Monday, December 1, 2025

गायत्री मंत्र - अर्थ, महत्त्व और जीवन संदेश

गायत्री मंत्र - अर्थ, महत्त्व और जीवन संदेश









चित्र साभार NightCafe 

गायत्री मंत्र वेदों का महामंत्र है—प्रकाश, ज्ञान और सद्बुद्धि की ओर ले जाने वाला पथदर्शक। यह मंत्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति का साधन है, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सकारात्मकता, स्पष्टता और संतुलन प्रदान करता है।


गायत्री मंत्र 


ॐ भूर्भुवः स्वः

तत्सवितुर्वरेण्यं

भर्गो देवस्य धीमहि

धियो यो नः प्रचोदयात्।


Om Bhur Buvah Swah

Tatsavitur Varenyam

Bhargo Devasya Dheemahi

Dhiyo Yo Nah Prachodayat. 


भावार्थ 


हम उस परमात्मा का ध्यान करें—जो प्राणस्वरूप है, दुःखों का नाश करने वाला है, सुख और शांति का दाता है, श्रेष्ठ और तेजस्वी है, तथा पापों को नष्ट करने वाला है। हे प्रभु! आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारे अंतःकरण को प्रकाशमान करें।


मंत्र के पदों का सरल जीवनोपयोगी अर्थ 


ॐ (अ + उ + म्) –

अ = आत्मानंद में रमण करना

 उ = उन्नति की ओर बढ़ना

 म् = महानता की ओर अग्रसर होना

  अर्थात्: आत्मानंद से प्रेरित होकर उन्नति और महानता की ओर बढ़ते रहना।


भूः – हम शरीर नहीं, आत्मा हैं—प्राण हैं।


भुवः – अपने कर्मों और कर्तव्यों को सद्कर्मों से पूरा करना।


स्वः – मन को भीतर स्थिर कर आत्म-नियंत्रण विकसित करना।


तत् – जीवन और मृत्यु की अनिवार्यता को समझना; वास्तविकता को स्वीकारना।


सवितुः – सूर्य के समान तेजस्वी, उज्ज्वल और ऊर्जावान बनना।


वरेण्यं – अशुभ चिंतन को त्यागकर श्रेष्ठ चिंतन को अपनाना।


भर्गः – पापों से बचते हुए निष्पाप जीवन की ओर अग्रसर होना।


देवस्य – अशुद्ध दृष्टिकोण से बचकर शुद्ध, दिव्य विचारों को अपनाना।


धीमहि – सद्गुणों को अपने भीतर धारण करना।


धियो – विवेक का महत्त्व समझकर विवेकवान बनना।


यो नः – आत्मसंयम और परमार्थ के दिव्य मार्ग को अपनाना।


प्रचोदयात् – हे भगवान! हमारी बुद्धि को सद्मार्ग पर प्रेरित करें।


गायत्री मंत्र केवल जप नहीं—जीवन का मार्गदर्शन है। यह सिखाता है कि मन शुद्ध हो, विचार श्रेष्ठ हों, कर्म नैतिक हों और जीवन प्रकाशमय। 


सादर, 

केशव राम सिंघल 

(संकलित) 



Wednesday, September 17, 2025

अध्यात्म और विज्ञान – चेतना का शाश्वत सत्य

अध्यात्म और विज्ञान – चेतना का शाश्वत सत्य

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

अध्यात्म कहता है – आत्मा न तो जन्म लेता है और न ही कभी मरता है। आत्मा शाश्वत, अविनाशी और सनातन है। (गीता, अध्याय 2 – श्लोक 19, 20)


विज्ञान भी यही कहता है – ऊर्जा कभी समाप्त नहीं होती, वह केवल अपना रूप बदलती है।


स्पष्ट है कि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक ही सत्य की ओर संकेत करते हैं। आत्मा कहें या ऊर्जा – यही तो चेतना है। यही हमारे अस्तित्व का मूल स्वरूप है।


आप अकेले नहीं हैं, मैं अकेला नहीं हूँ। हम सब इस अनंत यात्रा का हिस्सा हैं। हम केवल रूप बदलते रहते हैं, जैसे एक लहर समुद्र से कभी अलग नहीं होती, केवल अपना आकार बदलकर आगे बढ़ती रहती है।


