Wednesday, July 13, 2016

गीता अध्ययन एक प्रयास - गीता अध्याय एक


*गीता अध्ययन एक प्रयास*

*#001*

*गीता अध्याय एक - संक्षिप्त कथा*

*पृष्ठभूमि* - धृतराष्ट्र अन्धा है, आँखों से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी. वह कौरवों के मोह में फँसा है. वह युद्धभूमि के हाल जानना चाहता है. संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वह उस स्थान को देख सकता है, जहाँ वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है.

*संक्षिप्त कथा* - धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा कि युद्धभूमि में क्या घटित हुआ. संजय युद्धभूमि का हाल बताते हुए कहते हैं - पांडवों की सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने सेनापति और गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और बोला - हे आचार्य ! अपनी और पांडवों की सेनाओं को देखिए. आपके बुद्धिमान शिष्य के पुत्र ने उनकी सेना को कौशलता के साथ व्यवस्थित किया है. हमारी सेना में अनेक वीर धनुर्धर मौजूद हैं. दुर्योधन ने अनेक नामों का उल्लेख किया, जो सेना को संचालित करने और युद्ध कौशल में निपुण हैं. वह कहता है कि ऐसे अनेक वीर हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार हैं. हमारी शक्ति अपरिमेय है, जबकि पांडवों की शक्ति सीमित है. हम सब पितामह (अर्थात द्रोणाचार्य) से संरक्षित हैं. साथ ही दुर्योधन ने अपनी सेना के सैनिकों से कहा कि वे सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चे पर तैनात रहते हुए भीष्म पितामह का ध्यान रखें. दुर्योधन की बातें सुनकर द्रोणाचार्य ने अपना शंख उच्च स्वर से बजाया और फिर कई शंख, नगाडे, तुरही तथा सींग बज़ उठे, जिनका सम्मिलित स्वर कोलाहल से भरा हुआ था. दूसरी ओर श्रीकृष्ण, अर्जुन और अन्य वीरों ने भी अपने-अपने शंख बजाए. भयंकर ध्वनि ने दोनों ओर की सेनाओं को युद्ध के लिए तैयार कर दिया और युद्ध प्रारंभ ही होने वाला था कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा - कृपा कर मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें ताकि मैं युद्ध की अभिलाशा रखने वालों को देख् सकूँ. यह सुनकर श्रीकृष्ण ने दोनों ओर की सेनाओं के बीच अर्जुन के रथ को लाकर खड़ा कर दिया और अर्जुन से कहा - हे पार्थ ! यहाँ एकत्रित कुरुवंश के सदस्यों को देखो. अर्जुन ने दोनों पक्षों की सेनाओं में अपने बन्धु-बांधव, रिश्तेदारों, मित्रों और शुभचिंतकों को देखा. यह सब देखकर अर्जुन का मन ग्लानि से भर गया और उसने श्रीकृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों का वध करना सोचना भी उसे अच्छा नहीं लग रहा. उसने कहा कि वह अपने बन्धु-बांधव को नहीं मारना चाहता, चाहे उसे तीनों लोक ही क्यों ना मिल जाएँ. अपने रिश्तेदारों को मारकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं. कुल का नाश होने से सनातन कुल परम्परा नष्ट होती है, शेष बचा कुल भी अधर्म की ओर प्रवृत होता है, कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं जिनसे अवांछित संतानें उत्पन्न होती हैं, फलस्वरूप नारकीय जीवन उत्पन्न होता है और परिवार कल्याण कार्य समाप्त हो जाते हैं. कुल धर्म का विनाश करने वाले सदा नरक में वास करते हैं और आश्चर्य की बात है कि हम सभी इस जघन्य पापक्रम करने पर आमादा हो रहे हैं. यदि मुझ निहत्थे और युद्धभूमि में विरोध ना करने वाले को धृतराष्ट्र के शस्त्रधारी पुत्र मारे तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा. यह सब कहकर अर्जुन ने अपना धनुष और बाण एक ओर रख दिया और शोक-संतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गए.

*मेरी सीख*

कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते.

गीता के प्रथम अध्याय का सार है - *"ग़लत सोच ही जीवन में एक मात्र समस्या है. मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं." (Wrong thinking is the only problem in life. Due to fascination we deviate from fair and equitable decisions.)*



*#002*

*श्रीमद्भगवदगीता की पृष्ठभूमि और अर्जुन की सोच*


कौरवों की सेना को देखकर अर्जुन को विषाद क्यों हुआ? इसके लिए श्रीमद्भगवदगीता की पृष्ठभूमि और अर्जुन की सोच को सोचने-समझने की जरूरत है.

