Saturday, August 2, 2025

अंतः अस्ति आरम्भः

अंतः अस्ति आरम्भः

******* 










कुछ दिन पूर्व मैंने एक व्यक्ति की भुजा पर अंकित एक अद्भुत वाक्य देखा— “अंतः अस्ति आरम्भः”। यह छोटा-सा कथन अपने भीतर गहरी दार्शनिक गूँज समेटे हुए है—अर्थात, अंत ही शुरुआत है।


हर अंत किसी नए आरंभ का कारण बनता है। जैसे रात का अंत सुबह के आगमन का संदेश है, वैसे ही मृत्यु के पश्चात जन्म—जीवन-चक्र की नई यात्रा का आरंभ है। प्रकृति और जीवन में निरंतर परिवर्तन, नवीनीकरण और पुनः आरंभ ही शाश्वत नियम हैं। कुछ भी स्थायी नहीं; हर अंत में ही नई संभावना, नई ऊर्जा, और नए क्षितिज छिपे होते हैं।


मानसिक, भावनात्मक या भौतिक स्तर पर जो समाप्त होता है, उसी की खाली जगह में कोई नई शुरुआत जन्म लेती है। इसलिए अंत को केवल हानि, दुःख या विदाई के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि इसे नए मार्ग, अवसर और विकास के द्वार के रूप में स्वीकार करना चाहिए।


व्यक्तिगत जीवन में जब नौकरी, संबंध या जीवन का कोई चरण समाप्त होता है, तो प्रायः हम दुख, डर या खालीपन से घिर जाते हैं। परंतु, यही समाप्ति नए लक्ष्य, नई मित्रता, नया व्यवसाय, नई नौकरी या नई पहचान की नींव रख सकती है। हर बदलाव हमें जीवन में कुछ नया देखने, सीखने और बढ़ने का अवसर देता है।


प्रकृति में भी यही क्रम चलता है। पतझड़ में जब वृक्ष अपनी पत्तियाँ खो देता है, तो लगता है मानो उसकी संपन्नता समाप्त हो गई हो। किंतु यही पतझड़ नई बहार, नई कोपल और नए जीवन का संकेत बनकर आता है। सूर्यास्त के बाद अंधकार छा जाता है, किंतु उसी अंधकार की गोद में अगली सुबह के रंग पलते हैं।


आध्यात्मिक दृष्टि से मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि आत्मा की नई यात्रा का प्रारंभ माना गया है। यहीं से या तो पुनर्जन्म का मार्ग खुलता है या मोक्ष का द्वार। इस प्रकार, “अंत” केवल परिवर्तन है—रूप का परिवर्तन, अवस्था का परिवर्तन।


अतः “अंतः अस्ति आरम्भः" केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि जीवन का गूढ़ सत्य और दार्शनिक सारांश है— हर अंत में एक नई शुरुआत छुपी होती है।


सादर, 

केशव राम सिंघल 

Sunday, July 13, 2025

पौराणिक कथा - भगवान् भोलेनाथ ने किया बधिक का कल्याण

पौराणिक कथा

भगवान् भोलेनाथ ने किया बधिक का कल्याण 
**********  















प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

भगवान् भोलेनाथ (शिवजी) कल्याण के परमदाता हैं। वे अपने भक्तों की भावनाओं को तुरंत समझते हैं और उन्हें त्वरित फल प्रदान करते हैं।

बहुत प्राचीन समय की बात है। एक बधिक (शिकार करने वाला) प्रतिदिन की भाँति वन में शिकार हेतु गया। दुर्भाग्यवश, उस दिन उसे कोई शिकार नहीं मिला। भूख और थकान से व्याकुल वह बधिक निराश होकर वन में भटक रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक प्राचीन शिव मंदिर पर पड़ी।

संयोग से उस दिन महाशिवरात्रि थी। कुछ पाने की आशा में वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर गया। उसने देखा कि शिवलिंग के ऊपर सोने का एक सुंदर छत्र लटका हुआ है। वह लोभ में आ गया और उस छत्र को उतारने के लिए सीधा शिवलिंग पर चढ़ गया।

परन्तु भगवान् शिव, जो भोलेनाथ हैं, उन्होंने उस घटना को कुछ और ही रूप में ग्रहण किया। उन्होंने समझा कि वह व्यक्ति स्वयं को भगवान को समर्पित कर रहा है — पूर्ण आत्मसमर्पण। इस निष्कलंक भावना को देखकर शिवजी उसी क्षण प्रकट हुए और बधिक को दर्शन देकर उसे वरदान प्रदान किया।