जब आप और मैं इस भौतिक दुनिया से विदा होंगे, तब भी हम पूरी तरह समाप्त नहीं होंगे। केवल शरीर निष्क्रिय होगा, परंतु हमारे शब्द, हमारे कर्म, हमारे विचार और यहाँ तक कि हमारी आनुवंशिक जानकारी (डीएनए) – हमारी संतान, समाज और आने वाले कल में जीवित रहेंगे।


हम सब शाश्वत चेतना से निरंतर जीवित रहते हैं। हम अपने पूर्वजों का विस्तार हैं और अपनी संतान के भविष्य के बीज हैं।


ब्रह्माण्ड के लिए हम कभी समाप्त नहीं होते। हम केवल एक यात्रा पर हैं – जहाँ शरीर बदलते हैं, रिश्ते बदलते हैं, पर हमारी असली पहचान – हमारी चेतना – शाश्वत बनी रहती है।


यही विज्ञान का अद्भुत चमत्कार है और यही अध्यात्म का सनातन सत्य है।


सादर,

केशव राम सिंघल 

#अध्यात्म #विज्ञान #चेतना #आत्मा #ऊर्जा #सनातनसत्य #गीता 


Saturday, August 2, 2025

अंतः अस्ति आरम्भः

अंतः अस्ति आरम्भः

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कुछ दिन पूर्व मैंने एक व्यक्ति की भुजा पर अंकित एक अद्भुत वाक्य देखा— “अंतः अस्ति आरम्भः”। यह छोटा-सा कथन अपने भीतर गहरी दार्शनिक गूँज समेटे हुए है—अर्थात, अंत ही शुरुआत है।


हर अंत किसी नए आरंभ का कारण बनता है। जैसे रात का अंत सुबह के आगमन का संदेश है, वैसे ही मृत्यु के पश्चात जन्म—जीवन-चक्र की नई यात्रा का आरंभ है। प्रकृति और जीवन में निरंतर परिवर्तन, नवीनीकरण और पुनः आरंभ ही शाश्वत नियम हैं। कुछ भी स्थायी नहीं; हर अंत में ही नई संभावना, नई ऊर्जा, और नए क्षितिज छिपे होते हैं।


मानसिक, भावनात्मक या भौतिक स्तर पर जो समाप्त होता है, उसी की खाली जगह में कोई नई शुरुआत जन्म लेती है। इसलिए अंत को केवल हानि, दुःख या विदाई के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि इसे नए मार्ग, अवसर और विकास के द्वार के रूप में स्वीकार करना चाहिए।


व्यक्तिगत जीवन में जब नौकरी, संबंध या जीवन का कोई चरण समाप्त होता है, तो प्रायः हम दुख, डर या खालीपन से घिर जाते हैं। परंतु, यही समाप्ति नए लक्ष्य, नई मित्रता, नया व्यवसाय, नई नौकरी या नई पहचान की नींव रख सकती है। हर बदलाव हमें जीवन में कुछ नया देखने, सीखने और बढ़ने का अवसर देता है।


प्रकृति में भी यही क्रम चलता है। पतझड़ में जब वृक्ष अपनी पत्तियाँ खो देता है, तो लगता है मानो उसकी संपन्नता समाप्त हो गई हो। किंतु यही पतझड़ नई बहार, नई कोपल और नए जीवन का संकेत बनकर आता है। सूर्यास्त के बाद अंधकार छा जाता है, किंतु उसी अंधकार की गोद में अगली सुबह के रंग पलते हैं।


आध्यात्मिक दृष्टि से मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि आत्मा की नई यात्रा का प्रारंभ माना गया है। यहीं से या तो पुनर्जन्म का मार्ग खुलता है या मोक्ष का द्वार। इस प्रकार, “अंत” केवल परिवर्तन है—रूप का परिवर्तन, अवस्था का परिवर्तन।


अतः “अंतः अस्ति आरम्भः" केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि जीवन का गूढ़ सत्य और दार्शनिक सारांश है— हर अंत में एक नई शुरुआत छुपी होती है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 

Sunday, July 13, 2025

पौराणिक कथा - भगवान् भोलेनाथ ने किया बधिक का कल्याण

पौराणिक कथा

भगवान् भोलेनाथ ने किया बधिक का कल्याण 
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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

भगवान् भोलेनाथ (शिवजी) कल्याण के परमदाता हैं। वे अपने भक्तों की भावनाओं को तुरंत समझते हैं और उन्हें त्वरित फल प्रदान करते हैं।

