Saturday, May 24, 2025

कर्म, अकर्म और विकर्म – जीवन की दिशा

कर्म, अकर्म और विकर्म – जीवन की दिशा

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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI) 


कोई भी कार्य जो हम सोचकर, बोलकर या शरीर द्वारा करते हैं, वह कर्म कहलाता है। यह कोई भी छोटा या बड़ा काम हो सकता है। कर्म की सरल परिभाषा  – कर्म वह कार्य है, जो मन, वाणी और शरीर द्वारा किया जाए। कर्म के कुछ उदाहरण  – छात्र का पढ़ाई करना, किसान का खेत जोतना, माता-पिता का बच्चों की देखभाल करना, बात करना, चलना, खाना, पूजा करना, या किसी का बुरा सोचना। किसी का बुरा सोचना, झूठ बोलना, चोरी करना – ये भी कर्म हैं, लेकिन ये 'विकर्म' की श्रेणी में आते हैं।


हम सभी के जीवन की दिशा हमारी सोच और आचरण से तय होती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने "कर्म", "अकर्म" और "विकर्म" के भेद को स्पष्ट किया है। इन तीनों का सही बोध और संतुलन ही हमारे जीवन को सार्थक बना सकता है।


"कर्म" वह है जो धर्म, कर्तव्य और नैतिकता से प्रेरित होता है – जैसे शिक्षक द्वारा शिक्षा ज्ञान देना, डॉक्टर द्वारा मरीज का उपचार करना या माता-पिता द्वारा अपने बच्चों का पालन-पोषण करना। इस तरह का कर्म व्यक्ति और समाज – दोनों के हित में होता है। "अकर्म" देखने में निष्क्रियता जैसा लगता है, परंतु वास्तव में यह निस्वार्थ सेवा, फल की अपेक्षा से रहित कर्म को दर्शाता है। यह 'कर्म में अकर्ता-भाव' की वह अवस्था है, जहाँ व्यक्ति में अहं नहीं होता। "विकर्म" वह कर्म है जो अधर्म, लोभ, हिंसा, कपट और स्वार्थ से प्रेरित होता है। यह व्यक्ति को पथभ्रष्ट करता है और अंततः आत्मा को भी कलुषित करता है।


नीचे प्रस्तुत मेरी लघु काव्य रचना इन्हीं तीनों रूपों को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने का एक प्रयास है, ताकि पाठक आत्मचिंतन कर सकें – "मैं किस दिशा में जा रहा हूँ? जीवन में सही दिशा के लिए कर्म को अपनाइए, अकर्म का भाव जाग्रत रखिए, विकर्म से सदा दूर रहिए। इसी में हमारे जीवन की सच्ची सफलता और शांति निहित है। 


काव्य रचना


जीवन की राह – कर्म, अकर्म, विकर्म ,

इनको समझना यही सच्चा मानव धर्म। 


कर्तव्य जो हो, धर्म से जुड़ा,

निष्पक्ष हो, सुनीति से बँधा।

वही है "कर्म", जो आगे बढ़ाए,

मानवता का दीप हममें जलाए।


"अकर्म" वो जो सेवा में रहे सदा तत्पर,

न फल की चिंता, न यश का कोई मंजर।

निस्वार्थ भाव से रहें सदा करुणा के संग,

अहं न हो, रहें सदा निर्मल उमंग।


"विकर्म" है भ्रष्ट आचार-विचार,

पाप में डूबा, छल का संसार।

हिंसा, कपट, लोभ की ओर,

करे मन को पथ-भ्रष्ट घोर। 


जीवन में चुनो सही कर्म सदा,

कर्म का दीपक हो मन में जगा।

अकर्म का भाव रहे अंतर्मन में,

विकर्म से दूर रहें पूरे जीवन में। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 




Thursday, May 22, 2025

जीवन का लक्ष्य - परमात्मा की शरण

जीवन का लक्ष्य - परमात्मा की शरण 

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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI) 

मेरे मन में प्रश्न उठा कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है। मुझे लगता है कि परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करना और उनकी सेवा करना ही जीवन का असली लक्ष्य है। हम सभी परमात्मा का अंश हैं, और यह मानव जीवन उनकी कृपा से मिला है। यह शरीर प्रकृति से बंधा है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।


विज्ञान और आध्यात्मिकता 


हमें यह समझने की जरुरत है कि इस ब्रह्माण्ड के आदि, अंत अथवा आधार के बारे में कोई नहीं जान सकता। विज्ञान और आध्यात्मिकता, दोनों ही इस ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के प्रयास हैं। वैज्ञानिक बिग बैंग सिद्धांत के माध्यम से ब्रह्मांड की उत्पत्ति और गुरुत्वाकर्षण जैसे नियमों के माध्यम से इसके संचालन को समझने का प्रयास करते हैं। ये सिद्धांत हमें भौतिक जगत की कार्यप्रणाली समझाते हैं, जैसे ग्रहों की गति या पदार्थ का व्यवहार। परंतु, ब्रह्मांड के आदि, अंत, या इसके मूल स्रोत के बारे में विज्ञान अभी तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया है। दूसरी ओर, आध्यात्मिक दर्शन हमें बताता है कि इस ब्रह्मांड का आधार एक चेतन शक्ति, परमात्मा, है, जो सृष्टि का स्रोत और संचालक है। विज्ञान भौतिक सत्य की खोज करता है, जबकि आध्यात्मिकता हमें उस शाश्वत सत्य की ओर ले जाती है, जो आत्मा और परमात्मा के संबंध में निहित है। दोनों दृष्टिकोण एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं—विज्ञान हमें प्रकृति के नियम समझाता है, और आध्यात्मिकता हमें उस सत्य की ओर ले जाती है, जो इन नियमों से परे है। 

 