जब कौरव और पांडवों के बीच मन-मुटाव अधिक बढ़ गया, तब धृतराष्ट्र ने गृह-कलह से उत्पन्न विनाश से राज्य को बचाने के लिए राज्य को दो भागों में विभक्त कर दिया - एक भाग, जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी, दुर्योधन को और दूसरा भाग, जिसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ थी, युधिष्ठर को मिला. हालाँकि धृतराष्ट्र ने राज्य को दो भागों में इसलिए बाँटा था ताकि राज्य और कुरु-वंश परिवार में सुख-शान्ति बनी रहे, परन्तु यह उस समय तक की चली आ रही प्राचीन परम्परा का उल्लंघन था. दुर्योधन और उसके समर्थक इस राज्य विभाजन से सहमत नहीं थे. भीष्म पितामह जैसे मनस्वी को भी यह विभाजन स्वीकार नहीं था. जब दुर्योधन और पांडवों के बीच चौरस का खेल खेला गया, तब भीष्म पितामह और अन्य भी दर्शक के रूप में वहां उपस्थित थे. चौरस के खेल में युधिष्ठर अपना राज्य तो हारा ही, साथ में उसने द्रोपदी को भी दाँव पर लगा दिया, जिसे भी वह हार गया. पांडव चौरस में अपना सब कुछ हार चुके थे. महाभारत का युद्ध राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए किया युद्ध था. अर्जुन के विषाद का मूल यही है कि उसे युद्ध अनुचित लग रहा था. उसे अपना पक्ष स्पष्ट रूप से दुर्बल लग रहा था. अब प्रश्न फिर सामने आता है कि जब दुर्योधन का पक्ष तत्कालीन राजनीतिक परम्परा पर आधारित था तो पांडवों ने राज्य प्राप्ति के लिए युद्ध का मार्ग क्यों चुना. यह तथ्य सामने है कि राज्य का परम्परागत अधिकारी दुर्योधन था, लेकिन दुर्योधन में दुर्गुणों का विकास हो रहा था, जिससे तत्कालीन राज्य परम्परा को खतरा उत्पन्न होने लगा था. राज्य और सम्पत्ति के मद में मस्त दुर्योधन और उसके पक्षपाती शकुनि के दुराचरण से उत्पन्न स्थिति, राज की क्षति बचाने और भारतीय सांस्कृतिक परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए महाभारत का युद्ध हुआ. भगवान श्रीकृष्ण इस सबके नेतृत्वकर्ता थे, जो एक अखंड साम्राज्य सुसंगठित करना चाहते थे.

युद्ध से पूर्व अर्जुन विषाद की स्थिति में था. स्वजनों के कर्मो के कारण जो स्थिति उत्पन्न हुई, उससे वह ना तो भाग सकता था और ना ही उसके भागने से समस्या का समाधान होता. और यही से श्रीमद्भगवदगीता का ज्ञान प्रारंभ होता है. श्रीमद्भगवदगीता का प्रथम अध्याय अर्जुन विषाद योग से संबंधित है. युद्ध के मैदान में अर्जुन दोनों ओर (दुर्योधन और पांडवों) की सेनाओं को देखता है और स्वजनों, बन्धु-बांधव और अपने परिचितों को देखकर वह विषाद से भर जाता है, सोचने लगता है और अपने सारथी भगवान श्रीकृष्ण से अपने आंतरिक दु:ख का वर्णन करता है. युद्ध-भूमि में अपने स्वजनो और बन्धु-बांधव को आमने-सामने देखकर विषाद से भरा अर्जुन बाण सहित धनुष को त्याग कर यह कहते हुए 'मैं युद्ध नही कर सकता' रथ के पिछले भाग में बैठ जाता है.

श्रीमद्भगवदगीता का ध्यान करने पर तीन व्यक्ति सहसा ध्यान में आते हैं -
पहले, भगवान श्रीकृष्ण, जिन्होंने श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान का उपदेश दिया.
दूसरे, अर्जुन, जिन्होंने विषाद और उलझन के समय भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान के उपदेश को सुना.
तीसरे, महर्षि वेदव्यास, जो श्रीमद्भगवदगीता काव्य के रचयिता हैं.