बहुत प्राचीन समय की बात है। एक बधिक (शिकार करने वाला) प्रतिदिन की भाँति वन में शिकार हेतु गया। दुर्भाग्यवश, उस दिन उसे कोई शिकार नहीं मिला। भूख और थकान से व्याकुल वह बधिक निराश होकर वन में भटक रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक प्राचीन शिव मंदिर पर पड़ी।

संयोग से उस दिन महाशिवरात्रि थी। कुछ पाने की आशा में वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर गया। उसने देखा कि शिवलिंग के ऊपर सोने का एक सुंदर छत्र लटका हुआ है। वह लोभ में आ गया और उस छत्र को उतारने के लिए सीधा शिवलिंग पर चढ़ गया।

परन्तु भगवान् शिव, जो भोलेनाथ हैं, उन्होंने उस घटना को कुछ और ही रूप में ग्रहण किया। उन्होंने समझा कि वह व्यक्ति स्वयं को भगवान को समर्पित कर रहा है — पूर्ण आत्मसमर्पण। इस निष्कलंक भावना को देखकर शिवजी उसी क्षण प्रकट हुए और बधिक को दर्शन देकर उसे वरदान प्रदान किया।

सीख

भगवान् भोलेनाथ अत्यंत सरल, दयालु और उदार हृदय हैं। वे भाव के भूखे हैं, औपचारिकता के नहीं। यदि हम सच्चे मन से उनका स्मरण और आराधना करें, तो वे अवश्य ही कृपा करते हैं।

सादर,
केशव राम सिंघल 


Thursday, July 10, 2025

पौराणिक कथा पुनर्लेखन - ब्राह्मण का अभिमान और मोक्ष का मार्ग

पौराणिक कथा पुनर्लेखन

ब्राह्मण का अभिमान और मोक्ष का मार्ग

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

प्राचीन समय की बात है। एक ब्राह्मण तप और मोक्ष की लालसा में अपने वृद्ध माता-पिता को अकेला छोड़कर वन चला गया। वहाँ वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर कठोर तपस्या करने लगा। कई दिन बीत गए। एक दिन उसी वृक्ष पर बैठा एक पक्षी, अनजाने में ब्राह्मण के ऊपर बीट कर गया। ब्राह्मण को बहुत क्रोध आया। उसने गुस्से से पक्षी की ओर देखा — उसी क्षण वह पक्षी जलकर भूमि पर गिर पड़ा।


यह देखकर ब्राह्मण को अपनी शक्ति पर अभिमान हो गया — "मेरे तप में इतनी शक्ति है!"


कुछ दिन बाद वह एक गाँव में भिक्षा माँगने पहुँचा। अपने से बड़ों की सेवा-सुश्रुवा में व्यस्त एक गृहिणी ने जब तुरंत भिक्षा नहीं दी, तो ब्राह्मण ने उसी क्रोध से उसे देखने का प्रयास किया। परंतु गृहिणी ने शांत स्वर में कहा, "महाराज, मैं वह पक्षी नहीं हूँ जो आपके क्रोध से भस्म हो जाऊँ।"


यह सुनकर ब्राह्मण चौंका और बोला, "हे देवी! आपको यह बात कैसे ज्ञात हुई?"


गृहिणी ने उत्तर दिया, "महाराज, कृपया भिक्षा ग्रहण करें। मेरे पास विवाद का समय नहीं है। यदि आप जानना चाहें, तो गाँव के बाहर रहने वाले चाण्डाल के पास जाइए।"


आश्चर्यचकित ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। चाण्डाल ने उसका आदर किया और कहा, "मुझे मालूम है कि आपको यहाँ क्यों भेजा गया है। परंतु मैं इस समय व्यस्त हूँ। आप तुलाधार नामक वैश्य के पास जाइए, वह आपको मार्ग बताएगा।"


ब्राह्मण तुलाधार वैश्य के पास पहुँचा। वह व्यापार में व्यस्त था, परंतु ब्राह्मण को देखकर मुस्कुराया और बोला, "आपको सत्य जानने की इच्छा है तो अद्रोहक ऋषि के पास जाइए। वही आपको सच्चा मार्ग बताएँगे।"


ब्राह्मण जब अद्रोहक ऋषि के पास पहुँचा, तो उन्होंने शांत भाव से कहा, "महाराज, आपका धर्म अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करना था। आपने उन्हें त्यागकर तपस्या की, पर यह मोक्ष का मार्ग नहीं है। तपस्या अहंकार के साथ नहीं की जाती।"