आसक्ति के पाँच बंधन 


हमारा शरीर पाँच आसक्तियों से बंधा है, जो हमें परमात्मा से दूर रखती हैं - 


1. शरीर के प्रति आसक्ति - हम अपनी शारीरिक सुंदरता और स्वास्थ्य को लेकर इतने चिंतित रहते हैं कि आत्मा की ओर ध्यान नहीं देते।  

2. स्वजनों के प्रति आसक्ति - परिवार और रिश्तों के प्रति प्रेम हमें इतना बाँध लेता है कि हम परमात्मा की ओर बढ़ना भूल जाते हैं।  

3. भौतिक वस्तुओं से आसक्ति - धन, संपत्ति, और सांसारिक सुखों की चाह हमें भटकाती है और आध्यात्मिक लक्ष्य से दूर ले जाती है।  

4. विज्ञान की आसक्ति - हम भौतिक ज्ञान को ही अंतिम सत्य मान लेते हैं, जिससे आत्मा और परमात्मा का सत्य अनदेखा रह जाता है।  

5. धार्मिक अनुष्ठानों की आसक्ति - परमात्मा को जाने बिना हम रस्मों और अनुष्ठानों में उलझ जाते हैं, जो हमें सच्ची भक्ति से दूर रखते हैं।  


इन बंधनों से मुक्ति पाकर हमें परमात्मा के शाश्वत धाम की ओर बढ़ना चाहिए, जहाँ आत्मा को शांति और आनंद मिलता है। इसके लिए हमें ध्यान, भक्ति, और निस्वार्थ सेवा का मार्ग अपनाना चाहिए। ध्यान का अर्थ है मन को शांत कर परमात्मा पर केंद्रित करना, और भक्ति का अर्थ है प्रेम और समर्पण के साथ उनकी सेवा करना।


परमात्मा की कृपा से मुझे यह मानव जीवन मिला है, जो अन्य योनियों से श्रेष्ठ है। यह शरीर लाखों वर्षों के देहांतरण चक्र के बाद प्राप्त हुआ है। जो जीव परमात्मा से जुड़ जाता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत धाम में पहुँचता है। हमने पहले यह प्रयास किया होगा, पर सफल न होने के कारण हमें यह अवसर पुनः मिला है। हमें इस मानव जीवन के लिए परमात्मा का आभार मानना चाहिए और उनके साथ जुड़ने का प्रयास करना चाहिए। 


जीव के लिए यह शरीर प्रकृति (संसार) से बंधा हुआ है और जीव का शरीर जीव के लिए कर्म-क्षेत्र है। प्रकृति भौतिक जगत है और शरीर के द्वारा जीव प्रकृति को अपने वश में करना चाहता है। शरीर इन्द्रियों से निर्मित भौतिक यंत्र है, जिसे आत्मा से चेतना मिलती है। जीव शरीर के भीतर है और आत्मा जीव के भीतर चेतना का स्रोत है। आत्मा, जो जीव के भीतर चेतना-पुंज है, वह परमात्मा का ही एक अंश है। आत्मा शरीर की स्वामी है और जब तक वह शरीर में है तब तक शरीर में चेतना है। जीव को शरीर में रहने वाली आत्मा कहा जा सकता है। 


 दुःखमय संसार से मुक्ति 


हमारा यह संसार जन्म, मृत्यु, और दुःखों से भरा है। हमारा परम कल्याण परमात्मा के शाश्वत धाम में है, जहाँ आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत शांति और आनंद प्राप्त करता है। इसके लिए हमें आसक्ति और मोह से मुक्त होना होगा। 


आध्यात्मिक उन्नति का अवसर 


मैं अब 74 वर्ष से अधिक आयु का हूँ और सुविधाजनक जीवन जी रहा हूँ। मुझे भोजन और दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या नहीं है, और मेरी इच्छाएँ सीमित हैं। इसलिए, मुझे लगता है कि यह आध्यात्मिक उन्नति का सुअवसर है। उदाहरण के लिए, मैं ध्यान, प्रार्थना और गीता अध्ययन के माध्यम से परमात्मा से जुड़ने का प्रयास करता हूँ। मैं परमात्मा का अंश हूँ, और मेरी आत्मा मेरे शरीर को संचालित करती है। इसी तरह, अन्य जीवों की आत्माएँ उनके शरीरों को चलाती हैं, और यही चेतना इस विश्व को गतिमान रखती है। मनुष्य अपने शरीर की चिंता तो करता है, पर आत्मा के बारे में सोचता नहीं, जो वास्तव में उसे संचालित करती है।


हमें परमात्मा के शाश्वत धाम में  शाश्वत जीवन अर्थात्त अपने आध्यात्मिक अस्तित्व को खोजना चाहिए। परमात्मा का शाश्वत धाम वह नित्य लोक है, जहाँ पहुँचने के बाद हमारे आगे की देहांतरण यात्रा समाप्त हो जाती है और हम शाश्वत जीवन जीते हैं। 


मेरा सांसारिक जीवन कब प्रारम्भ हुआ, मुझे नहीं पता और ना ही मैं खोज सकता। कब मैं इस संसार से बँध गया, यह भी मुझे नहीं पता। मेरा सांसारिक जीवन संभवतः अनादि काल से चल रहा है और अब मेरा लक्ष्य परमात्मा की शरण में जाना है। इसके लिए मुझे आसक्ति को त्यागना होगा, मोह से मुक्त होना होगा।  


जिस ब्रह्माण्ड में मैं रह रहा हूँ, वह परमात्मा के उस शाश्वत धाम से भिन्न है। परमात्मा का शाश्वत धाम एक आध्यात्मिक जगत है, जो दिव्य प्रकाश से प्रकाशित है।  