सीख

भगवान् भोलेनाथ अत्यंत सरल, दयालु और उदार हृदय हैं। वे भाव के भूखे हैं, औपचारिकता के नहीं। यदि हम सच्चे मन से उनका स्मरण और आराधना करें, तो वे अवश्य ही कृपा करते हैं।

सादर,
केशव राम सिंघल 


Thursday, July 10, 2025

पौराणिक कथा पुनर्लेखन - ब्राह्मण का अभिमान और मोक्ष का मार्ग

पौराणिक कथा पुनर्लेखन

ब्राह्मण का अभिमान और मोक्ष का मार्ग

********** 









प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

प्राचीन समय की बात है। एक ब्राह्मण तप और मोक्ष की लालसा में अपने वृद्ध माता-पिता को अकेला छोड़कर वन चला गया। वहाँ वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर कठोर तपस्या करने लगा। कई दिन बीत गए। एक दिन उसी वृक्ष पर बैठा एक पक्षी, अनजाने में ब्राह्मण के ऊपर बीट कर गया। ब्राह्मण को बहुत क्रोध आया। उसने गुस्से से पक्षी की ओर देखा — उसी क्षण वह पक्षी जलकर भूमि पर गिर पड़ा।


यह देखकर ब्राह्मण को अपनी शक्ति पर अभिमान हो गया — "मेरे तप में इतनी शक्ति है!"


कुछ दिन बाद वह एक गाँव में भिक्षा माँगने पहुँचा। अपने से बड़ों की सेवा-सुश्रुवा में व्यस्त एक गृहिणी ने जब तुरंत भिक्षा नहीं दी, तो ब्राह्मण ने उसी क्रोध से उसे देखने का प्रयास किया। परंतु गृहिणी ने शांत स्वर में कहा, "महाराज, मैं वह पक्षी नहीं हूँ जो आपके क्रोध से भस्म हो जाऊँ।"


यह सुनकर ब्राह्मण चौंका और बोला, "हे देवी! आपको यह बात कैसे ज्ञात हुई?"


गृहिणी ने उत्तर दिया, "महाराज, कृपया भिक्षा ग्रहण करें। मेरे पास विवाद का समय नहीं है। यदि आप जानना चाहें, तो गाँव के बाहर रहने वाले चाण्डाल के पास जाइए।"


आश्चर्यचकित ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। चाण्डाल ने उसका आदर किया और कहा, "मुझे मालूम है कि आपको यहाँ क्यों भेजा गया है। परंतु मैं इस समय व्यस्त हूँ। आप तुलाधार नामक वैश्य के पास जाइए, वह आपको मार्ग बताएगा।"


ब्राह्मण तुलाधार वैश्य के पास पहुँचा। वह व्यापार में व्यस्त था, परंतु ब्राह्मण को देखकर मुस्कुराया और बोला, "आपको सत्य जानने की इच्छा है तो अद्रोहक ऋषि के पास जाइए। वही आपको सच्चा मार्ग बताएँगे।"


ब्राह्मण जब अद्रोहक ऋषि के पास पहुँचा, तो उन्होंने शांत भाव से कहा, "महाराज, आपका धर्म अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा करना था। आपने उन्हें त्यागकर तपस्या की, पर यह मोक्ष का मार्ग नहीं है। तपस्या अहंकार के साथ नहीं की जाती।"


उन्होंने आगे कहा, "मन, वचन और कर्म से माता-पिता की सेवा ही आपके लिए सच्चा धर्म है। जब आप अपना कर्तव्य पूरी श्रद्धा से निभाएँगे, जब आप अपने अभिमान को त्यागेंगे, तब ही मोक्ष की दिशा खुलेगी। ईश्वर की सच्ची स्तुति वहीं होती है जहाँ धर्म का पालन हो।"


ब्राह्मण को आत्मबोध हुआ। उसने अपना अहंकार त्यागा और लौटकर अपने माता-पिता की सेवा में लग गया।


मेरी सीख


कर्तव्यपालन और विनम्रता ही मोक्ष का मार्ग है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



Wednesday, July 9, 2025

क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ब्रह्मानुभूति — आत्मसाधना की तत्वदर्शिता

क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ और ब्रह्मानुभूति — आत्मसाधना की तत्वदर्शिता 
************ 
Lord Krishna imparting divine wisdom to Arjuna
प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

