गीता अध्ययन एक प्रयास
ॐ
जय श्रीकृष्ण 🙏
गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप
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श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनाकाङ्क्षिणः।।
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नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।
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भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।
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मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
भावार्थ
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा -
तुमने मेरा यह रूप देखा है जिसे देख पाना बहुत कठिन है। देवता भी इस रूप के दर्शन को तरसते हैं। जैसा तुमने मुझे देखा, वैसा न वेदों से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न यज्ञ से देखना संभव है जैसे तुमने मुझे देखा है। परंतु हे अर्जुन, केवल भक्ति से ही मुझे समझना संभव है। हे परंतप (अर्जुन), इस प्रकार तुम सत्य को जान, देख और मुझमें एकाकार हो सकते हो। हे अर्जुन, जो मेरे लिए कर्म करता है, जो मुझमें परम है, जो मेरा भक्त है, तथा जो आसक्ति से रहित है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति द्वेष से रहित है, वह मुझे प्राप्त होता है।
प्रसंगवश
गीता के अध्याय 11 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हैं, जो अत्यंत दुर्लभ और अलौकिक है। श्लोक 52-55 में भगवान इस विराट रूप के दर्शन और उन्हें प्राप्त करने के मार्ग का सार बताते हैं। भगवान् का यह रूप उनकी अनंत महिमा और दिव्यता का प्रतीक है। सार रूप में ये श्लोक भक्ति के सर्वोच्च स्थान को स्थापित करते हैं। भगवान का विराट रूप, जो विश्व की संपूर्णता का द्योतक है, केवल अनन्य भक्ति से ही जाना और प्राप्त किया जा सकता है। यह भक्ति न केवल भगवान के प्रति समर्पण है, बल्कि निष्काम कर्म, वैराग्य, और सभी प्राणियों के प्रति प्रेम व करुणा का संगम है। जो इस मार्ग पर चलता है, वह भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करता है।
सादर,
केशव राम सिंघल
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