हमारे अस्तित्व के दो पक्ष हैं - 


(1) भौतिक अस्तित्व - वर्तमान शरीर स्वरूप 


(2) आध्यात्मिक अस्तित्व 


भौतिक अस्तित्व जन्म, मृत्यु, ज़रा और व्याधि के दुःखों से भरा पड़ा है। इसमें हम शरीर और मन की धारणा से शासित होते हैं। आध्यात्मिक अस्तित्व में निर्बाध आध्यात्मिक जीवन मिलता है जो शाश्वत होने के साथ आनंद और ज्ञान से परिपूर्ण होगा। आध्यात्मिक अस्तित्व में आत्मा परमात्मा के निरंतर दिव्य संपर्क में रहेगी। हमें अपनी चेतना अर्थात् आत्मा को परमात्मा पर केंद्रित करना चाहिए। परमात्मा से जुड़ने के लिए हमें ध्यान, भक्ति, और निस्वार्थ सेवा का अभ्यास करना चाहिए। विज्ञान भौतिक जगत की व्याख्या करता है, परंतु आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझने के लिए आध्यात्मिक चिंतन आवश्यक है। 


सार 


इस मानव जीवन का उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है। ध्यान, प्रार्थना, निस्वार्थ सेवा, और शास्त्रों का अध्ययन इस मार्ग को प्रशस्त करते हैं। प्रत्येक दिन परमात्मा का स्मरण करें, उनकी कृपा के लिए आभार व्यक्त करें, और अपने कर्मों को उनकी सेवा में समर्पित करें। ऐसा करके हम जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर शाश्वत धाम में शांति व आनंद प्राप्त कर सकते हैं। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


Tuesday, May 20, 2025

114 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏 

गीता अध्याय 12 - भक्तियोग 

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भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को भगवान् के साकार, निराकार और सर्व व्यापक तत्व को बता चुके हैं। गीता के बारहवें अध्याय में भगवान् भक्तियोग के बारे में अर्जुन को ज्ञान देते हैं। 


12 / 1 

अर्जुन उवाच 

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।। 


12 / 2 

श्रीभगवानुवाच 

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। 

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।। 


12 / 3 

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कुत्स्थामचलं ध्रुवम्।। 


12 / 4 

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभुतहिते रताः।। 


12 / 5 

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।। 


12 / 6 

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।


12 / 7 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। 


12 /  8 

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय।।


12 / 9 

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्च्हाप्तुं धनञ्जय।। 


12 /  10 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।। 


12 / 11 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।

सर्वकर्मफ़लत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।। 


12 / 12 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।

ध्यानात्कर्मफ़लत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।। 


12 / 13 

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करून एव च।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।


12 / 14 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।। 


12 / 15 

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। 


12 / 16 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।


12 / 17 

यो न ह्यष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।। 


12 / 18 

समः शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।


12 / 19 

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनाचित्।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।


12 / 20 

ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।। 


भावार्थ 


अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा - 


इस प्रकार निरन्तर लगे हुए भक्तजन आपकी पूजा करते हैं या जो अप्रकट ब्रह्म की पूजा करते हैं, उनमें से कौन सा योग मार्ग सर्वश्रेष्ठ है? 


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 


जो लोग मुझमें मन लगाकर सदैव स्थिर होकर मेरी पूजा करते हैं और परम श्रद्धा से युक्त हैं, मैं उन्हें योग में परम सिद्ध मानता हूँ। जो इन्द्रिय अनुभूति से परे हैं, अवर्णनीय हैं, अव्यक्त हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं, जो सर्वव्यापी और अकल्पनीय है और जहाँ भी है, वहाँ निश्चित रूप से अपरिवर्तनीय है। जो इन्द्रिय-समूह को वश में करके वे सर्वत्र समचित्त और समदर्शी रहते हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं। जिन लोगों का मन भगवान् के अव्यक्त में आसक्त है, उनके लिए दुःख अधिक है, क्योंकि अव्यक्त में आसक्ति मार्ग देहधारी मनुष्य के लिए अधिक कष्टकर होता है। लेकिन जो लोग अपने समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर देते हैं और मुझमें ही समर्पित हो जाते हैं, वे अनन्त योग से मेरा ध्यान करते हुए मेरी पूजा करते हैं। मैं उन्हें मृत्यु और भवसागर से मुक्ति दिलाने वाला हूँ। हे अर्जुन, जिनका मन मुझमें स्थिर है, उनके लिए मैं जन्म-मृत्यु के चक्र से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ। अपना मन केवल मुझमें ही लगाओ और अपनी बुद्धि मुझमें ही एकाग्र करो। इस प्रकार तुम निःसंदेह मुझमें वास कर सकोगे। हे अर्जुन, यदि तुम अपना मन मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो भक्तिरूप मार्ग से मुझे प्राप्त कर सकते हो। यदि तुम भक्ति योग के विधि-विधानों को करने में असमर्थ हो, किन्तु मेरे लिए कर्मो के द्वारा समर्पित रहो। मेरे लिए भी कर्म करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त कर सकते हो । मेरे योग का आश्रय लेने के लिए यदि तुम यह भी करने में असमर्थ हो, तो फिर आत्मसंयम के साथ सभी कर्मों के फलों का त्याग कर दो। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, और ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ होता है और ऐसे त्याग से शांति प्राप्त होती है। जो सभी प्राणियों का मित्र और कर्ता है, वह किसी से घृणा नहीं करता। ऐसा व्यक्ति आसक्ति और अहंकार से मुक्त होता है, दुःख और सुख में समान रहता है, तथा क्षमावान होता है। ऐसा व्यक्ति सदैव संतुष्ट, आत्म-संयमी, दृढ़ निश्चयी होता है, जिसने अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित कर दिया है और जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। जिससे दुनिया नहीं डरती, और जो दुनिया से नहीं डरता, जो हर्ष, क्रोध, भय और चिंता से मुक्त है, वह मुझे प्रिय है। जो निःस्वार्थ, शुद्ध, सक्षम, उदासीन और पीड़ा से मुक्त है। जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर देता है, वह मुझे प्रिय है। जो घृणा नहीं करता, शोक नहीं करता, इच्छा नहीं करता। जो अच्छाई और बुराई का त्याग कर देता है और भक्ति से पूर्ण है, वह मुझे प्रिय है। जो शत्रु और मित्र के प्रति, तथा सम्मान और अपमान के प्रति समान है। जो सर्दी और गर्मी में, सुख और दुःख में सम रहता है और आसक्ति से रहित है। जो निन्दा और प्रशंसा समान भाव रख संतुष्ट और मौन रहता है। जो घर-बार की परवाह नहीं करता, मन से स्थिर, भक्त है, वह मेरा प्रिय है। जो लोग भक्ति के इस धर्म-पथ की उपासना करते हैं, मुझमें श्रद्धा रखते हैं और मुझमें पूर्णतया तत्पर रहते हैं, वे मुझे बहुत प्रिय हैं। 