उन्होंने आगे कहा, "मन, वचन और कर्म से माता-पिता की सेवा ही आपके लिए सच्चा धर्म है। जब आप अपना कर्तव्य पूरी श्रद्धा से निभाएँगे, जब आप अपने अभिमान को त्यागेंगे, तब ही मोक्ष की दिशा खुलेगी। ईश्वर की सच्ची स्तुति वहीं होती है जहाँ धर्म का पालन हो।"


ब्राह्मण को आत्मबोध हुआ। उसने अपना अहंकार त्यागा और लौटकर अपने माता-पिता की सेवा में लग गया।


मेरी सीख


कर्तव्यपालन और विनम्रता ही मोक्ष का मार्ग है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



Wednesday, July 9, 2025

क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ब्रह्मानुभूति — आत्मसाधना की तत्वदर्शिता

क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ब्रह्मानुभूति — आत्मसाधना की तत्वदर्शिता 
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Lord Krishna imparting divine wisdom to Arjuna
प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

क्षेत्र = शरीर 
क्षेत्रज्ञ = शरीर को जानने वाला 

शरीर (क्षेत्र) को जानने वाले दो प्रकार के होते हैं — 
(1) जीवात्मा 
(2) परमात्मा 

ब्रह्म अनुभूति की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं — 
(1) अन्नमय अनुभूति — क्षेत्र के अस्तित्व के लिए भोजन (अन्न) पर निर्भरता। इसे भौतिकतावादी अनुभूति भी कहा जा सकता है। 
(2) प्राणमय अनुभूति — क्षेत्र के सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति 
(3) ज्ञानमय अनुभूति — सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिंतन, अनुभव और आकांक्षा 
(4) विज्ञानमय अनुभूति — जीव का मन और जीवन के लक्षण जीव से भिन्न होते हैं। यह उच्चतर अनुभूति है। 
(5) आनंदमय अनुभूति — सर्व-आनंदमय प्रकृति की अनुभूति। यह परम अवस्था है। 

मनोमय अनुभूति जहाँ इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारों की लहरों से युक्त होती है, वहीं विज्ञानमय अनुभूति विवेक, आत्म-चिंतन और बंधन-मोक्ष के बोध से युक्त होती है।

यह क्षेत्र चौबीस तत्वों का समूह है — 
- पाँच महाभूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश 
- तीन अव्यक्त तत्व - अहंकार (अहं की भावना), बुद्धि (विवेक-शक्ति) और चित्त/अव्यक्त प्रकृति (महत्तत्त्व - प्रकृति की सूक्ष्म अवस्था)
- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - नेत्र, कान, नाक, जीभ और त्वचा 
- पाँच कर्मेन्द्रियाँ - वाणी, पाँव, हाथ, गुदा और जननेन्द्रिय
- एक मन - इन्द्रियों को समन्वित करने वाला
- इन्द्रियों के पाँच विषय - रस (स्वाद), रूप (दृश्य), गंध, स्पर्श और शब्द (ध्वनि)

यही चौबीस तत्वों का सम्मुचय ही कार्यक्षेत्र (क्षेत्र) कहलाता है। 

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का आध्यात्मिक महत्व 

गीता (13.1–13.3) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि "इस शरीर को 'क्षेत्र' कहा जाता है, और जो इस क्षेत्र को जानता है वह 'क्षेत्रज्ञ' है। मैं (परमात्मा) समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ हूँ।" गीता 13.2 का यह अंश - "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।"

पंचकोशों के रूप में पाँच अनुभूतियाँ 

ऊपर बताई गई पाँच अवस्थाएँ उपनिषदों में वर्णित पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से मिलती-जुलती हैं। यह संबंध स्पष्ट किया जा सकता है।

साधना में कार्यक्षेत्र का प्रयोग 

शरीर और इसके तत्वों को साधना, सेवा, योग और आत्मसाक्षात्कार के लिए कैसे उपयोग किया जाए – यह विषय अध्यात्मिक साधकों के लिए उपयोगी हो सकता है। 