क्षेत्र = शरीर 
क्षेत्रज्ञ = शरीर को जानने वाला 

शरीर (क्षेत्र) को जानने वाले दो प्रकार के होते हैं — 
(1) जीवात्मा 
(2) परमात्मा 

ब्रह्म अनुभूति की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं — 
(1) अन्नमय अनुभूति — क्षेत्र के अस्तित्व के लिए भोजन (अन्न) पर निर्भरता। इसे भौतिकतावादी अनुभूति भी कहा जा सकता है। 
(2) प्राणमय अनुभूति — क्षेत्र के सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति 
(3) ज्ञानमय अनुभूति — सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिंतन, अनुभव और आकांक्षा 
(4) विज्ञानमय अनुभूति — जीव का मन और जीवन के लक्षण जीव से भिन्न होते हैं। यह उच्चतर अनुभूति है। 
(5) आनंदमय अनुभूति — सर्व-आनंदमय प्रकृति की अनुभूति। यह परम अवस्था है। 

मनोमय अनुभूति जहाँ इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारों की लहरों से युक्त होती है, वहीं विज्ञानमय अनुभूति विवेक, आत्म-चिंतन और बंधन-मोक्ष के बोध से युक्त होती है।

यह क्षेत्र चौबीस तत्वों का समूह है — 
- पाँच महाभूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश 
- तीन अव्यक्त तत्व - अहंकार (अहं की भावना), बुद्धि (विवेक-शक्ति) और चित्त/अव्यक्त प्रकृति (महत्तत्त्व - प्रकृति की सूक्ष्म अवस्था)
- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - नेत्र, कान, नाक, जीभ और त्वचा 
- पाँच कर्मेन्द्रियाँ - वाणी, पाँव, हाथ, गुदा और जननेन्द्रिय
- एक मन - इन्द्रियों को समन्वित करने वाला
- इन्द्रियों के पाँच विषय - रस (स्वाद), रूप (दृश्य), गंध, स्पर्श और शब्द (ध्वनि)

यही चौबीस तत्वों का सम्मुचय ही कार्यक्षेत्र (क्षेत्र) कहलाता है। 

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का आध्यात्मिक महत्व 

गीता (13.1–13.3) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि "इस शरीर को 'क्षेत्र' कहा जाता है, और जो इस क्षेत्र को जानता है वह 'क्षेत्रज्ञ' है। मैं (परमात्मा) समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ हूँ।" गीता 13.2 का यह अंश - "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।"

पंचकोशों के रूप में पाँच अनुभूतियाँ 

ऊपर बताई गई पाँच अवस्थाएँ उपनिषदों में वर्णित पाँच कोशों (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से मिलती-जुलती हैं। यह संबंध स्पष्ट किया जा सकता है।

साधना में कार्यक्षेत्र का प्रयोग 

शरीर और इसके तत्वों को साधना, सेवा, योग और आत्मसाक्षात्कार के लिए कैसे उपयोग किया जाए – यह विषय अध्यात्मिक साधकों के लिए उपयोगी हो सकता है। 

योगशास्त्र के अनुसार शरीर (क्षेत्र) को शुद्ध और संयमित रखकर आत्मा (क्षेत्रज्ञ) की पहचान संभव होती है। पंचमहाभूतों के संतुलन, इन्द्रियों के निग्रह, मन की स्थिरता और बुद्धि की निर्मलता – यह सब आत्मसाधना में सहायक हैं। कर्मेन्द्रियों का उपयोग सेवा के लिए, ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग सत्संग और श्रवण के लिए, तथा मन-बुद्धि का उपयोग आत्मचिंतन और ध्यान के लिए किया जाए, तभी क्षेत्र का परम उद्देश्य सिद्ध होता है। 

सार 

"क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" के इस गहन ज्ञान से हम यह समझ सकते हैं कि वह केवल शरीर नहीं है, बल्कि उसे जानने वाला चेतन सत्ता है। जब यह बोध पाँच अनुभूतियों के माध्यम से 'आनंदमय' स्तर तक पहुँचता है, तब आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता होती है।