प्रसंगवश 


गीता का बारहवाँ अध्याय, भक्तियोग, भक्ति के मार्ग को समझने में महत्वपूर्ण है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं कि साकार (भगवान के व्यक्त रूप) और निराकार (अव्यक्त, निर्गुण) भक्ति में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो भक्त उनके साकार रूप में (उनके व्यक्तित्व में) श्रद्धा और एकाग्रता के साथ भक्ति करते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं, क्योंकि यह मार्ग सरल और अधिक सुलभ है। निराकार, निर्गुण ब्रह्म की उपासना कठिन है, क्योंकि यह देहधारी मनुष्य के लिए जटिल और दुखदायी हो सकता है। फिर भी, जो इसे समर्पण और संयम के साथ करते हैं, वे भी भगवान को प्राप्त करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण भक्ति के निम्न क्रमबद्ध मार्ग बताते हैं - 


   - मन को भगवान में स्थिर करना 

   - यदि यह संभव न हो, तो अभ्यास योग

   - यदि अभ्यास भी कठिन हो, तो भगवान के लिए कर्म करना 

   - और यदि यह भी संभव न हो, तो कर्मफल का त्याग करना 


गीता के इस अध्याय में ज्ञान, ध्यान, और कर्मफल त्याग का क्रमबद्ध महत्व बताया गया है। कर्मफल त्याग से शांति प्राप्त होती है, जो भक्ति का अंतिम लक्ष्य है। गीता के इस अध्याय में एक आदर्श भक्त के गुणों का वर्णन है, जैसे कि सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा, निर्ममता, निरहंकारिता, समदृष्टि, संतुष्टि, और आत्मसंयम वाला भक्त भगवान को अत्यंत प्रिय होता है। जो भक्त श्रद्धा और समर्पण के साथ इस भक्तियोग का पालन करते हैं, वे भगवान के परम प्रिय होते हैं और उन्हें परम शांति प्राप्त होती है।


भक्तियोग भगवद्गीता का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो भक्ति को सबसे सरल और प्रभावी मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है। यह साकार और निराकार भक्ति की तुलना करता है, लेकिन साकार भक्ति को अधिक सुलभ और श्रेष्ठ बताता है। यह अध्याय भक्त के गुणों और भक्ति के विभिन्न स्तरों को समझाकर भक्तियोग को जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता है। परम सत्य की अनुभूति की विभिन्न विधियों में भक्तियोग श्रेष्ठ मार्ग है जिससे भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है 


सादर,

केशव राम सिंघल 

 


Sunday, May 18, 2025

113 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏

गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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11 / 52 

श्रीभगवानुवाच 


सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनाकाङ्क्षिणः।। 


11 / 53 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। 


11 / 54 

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। 


11 / 55 

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। 

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 


तुमने मेरा यह रूप देखा है जिसे देख पाना बहुत कठिन है। देवता भी इस रूप के दर्शन को तरसते हैं। जैसा तुमने मुझे देखा, वैसा न वेदों से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न यज्ञ से देखना संभव है जैसे तुमने मुझे देखा है। परंतु हे अर्जुन, केवल भक्ति से ही मुझे  समझना संभव है। हे परंतप (अर्जुन), इस प्रकार तुम सत्य को जान, देख और मुझमें एकाकार हो सकते हो। हे अर्जुन, जो मेरे लिए कर्म करता है, जो मुझमें परम है, जो मेरा भक्त है, तथा जो आसक्ति से रहित है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति द्वेष से रहित है, वह मुझे प्राप्त होता है।


प्रसंगवश 


गीता के अध्याय 11 में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हैं, जो अत्यंत दुर्लभ और अलौकिक है। श्लोक 52-55 में भगवान इस विराट रूप के दर्शन और उन्हें प्राप्त करने के मार्ग का सार बताते हैं। भगवान् का यह रूप उनकी अनंत महिमा और दिव्यता का प्रतीक है। सार रूप में ये श्लोक भक्ति के सर्वोच्च स्थान को स्थापित करते हैं। भगवान का विराट रूप, जो विश्व की संपूर्णता का द्योतक है, केवल अनन्य भक्ति से ही जाना और प्राप्त किया जा सकता है। यह भक्ति न केवल भगवान के प्रति समर्पण है, बल्कि निष्काम कर्म, वैराग्य, और सभी प्राणियों के प्रति प्रेम व करुणा का संगम है। जो इस मार्ग पर चलता है, वह भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करता है। 


सादर,

केशव राम सिंघल 


Saturday, May 17, 2025

112 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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11 / 47 

श्रीभगवानुवाच 

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शित्मात्मयोगात्।

तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। 


11 / 48 

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।

एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं तवदन्येन कुरु प्रवीर।। 


11 / 49 

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ् ममेदम्।

व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।। 


11 / 50 

सञ्जय उवाच 

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।। 


11 / 51 

अर्जुन उवाच 

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।

इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।


भावार्थ  


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 


हे अर्जुन, मैंने प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें यह अपनी अन्तरङ्गशक्ति से यह रूप दिखाया है। यह तेजोमय समग्र ब्रह्माण्ड, अनन्त और मौलिक, जिसे आपके अलावा किसी ने पहले कभी नहीं देखा। न तो वेदों के अध्ययन से और यज्ञों से, न ही दान से, न ही अनुष्ठानों से, न ही कठोर तपस्या से, 

