैं, लेकिन ये 'विकर्म' की श्रेणी में आते हैं।
हम सभी के जीवन की दिशा हमारी सोच और आचरण से तय होती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने "कर्म", "अकर्म" और "विकर्म" के भेद को स्पष्ट किया है। इन तीनों का सही बोध और संतुलन ही हमारे जीवन को सार्थक बना सकता है।
"कर्म" वह है जो धर्म, कर्तव्य और नैतिकता से प्रेरित होता है – जैसे शिक्षक द्वारा शिक्षा ज्ञान देना, डॉक्टर द्वारा मरीज का उपचार करना या माता-पिता द्वारा अपने बच्चों का पालन-पोषण करना। इस तरह का कर्म व्यक्ति और समाज – दोनों के हित में होता है। "अकर्म" देखने में निष्क्रियता जैसा लगता है, परंतु वास्तव में यह निस्वार्थ सेवा, फल की अपेक्षा से रहित कर्म को दर्शाता है। यह 'कर्म में अकर्ता-भाव' की वह अवस्था है, जहाँ व्यक्ति में अहं नहीं होता। "विकर्म" वह कर्म है जो अधर्म, लोभ, हिंसा, कपट और स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह व्यक्ति को पथभ्रष्ट करता है और अंततः आत्मा को भी कलुषित करता है।
नीचे प्रस्तुत मेरी लघु काव्य रचना इन्हीं तीनों रूपों को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है, ताकि पाठक आत्मचिंतन कर सकें – "मैं किस दिशा में जा रहा हूँ? जीवन में सही दिशा के लिए कर्म को अपनाइए, अकर्म का भाव जाग्रत रखिए, विकर्म से सदा दूर रहिए। इसी में हमारे जीवन की सच्ची सफलता और शांति निहित है।
काव्य रचना -
जीवन की राह – कर्म, अकर्म, विकर्म ,
इनको समझना यही सच्चा मानव धर्म।
कर्तव्य जो हो, धर्म से जुड़ा,
निष्पक्ष हो, सुनीति से बँधा।
वही है "कर्म", जो आगे बढ़ाए,
मानवता का दीप हममें जलाए।
"अकर्म" वो जो सेवा में रहे सदा तत्पर,
न फल की चिंता, न यश का कोई मंजर।
निस्वार्थ भाव से रहें सदा करुणा के संग,
अहं न हो, रहें सदा निर्मल उमंग।
"विकर्म" है भ्रष्ट आचार-विचार,
पाप में डूबा, छल का संसार।
हिंसा, कपट, लोभ की ओर,
करे मन को पथ-भ्रष्ट घोर।
जीवन में चुनो सही कर्म सदा,
कर्म का दीपक हो मन में जगा।
अकर्म का भाव रहे अंतर्मन में,
विकर्म से दूर रहें पूरे जीवन में।
सादर,
केशव राम सिंघल
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