Saturday, July 30, 2016

#007 - गीता अध्ययन एक प्रयास


*#007 - गीता अध्ययन एक प्रयास*

*संक्षिप्त कथा - गीता अध्याय 2 - श्लोक 10 से 18*


युद्ध-भूमि में जो घटित हो रहा है, उसका हाल धृतराष्ट्र को सुनाते हुए संजय ने कहा - दोनों सेनाओं के बीच शोक में डूबे अर्जुन से श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा - तुम विद्वतापूर्ण बाते कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो, जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है। जो विद्वान होते हैं, वे ना तो जीवित के लिए और ना ही मृत के लिए शोक करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं, तुम अथवा ये समस्त राजा ना रहे हो और ना ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे। शरीरधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था-तरुणावस्था-वृद्धावस्था के दौरान निरंतर रहता है और मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर (विद्वान) व्यक्ति को ऐसे परिवर्तन से मोह नहीं होता। सुख-दुःख का आना-जाना ऋतुओं के आने-जाने के समान है, ये सब इंद्रियबोध से महसूस होते हैं और मनुष्य को इन्हें अविचल भाव से सहन करना सीखना चाहिए। जो व्यक्ति सुख-दुःख में विचलित नहीं होता और जिसका सुख-दुःख में एक समान व्यवहार रहता है, वह निश्चित मुक्ति (मोक्ष) के योग्य है। भौतिक शरीर हमेशा रहने वाला नहीं है किंतु आत्मा अपरिवर्तित रहता है, ऐसा तत्त्वदर्शियों का निष्कर्ष है। शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी है। इस आत्मा को कोई नष्ट नहीं कर सकता। भौतिक शरीर का अंत अवश्य होगा। अतः हे अर्जुन, युद्ध करो।

तात्पर्य

भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा और शोक की आवश्यकता नहीं है। आत्मा शाश्वत है, उसको जान लेना आत्म-साक्षात्कार है। भौतिक शरीर विनाशी है। हमें अपने कर्तव्यों को ध्यान में रखकर अपना कर्म करना चाहिए।

शुभकामना और अभिवादन,

केशव राम सिंघल

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