हे पराक्रमी (अर्जुन), आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे इस भौतिक जगत में इस रूप में नहीं देख सकता। मेरे इस भयानक रूप को देखकर तुम व्याकुल मत होओ और न ही भ्रमित होओ, तुम्हारा भय दूर करता हूँ और मन प्रसन्न हो गया है, अब तुम मेरे इसी रूप को फिर से देखो। 


संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - 


श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा कहकर वसुदेवजी (भगवान् श्रीकृष्ण) ने पुनः उसे अपना स्वरूप दिखाया। फिर भगवान् ने सौम्य रूप धारण कर भयभीत अर्जुन को धैर्य प्रदान किया। 


अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा -


हे जनार्दन (भगवान् श्रीकृष्ण), आपके इस सौम्य मानव रूप को देखकर अब मैं शांत हो चुका हूँ, होश में हूँ और प्रकृति के बीच वापस चला गया हूँ। 


प्रसंगवश 


गीता अध्याय 11 के 47 से 51 श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को अपने विराट रूप के दर्शन और उसके बाद सौम्य रूप में वापसी का वर्णन है। श्लोक 47 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि उन्होंने अपनी योगमाया से प्रसन्न होकर अर्जुन को अपना तेजोमय, अनन्त, विश्वरूप दिखाया, जो पहले किसी ने नहीं देखा। श्लोक 48 में वे कहते हैं कि यह विराट रूप न वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, कर्मकांड, या तपस्या से देखा जा सकता है; यह केवल अर्जुन को विशेष कृपा से दिखाया गया। श्लोक 49 में भगवान अर्जुन को इस भयावह रूप से विचलित या भ्रमित न होने का आश्वासन देते हैं और कहते हैं कि अब वे अपने सौम्य रूप में वापस आ रहे हैं। श्लोक 50 में संजय युद्धिष्ठर को बताते हैं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना सामान्य (सौम्य) रूप पुनः दिखाया और भयभीत अर्जुन को सांत्वना दी। श्लोक 51 में अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि भगवान के सौम्य मानव रूप को देखकर अब वे शांत, सचेत, और अपनी सामान्य अवस्था में लौट आए हैं।


ये श्लोक भगवान के विराट और सौम्य दोनों रूपों के दर्शन के महत्व को दर्शाते हैं। विराट रूप भगवान की अनन्तता और सर्वोच्चता को प्रकट करता है, जबकि सौम्य रूप उनकी करुणा और भक्त के साथ सामान्य संबंध को दर्शाता है। यह अध्याय भक्ति, कृपा, और भगवान के स्वरूप के प्रति श्रद्धा का महत्व भी रेखांकित करता है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


Sunday, May 11, 2025

111 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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प्रतीकात्मक चित्र साभार - ओपनएआई (OpenAI) 

11 / 41   

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।


11 / 42 

यच्चावहासार्थमसत्क्रितोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।

एकोऽथावाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वाम्हमप्रमेयम्।। 


11 / 43 

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।। 


11 / 44 

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।


11 / 45 

अदृष्टपूर्वं ह्रषितोऽस्मि द्रष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।

तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 


11 / 46 

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।


भावार्थ 


अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा - 


मैंने आपको मित्र मान कर बलपूर्वक कहा, हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र। मैंने आपकी महिमा को न तो लापरवाही से जाना है, न प्रेम से। हे अच्युत (श्रीकृष्ण),  यह कि मनोरंजन, आराम, आसन और भोजन करते समय उपहास के लिए कई बार आपका अनादर किया, कभी अकेले, कभी मित्रों के समक्ष, कृपया मुझे क्षमा करें। आप समस्त चर-अचर जगत के जनक हैं और आप ही इसके आदरणीय तथा महानतम गुरु हैं। हे अप्रतिम प्रभाव वाले (भगवान् श्रीकृष्ण) तीनों लोकों में आपके समान या आपसे बड़ा कोई नहीं है, अन्य की तो बात ही क्या करें। अतः मैं नतमस्तक होकर, ध्यान करते हुए, अपने शरीर को प्रसन्न करता हूँ, हे प्रभु, मैं आपकी कृपा की याचना करता हूँ। हे प्रभु (भगवान् श्रीकृष्ण), आप अपने प्रियतम के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा एक पिता अपने पुत्र के साथ करता है, जैसा एक मित्र अपने मित्र के साथ करता है। आपका विराट रूप देखकर बहुत खुश हूँ, जो मैंने पहले कभी नहीं देखा और मेरा मन पुलकित हो गया है। हे देवों के देव, हे जगन्निवास (भगवान् श्रीकृष्ण), कृपया मुझे पुनः वही रूप दिखाइये। मैं आपको हाथ में मुकुट, गदा और चक्र लिए देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ति (भगवान् श्रीकृष्ण), आप उसी रूप में चतुर्भुज रूप में  हजार भुजाओं वाले बनिए। 


