शक्ति – जीवन का सेतु और स्वरूप
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सृष्टि में प्रत्येक जीवात्मा एक देवतुल्य अस्तित्व है।
हर देव में एक विशेष शक्ति निहित होती है, और यही शक्ति पराक्रम का आधार बनती है।
शक्ति ही वह तत्व है जो किसी भी कार्य को संपन्न करने की क्षमता प्रदान करता है। शक्ति के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता।
सत्य और शक्ति, दोनों ही तत्व इहलोक और परलोक के बीच सेतु का कार्य करते हैं।
सत्य, जहाँ चेतना को उच्चतर मार्ग दिखाता है, वहीं शक्ति उसे उस मार्ग पर चलने का सामर्थ्य देती है।
जीवात्मा की शक्ति दो स्तरों पर प्रकट होती है –
* एक प्रकृतिदत्त शक्ति, जो जन्मजात होती है,
* और दूसरी अर्जित शक्ति, जिसे अनुभव, अभ्यास, साधना और संघर्षों से प्राप्त किया जाता है।
जीवात्मा की आंतरिक शक्ति आत्मा में निहित होती है – यह चेतन, स्थिर और शुद्ध होती है।
वहीं, बाह्य शक्ति वह है जिसे जीव इस संसार में कर्म के माध्यम से प्राप्त करता है।
जीवन में शक्ति के अनेक रूप होते हैं –
* शारीरिक शक्ति
* बौद्धिक शक्ति
* मानसिक शक्ति
* प्राणशक्ति
* पोषण शक्ति
* संहार शक्ति
* आवेग और आवेश की शक्ति
* सहयोग की शक्ति
* आध्यात्मिक शक्ति
* आधिभौतिक शक्ति
* आधिदैविक शक्ति
* माया शक्ति
* रूप शक्ति
* बाहरी और आंतरिक शक्ति
प्रकृति का श्रेष्ठ प्रतीक सूर्य भी शक्ति का प्रतीक है।
सूर्य की शक्ति दो रूपों में प्रकट होती है –
* ताप से सृष्टि का कर्म और क्रिया संभव होती है।
* प्रकाश से रूप का अभिव्यक्त स्वरूप प्रकट होता है।
यही ताप और प्रकाश समस्त जीवों को ऊर्जा देते हैं, और यही ऊर्जा ही शक्ति का स्वरूप है।
सार
शक्ति जीवन की मूलभूत आवश्यकता है।
शक्ति केवल भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक, नैतिक और भावनात्मक स्तर पर भी आवश्यक है।
शक्ति के बिना चेतना निष्क्रिय है, संकल्प निर्बल है, और जीवन निष्फल।
इसलिए –
शक्ति है तो गति है, गति है तो सृष्टि है।
सादर,
केशव राम सिंघल ✍️
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