योगशास्त्र के अनुसार शरीर (क्षेत्र) को शुद्ध और संयमित रखकर आत्मा (क्षेत्रज्ञ) की पहचान संभव होती है। पंचमहाभूतों के संतुलन, इन्द्रियों के निग्रह, मन की स्थिरता और बुद्धि की निर्मलता – यह सब आत्मसाधना में सहायक हैं। कर्मेन्द्रियों का उपयोग सेवा के लिए, ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग सत्संग और श्रवण के लिए, तथा मन-बुद्धि का उपयोग आत्मचिंतन और ध्यान के लिए किया जाए, तभी क्षेत्र का परम उद्देश्य सिद्ध होता है। 

सार 

"क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" के इस गहन ज्ञान से हम यह समझ सकते हैं कि वह केवल शरीर नहीं है, बल्कि उसे जानने वाला चेतन सत्ता है। जब यह बोध पाँच अनुभूतियों के माध्यम से 'आनंदमय' स्तर तक पहुँचता है, तब आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता होती है।

सादर, 
केशव राम सिंघल 

Friday, July 4, 2025

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

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प्रतीकात्मक चित्र साभार OpenAI द्वारा निर्मित 

महाभारत के वीरों में अर्जुन का नाम सबसे ऊपर आता,

श्रेष्ठ धनुर्धर, संवेदनशील योद्धा, जो सदा सत्य अपनाता।


अर्जुन – धर्मनिष्ठ और आत्मसंयमी योद्धा,

हर परिस्थिति में धर्म, विवेक और संयम से डटा रहा,

सच्चा वीर वही – जो बाहरी संग्राम के साथ भीतर मन का युद्ध भी लड़ा।


वंश, शिक्षा और गुरुकुल जीवन


पांडवों में था तीसरा भाई, जिनकी शिक्षा थी विलक्षण,

महाराज पांडु और रानी कुंती के इस पुत्र में था गुणों का सम्मिलन।

बचपन से ही नीति, धर्म और युद्धकला में था अग्रणी,

गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें माना शिष्यों में श्रेष्ठतम ज्ञानी।


एकाग्रता की मिसाल


चिड़िया की आँख का प्रसंग उनकी एकाग्रता का प्रमाण बना,

जो लक्ष्य पर केंद्रित रहे, वही सच्चे परिणाम को है पाता।


पराक्रम और कीर्तिगाथा 


स्वयंवर में कठिन लक्ष्य भेदा, द्रौपदी से विवाह रचाया,

खांडव वन दहन, इंद्र से दिव्यास्त्र, दिग्विजय से यश कमाया।

भगवान शिव से मिला पाशुपतास्त्र, जो था अद्भुत वरदान,

अर्जुन के शौर्य की गाथा गूंजे हर युग में हर इंसान।


श्रीकृष्ण से मित्रता और गीता का उपदेश


श्रीकृष्ण से थी प्रगाढ़ मित्रता – अनुपम और अपार,

उन्हीं से मिला गीता का दर्शन ज्ञान – अमूल्य विचार।

सारथी, सखा, मार्गदर्शक – हर मोड़ पर रहे श्रीकृष्ण सच्चे,

धर्म और कर्म का मार्ग दिखाया, जब अर्जुन रहे द्वन्द में उलझे।


महाभारत युद्ध पूर्व जब देखे बंधु-बांधव रणभूमि में खड़े,

शस्त्र त्याग कर बैठ गया वह – मोह, करुणा और धर्मसंकट से घिरे।


तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश सुनाया –

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो।"

"धर्म के लिए संघर्ष ही तुम्हारा सच्चा कर्तव्य है – यह न भूलो।"


अर्जुन से प्रेरणाएँ 


* एकाग्रता से लक्ष्य पर अडिग रहो।

* श्रेष्ठ बनो, पर अहंकार से सदा दूर रहो।

* आत्ममंथन करो, निर्णय विवेक से लो।

* गुरु के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखो।

* अनुशासन और अभ्यास को जीवन का अंग बनाओ।

* संघर्षों में भी धैर्य और संतुलन न खोओ।


अर्जुन से जीवन की शिक्षाएँ 


* कठिन परिश्रम और निरंतर अभ्यास से ही सफलता मिलती है।

* भ्रम की स्थिति में ज्ञान, विवेक और विश्वास से मार्ग चुनें।

* सच्चे मित्र और मार्गदर्शक की बातों को ध्यान से सुनें।

* आत्मविश्वास और मन की स्थिरता ही सबसे बड़ा शस्त्र है।


सादर,

केशव राम सिंघल