प्रसंगवश 


इन श्लोकों में अर्जुन का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण, भक्ति और उनके विराट रूप को देखकर उत्पन्न विस्मय व भय का सुंदर चित्रण है। श्लोक 41-42 में अर्जुन अपनी भूल के लिए क्षमा माँगते हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को सखा मानकर अनौपचारिकता और उपहास किया, जो उनकी महिमा को न जानने के कारण हुआ। यहाँ अर्जुन का विनम्र भाव और प्रेमपूर्ण समर्पण झलकता है। श्लोक 43-४४ में अर्जुन श्रीकृष्ण को विश्व के पिता, गुरु और सर्वोच्च मानते हुए उनकी अतुलनीय महिमा की प्रशंसा करते हैं। वे प्रणाम कर, पिता-पुत्र और मित्र-मित्र जैसे प्रेमपूर्ण संबंध की भावना से कृपा की याचना करते हैं। श्लोक 45-46 में अर्जुन श्रीकृष्ण के विराट रूप से हर्षित और भयभीत दोनों हैं। वे प्रभु से अपने परिचित चतुर्भुज रूप (मुकुट, गदा, चक्र सहित) में दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं, जो उनकी भक्ति और सहजता को दर्शाता है। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 


110 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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11 / 32  


श्रीभगवानुवाच 


कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।। 


11 / 33  

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।। 


11 / 34 

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।


11 / 35 

सञ्जय  उवाच 

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।

नमस्कृत्वा भूय एवाः कृष्णं सगद्रदं भीतभीतः प्रणम्य।। 


11 / 36 

अर्जुन उवाच 

स्थाने ह्रषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।


11 / 37 

कस्माश्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।

अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।। 


11 / 38 

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरुप।। 


11 / 39 

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि  नमो नमस्ते।। 


11 / 40 

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।

अनन्त्वीर्यामितविक्रंस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।। 


भावार्थ 


भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - 


मैं काल हूँ, लोकों का नाश करने वाला,लोगों का विनाश करने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम्हारे सिवा विरोधी सेनाओं में कोई अन्य योद्धा खड़ा नहीं रहेगा। हे सव्यसाची (अर्जुन), इसलिए उठो और यश प्राप्त करो, अपने शत्रुओं पर विजय पाओ और समृद्ध राज्य का आनन्द लो। मैंने इन्हें पहले ही मार दिया है, तुम तो युद्ध में निमित्तमात्र हो। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य वीर योद्धाओं को मैंने पहले ही मार दिया है, अतः उनको मार डालो, चिन्ता मत करो, युद्ध करो, तुम युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे।

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा - 

केशव (भगवान् श्रीकृष्ण) के ये वचन सुनकर किरीटी (अर्जुन) हाथ जोड़कर कांपने लगे और भयभीत होकर उसने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम कर अवरुद्ध स्वर में इस प्रकार कहा। 


अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा - 

हे हृषीकेश (श्रीकृष्ण), आपके नाम के श्रवण से संसार आनन्दित होता है और आपकी कीर्ति से आकर्षित होता है। राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भाग रहे हैं और सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं। हे महान् आत्मा (भगवान् श्रीकृष्ण), आप अनन्त देवों के स्वामी हैं, ब्रह्माण्ड के स्रोत हैं, आप अविनाशी सत्ता और परब्रह्म हैं। फिर वे उस महान ब्रह्म के रचयिता को क्यों नहीं प्रणाम करें? आप आदिदेव हैं, आप पुरातन पुरुष हैं, आप इस ब्रह्मांड के सर्वोच्च निधि हैं। हे अनंत रूप (भगवान् श्रीकृष्ण) आप ही जानने योग्य और परम धाम के ज्ञाता हैं और आप ही से यह जगत व्याप्त है। आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, सृष्टिकर्ता और पितामह हैं। मैं आपको हजार बार नमस्कार करता हूँ और मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। आगे और पीछे से आपको नमस्कार है, हर जगह और चारो ओर से आपको नमस्कार है। आप अनन्त और अपरिमित शक्तिमान हैं, आप सबमें व्याप्त हैं, अतः आप ही सब कुछ हैं। 


प्रसंगवश 


गीता श्लोक 32 से 40 में भगवान श्रीकृष्ण अपने विराट स्वरूप के माध्यम से अर्जुन को यह समझाते हैं कि वे कालरूप में विश्व का संहार करने वाले हैं और युद्ध के परिणाम पहले ही निश्चित हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म में प्रवृत्त होने और यश प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि द्रोण, भीष्म, कर्ण जैसे योद्धा भगवान द्वारा पहले ही निहत किए जा चुके हैं, और अर्जुन केवल निमित्तमात्र है। संजय इस दृश्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि अर्जुन भयभीत और विनम्र होकर भगवान को प्रणाम करते हैं। इसके बाद, अर्जुन भगवान की स्तुति करते हैं, उन्हें विश्व के मूल स्रोत, अनंत, सर्वव्यापी, और सभी रूपों (वायु, यम, अग्नि आदि) में विद्यमान बताते हैं। वे बार-बार भगवान को नमस्कार करते हैं, उनकी अनंत शक्ति और महिमा को स्वीकार करते हुए।


इन श्लोकों का मुख्य संदेश निम्न है - 


- भगवान सर्वशक्तिमान और विश्व के नियंता हैं; सभी घटनाएँ उनकी इच्छा से संचालित होती हैं।


- मनुष्य को केवल अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, क्योंकि परिणाम भगवान के हाथ में है।


- भगवान की महिमा अनंत है, और उनकी भक्ति व विनम्रता ही मनुष्य को सही मार्ग दिखाती है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 


Wednesday, May 7, 2025

109 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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11 / 24 

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।

दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यधितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।। 


11 / 25 

दन्ष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 


11 / 26 

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घै:।

भीष्मो द्रोणः सुत्पुत्र्स्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ।।


11 / 27 

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दन्ष्ट्राकरालानि भयानकानि।

केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।। 


11 / 28 

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।

तथा तवामि नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। 


11 / 29 

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। 

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।। 


11 / 30 

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः। 

तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।। 


11 / 31 

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु देववर प्रसीद।

विग्यातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।


भावार्थ 


अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं - 


हे विष्णु (भगवान् श्रीकृष्ण), आपका चेहरा आसमान को छू रहा है और वह कई रंगों में चमक रहा है। आपकी आँखें बड़ी और चमक रही है। 