*#003*

*कौरव और पांडवों के बीच मनमुटाव की पृष्ठभूमि*


कुरु-वंश भारत का विख्यात राजवंश रहा, जिसकी पीढ़ियों ने भारत में राज किया. धृतराष्ट्र (कौरवों के पिता) और पाण्डु (पांडवों के पिता) इसी वंश से थे. धृतराष्ट्र राजा विचित्रवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र थे और पाण्डु विचित्रवीर्य के छोटे बेटे थे. धृतराष्ट्र शारीरिक अक्षमता (नेत्रहीन होने) के कारण परम्परानुसार राजा का कार्यभार नहीं संभाल सकते थे, अत: राज्य-संचालन का कार्यभार धृतराष्ट्र के अनुज भ्राता पांडु के पास था, पर कुछ समय बाद पांडु का देहांत हो गया और कुरु-वंश में एक बार फिर उत्तराधिकारी की समस्या उलझ गई. इस समय तक धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन बडे हो गए थे अत: परंपरानुसार यह तय हुआ कि विचित्रवीर्य के राज-पाट का उत्तराधिकार दुर्योधन को मिलें. उस समय की प्रचलित परम्परा के अनुसार पांडु के पुत्र युधिष्ठर राज-पाट के अधिकारी नहीं बनते थे. छोटी-छोटी बातों को लेकर दुर्योधन (धृतराष्ट्र के पुत्र) और भीम (पांडु के पुत्र) के बीच मन-मुटाव होने लगा था और द्रोपदी स्वयंवर् के समय कौरव और पांडवों के बीच मन- मुटाव चरम पर था. अर्जुन के पराक्रम के कारण द्रोपदी का विवाह अर्जुन से हुआ और इस प्रकार कौरव चाहते हुए भी द्रोपदी से विवाह नहीं कर सके.

कुरु-वंश में गृह-कलह से उत्पन्न विनाश को बचाने के लिए धृतराष्ट्र ने राज्य के दो भाग किए थे, पर बाद में चौरस के खेल में पांडव अपना राज्य हार गए थे. महाभारत का युद्ध कौरव और पांडवों के बीच राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए हुआ. महाभारत युद्ध शुरू होने से पूर्व जब अर्जुन विषाद के कारण युद्ध करना नहीं चाह रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवदगीता ज्ञान का उपदेश अर्जुन को दिया.






*#004*

*श्रीमद्भगवदगीता अध्याय प्रथम के कुछ अन्तिम श्लोकों का भावार्थ और तात्पर्य*


अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥

भावार्थ : "ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम जघन्य पाप करने के लिए उत्सुक हो रहे हैं. राज्य सुख के लालच में आकर हम अपने ही स्वजनों को मारने पर आमादा हैं." - अर्जुन

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥

भावार्थ : "यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र युद्ध में मार डालें तो इस प्रकार मरना भी मेरे लिए अधिक हितकारी होगा." - अर्जुन

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥

भावार्थ : संजय बोले- युद्धभूमि में शोक से भरे मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए.

*तात्पर्य*
स्वार्थ के वश में मनुष्य अपने सगे-संबंधियों के विरुद्ध पापकर्मो की ओर बढ़ जाता है और अर्जुन सदाचार के प्रति जागरूक हैं, तभी वे ऐसे पापकर्मो से बचने का प्रयत्न करते हैं. कौरव-पांडवों के बीच युद्ध होने से पूर्व अर्जुन के मस्तिष्क में एक घमासान विचार-युद्ध चलने लगा था और वह अनिश्चय की स्थिति में था. वह अपने सगे-संबंधियों के मोह और अज्ञानता के कारण (क्या उचित या अनुचित है, यह ना जानने के कारण) युद्ध नहीं करना चाह रहा था.

*मेरी सीख*

कई बार हमारे आस-पास और हमारे अन्दर भी एक घमासान युद्ध चलने लगता है, कई तरह के विचार जन्म लेते हैं और हम उलझ जाते हैं क्योंकि हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, अज्ञानता, चाटुकारिता, मोह से इतना लगाव हो जाता है कि हम अपने शत्रुओं को मारना नहीं चाहते और उचित निर्णय नहीं ले पाते.

गीता के प्रथम अध्याय का सार है - *"ग़लत सोच ही जीवन में एक मात्र समस्या है. मोह के कारण हम उचित और न्यायसंगत निर्णय लेने से भटक जाते हैं." (Wrong thinking is the only problem in life. Due to fascination we deviate from fair and equitable decisions.)*

शुभकामना सहित,

केशव राम सिंघल

1 comment:

Keshav Dayal said...

Atyant upayogi Keshav ji. My regards.