आपको देखकर मेरी अन्तरात्मा व्याकुल हो गयी है और मुझे न तो धैर्य मिलता है और न ही शांति। हे देवों के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के पालनहार, आपका चेहरा और नुकीले दाँत भयानक और प्रलय की तरह लग रहे हैं, मैं संतुलन नहीं रख पा रहा हूँ। मुझ पर दया करो। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र तथा अनेक राजाओं की सेना सहित भीष्म, द्रोण, सूतपुत्र (कर्ण)और हमारे प्रमुख योद्धाओं के साथ आपके भयानक और डरावने नुकीले दाँतों के बीच आपके मुँह में घुसे हुए आपके दाँतों तले दबे पड़े दिखाई देते हैं, उनके ऊपरी अंग कुचले हुए दिखाई देते हैं। जैसे बहुत सी नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं, उसी प्रकार मनुष्यों की दुनिया के नायक तुम्हारे प्रज्ज्वलित चेहरों में प्रवेश कर रहे हैं। जैसे पतंगे जलती हुई आग में स्वयं नष्ट होने के लिए तीव्र गति से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार समस्त लोक विनाश के लिए तीव्र गति से तुम्हारे मुख में प्रवेश कर रहे हैं। हे विष्णु, आप अपने ज्वलन्त मुखों से सम्पूर्ण संसार को चाटकर निगल रहे हो। आपकी प्रचण्ड किरणें सम्पूर्ण जगत को अपने तेज से परिपूर्ण कर रही हैं। हे देव-वर (देवताओं में श्रेष्ठ), कृपया मुझे बताइये कि आप कौन हैं? कृपया प्रसन्न होइये। मैं आपको मूल रूप से, जानना चाहता हूँ, क्योंकि मैं आपके प्रयोजन को नहीं जान पा रहा हूँ। 


प्रसंगवश 


गीता के ग्यारहवें अध्याय के उपर्युक्त वर्णित श्लोकों में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप को देखकर अभिभूत और भयभीत होकर उनकी महिमा का वर्णन करते हैं। भगवान का यह रूप विशाल, तेजस्वी, बहुरंगी और भयंकर है, जिसमें उनकी चमकती विशाल आँखें, नुकीले दाँत और प्रलयकारी मुख दिखाई देते हैं। इस दृश्य को देखकर अर्जुन का मन व्याकुल हो जाता है, और वे धैर्य व शांति खो देते हैं। वे देखते हैं कि धृतराष्ट्र के पुत्र, भीष्म, द्रोण, कर्ण सहित अनेक योद्धा भगवान के भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे हैं, जहां उनके शरीर दाँतों तले कुचले जा रहे हैं। अर्जुन इस दृश्य की तुलना नदियों से करते हैं, जो समुद्र में समा जाती हैं, और पतंगों से, जो आग में जलकर नष्ट हो जाते हैं। भगवान के तेजस्वी मुख समस्त लोकों को निगल रहे हैं, और उनकी प्रचंड किरणें सृष्टि को तप्त कर रही हैं। अंत में, अर्जुन भय और श्रद्धा के साथ भगवान से उनके इस उग्र रूप का परिचय पूछते हैं, उनकी कृपा मांगते हैं और उनके मूल स्वरूप व प्रयोजन को समझने की इच्छा व्यक्त करते हैं।


यह खंड भगवान श्रीकृष्ण के सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक और सृष्टि के नियामक स्वरूप को दर्शाता है, जो काल और कर्म के अधीन सभी को समेट लेता है।


सादर,

केशव राम सिंघल 


Monday, May 5, 2025

108 - गीता अध्ययन एक प्रयास

गीता अध्ययन एक प्रयास 

जय श्रीकृष्ण 🙏


गीता अध्याय 11 - भगवान् का विराट रूप 

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11 / 15 

अर्जुन उवाच 

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्। 

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषिश्च सर्वानुरंगाश्च दिव्यान्।। 


11 / 16 

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरुपम्। 

नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।। 


11 / 17 

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमनम्। 

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्। 


11 / 18 

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।

त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगॊप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।


11 / 19 

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।

पश्यामि त्वां दॆप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।


11 / 20 

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।

द्रष्टाव्द्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।। 


11 / 21 

अमी हि त्वां सुरसङ्गा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।

स्वस्तीत्युक्त्वा महर्शिसिद्धसङ्घाः  स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।। 


11 / 22  

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।। 


11 / 23  

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहुरुपादम्।

बहूदरं बहुन्दष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्।।


भावार्थ 


अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं - हे देव, मैं आपके शरीर में सभी देवताओं तथा अन्य जीवों को देख रहा हूँ। कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिव जी, सभी ऋषियों और दिव्य भक्तों को देख रहा हूँ। मैं आपको अनेक भुजाओं, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त, सर्वत्र अनन्त स्वरूप वाला देख रहा हूँ। हे जगत के स्वामी, हे जगत के रूप, मैं न अंत देखता हूँ, न मध्य, न आरंभ। मुकुट, राजदण्ड, चक्र, प्रकाश का पुंज, मन चारों ओर चमक रहा है। मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम अथाह हो, चारों ओर से धधकती आग और सूर्य से चमक रहे हो। आप अविनाशी हैं, जानने योग्य सर्वोच्च हैं, आप इस ब्रह्मांड के सर्वोच्च निधि हैं। आप सनातन धर्म के अक्षय रक्षक हैं, आप ही सनातन पुरुष हैं, ऐसा मेरा मत है। आप अनादि, मध्य, अनन्त हैं, शक्तिशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्रमा और सूर्य के समान नेत्रों वाले मैं आपको जलती हुई आग के समान मुख वाला देखता हूँ, जो अपने तेज से इस ब्रह्माण्ड को गर्म कर रहा है। स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का यह अन्तर केवल आप और सभी दिशाओं द्वारा ढका हुआ है। हे महान आत्मा, आपके अद्भुत और भयानक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हैं। देवताओं के प्रतिनिधि आपकी शरण ले रहे हैं, जिनमें से कुछ भयभीत हैं और हाथ जोड़कर आपकी स्तुति कर रहे हैं। 'सबका कल्याण हो' कहकर महर्षियों और सिद्धों की समूह आपकी खूब स्तुति कर रहे हैं। शिव के विविध रूप (रूद्र), सूर्य, वसु, ब्रह्माण्ड के सभी साध्य, अश्विन, मरुत, चोष्मप, गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समूह सभी आश्चर्यचकित होकर आपकी ओर देख रहे हैं। हे महाबाहु (भगवान्) आपका रूप महान है, आपके अनेक मुख, नेत्र, अनेक भुजाएँ, पैर, अनेक पेट और अनेक दांत एक साथ देखकर सभी लोक भयभीत हैं और मैं भी। 


प्रसंगवश 


अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप में उनकी सर्वव्यापकता, अनंतता और दिव्यता को देखकर अभिभूत हैं। यह दर्शन उन्हें विश्व के पर

जो इस विश्व को अपने तेज से प्रकाशित कर रहा है। यहाँ भगवान का यह रूप न केवल उनकी सर्वोच्चता को दर्शाता है, बल्कि यह भी प्रकट करता है कि वे ही सृष्टि के आधार, रक्षक और संहारक हैं। अर्जुन का यह वर्णन उनके भक्ति, विस्मय और भय के मिश्रित भाव को दर्शाता है, जो इस दर्शन के प्रभाव को और गहरा करता है। 


भगवान् के विराट रूप का दर्शन हमें सिखाता है कि विश्व एक परम शक्ति द्वारा संचालित है, और हम सभी उनका अंश हैं। यह हमें एकता, निःस्वार्थ कर्म, पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी, और आध्यात्मिक जागरूकता की ओर ले जाता है। आधुनिक जीवन की जटिलताओं, तनाव, और विभाजनों के बीच यह दर्शन हमें संतुलन, विश्वास, और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देता है।


सादर,

केशव राम सिंघल 

Thursday, May 1, 2025

गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता ज्ञान - 02 - जीव, आत्मा, और शरीर की प्रकृति

गीता अध्ययन एक प्रयास 

गीता ज्ञान - 02 - जीव, आत्मा, और शरीर की प्रकृति

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चित्र साभार NightCafe 

जीव का  मनुष्य योनि में जन्म केवल उसके अपने कल्याण के लिए हुआ है। 


जीव में एक तो चेतन परमात्मा का अंश है और एक जड़ प्रकृति का अंश है। यह विचार गीता के अध्याय 7, श्लोक 4-5 में देखने को मिलता है, जहाँ श्रीकृष्ण अपनी अपरा (जड़) और परा (चेतन) प्रकृति का वर्णन करते हैं। चेतन अंश के कारण जीव परमात्मा में लीन होना चाहता है और जड़ अंश के कारण वह संसार से राग हटा नहीं पाता। परमात्मा की सत्ता और जीव की सत्ता एक ही है। राग-द्वेष को नियंत्रित करने के लिए हमें नकारात्मक भावों को अपने अंतर्मन में आने से रोकना चाहिए। इसके लिए प्रातःकालीन ध्यान साधना एक सरल उपाय हो सकता है। 


शरीर और शरीरी (आत्मा) - शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है। शरीर नाशवान है, आत्मा अविनाशी है। शरीर का आकार होता है, आत्मा निर्विकार है। शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है और आत्मा अनंतकाल तक ज्यों का त्यों ही रहता है। शरीर जड़ संसार का निवासी है और आत्मा परमात्मा का अंश है। आत्मा निरंतर अमरता में रहता है और शरीर निरंतर मृत्यु में रहता है। शरीर हमारा (व्यक्ति का) स्वरूप नहीं है। हमारा स्वरूप काल से अतीत है। शरीर को अपना स्वरूप मानने से हमें काल (भू, भविष्य और वर्तमान) दीखता है। यह गीता के अध्याय 2, श्लोक 13-25 के ज्ञान से पूरी तरह मेल खाता है, जहाँ आत्मा की अमरता और शरीर की क्षणभंगुरता का वर्णन है।


अनेक युग बीत जाएं तो भी आत्मा बदलता नहीं क्योंकि वह परमात्मा का अंश है। शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। आत्मा द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। आत्मा दीखता नहीं है, शरीर दीखता है। शरीर में अवस्थाओं का परिवर्तन होता रहता है, जबकि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता। आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है।  


स्थूल शरीर का हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर का हमें ज्ञान नहीं होता। स्थूल-शरीर का ज्ञान होने के कारण हम स्थूल-शरीर की अवस्थाओं (बालक, जवानी, बुढ़ापा) समझ पाते हैं। सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर का ज्ञान उसकी अवस्थाओं में होता है। स्थूल-शरीर की जागृत, सूक्ष्म-शरीर की स्वप्न और कारण-शरीर की सुषुप्ति अवस्था मानी जाती है। कारण-शरीर में स्वभाव रहता है, जिसको हम स्थूल दृष्टि से आदत कहते हैं।  


स्थूल-शरीर की अवस्थाओं (बालक, जवानी, बुढ़ापा) के बदलने पर तो उसका ज्ञान होता है, पर देहान्तर होने पर पूर्व-जन्म के शरीर का ज्ञान नहीं होता क्योंकि देहान्तर (जन्म और मृत्यु) के समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है और उस कष्ट के कारण बुद्धि में पूर्व-जन्म की स्मृति नहीं रहती। देहान्तर की प्राप्ति होने पर पहले वाला स्थूल-शरीर छूट जाता है, पर यदि कल्याण (मोक्ष) प्राप्त न हो तो सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर नहीं छूटते।  


ॐ तत् सत्। 


सादर, 

केशव राम सिंघल