सादर, 
केशव राम सिंघल 

Friday, July 4, 2025

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

महाभारत के प्रमुख पात्र अर्जुन – एकाग्रता, वीरता और आत्मसंघर्ष का प्रतीक

✽✽✽✽✽✽✽✽









प्रतीकात्मक चित्र साभार OpenAI द्वारा निर्मित 

महाभारत के वीरों में अर्जुन का नाम सबसे ऊपर आता,

श्रेष्ठ धनुर्धर, संवेदनशील योद्धा, जो सदा सत्य अपनाता।


अर्जुन – धर्मनिष्ठ और आत्मसंयमी योद्धा,

हर परिस्थिति में धर्म, विवेक और संयम से डटा रहा,

सच्चा वीर वही – जो बाहरी संग्राम के साथ भीतर मन का युद्ध भी लड़ा।


वंश, शिक्षा और गुरुकुल जीवन


पांडवों में था तीसरा भाई, जिनकी शिक्षा थी विलक्षण,

महाराज पांडु और रानी कुंती के इस पुत्र में था गुणों का सम्मिलन।

बचपन से ही नीति, धर्म और युद्धकला में था अग्रणी,

गुरु द्रोणाचार्य ने उन्हें माना शिष्यों में श्रेष्ठतम ज्ञानी।


एकाग्रता की मिसाल


चिड़िया की आँख का प्रसंग उनकी एकाग्रता का प्रमाण बना,

जो लक्ष्य पर केंद्रित रहे, वही सच्चे परिणाम को है पाता।


पराक्रम और कीर्तिगाथा 


स्वयंवर में कठिन लक्ष्य भेदा, द्रौपदी से विवाह रचाया,

खांडव वन दहन, इंद्र से दिव्यास्त्र, दिग्विजय से यश कमाया।

भगवान शिव से मिला पाशुपतास्त्र, जो था अद्भुत वरदान,

अर्जुन के शौर्य की गाथा गूंजे हर युग में हर इंसान।


श्रीकृष्ण से मित्रता और गीता का उपदेश


श्रीकृष्ण से थी प्रगाढ़ मित्रता – अनुपम और अपार,

उन्हीं से मिला गीता का दर्शन ज्ञान – अमूल्य विचार।

सारथी, सखा, मार्गदर्शक – हर मोड़ पर रहे श्रीकृष्ण सच्चे,

धर्म और कर्म का मार्ग दिखाया, जब अर्जुन रहे द्वन्द में उलझे।


महाभारत युद्ध पूर्व जब देखे बंधु-बांधव रणभूमि में खड़े,

शस्त्र त्याग कर बैठ गया वह – मोह, करुणा और धर्मसंकट से घिरे।


तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश सुनाया –

"कर्म करो, फल की चिंता मत करो।"

"धर्म के लिए संघर्ष ही तुम्हारा सच्चा कर्तव्य है – यह न भूलो।"


अर्जुन से प्रेरणाएँ 


* एकाग्रता से लक्ष्य पर अडिग रहो।

* श्रेष्ठ बनो, पर अहंकार से सदा दूर रहो।

* आत्ममंथन करो, निर्णय विवेक से लो।

* गुरु के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखो।

* अनुशासन और अभ्यास को जीवन का अंग बनाओ।

* संघर्षों में भी धैर्य और संतुलन न खोओ।


अर्जुन से जीवन की शिक्षाएँ 


* कठिन परिश्रम और निरंतर अभ्यास से ही सफलता मिलती है।

* भ्रम की स्थिति में ज्ञान, विवेक और विश्वास से मार्ग चुनें।

* सच्चे मित्र और मार्गदर्शक की बातों को ध्यान से सुनें।

* आत्मविश्वास और मन की स्थिरता ही सबसे बड़ा शस्त्र है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



Friday, June 27, 2025

महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण — नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक

 महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण  — नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक

********** 









प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

महाभारत के प्रमुख पात्र हैं श्रीकृष्ण 

नीति, मित्रता और जीवन-दर्शन के प्रतीक।

कुरुक्षेत्र रण में निभाई अद्भुत भूमिका,

रहे अर्जुन के सारथी, कूटनीतिज्ञ और मित्र। 

 

मथुरा के कारागार में हुआ था उनका जन्म,

गोकुल-वृंदावन में पले प्रेम और लीलाओं के संग।

माखनचोरी और रास की अनेक मधुर कहानी,

राक्षसों पर विजय की गाथाएँ सुनी माँ की वाणी। 


पर केवल चमत्कार नहीं थे श्रीकृष्ण,

वे थे नीति, धर्म और विवेक के दृष्टा।  

उन्होंने धर्म की रक्षा का लिया था संकल्प,

उनके निर्णयों में था न्याय का अडिग विकल्प। 


जब कौरवों ने पांडवों को दिया अन्यायपूर्ण वनवास,

कृष्ण बने आशा की किरण, धर्म की विशेष आस।

द्रौपदी के अपमान पर उठाई धर्म की वाणी,

सभा में गूँजी मूक दर्शकों की व्यथा पुरानी।


शांति का प्रयास श्रीकृष्ण ने किया बारंबार, 

जब न माने कौरव तो खुला युद्ध का द्वार।

धर्मस्थापना को उन्होंने चुना रण का मार्ग,

अर्जुन को दी गीता — जीवन का सर्वोत्तम सार। 


जब अर्जुन हुआ मोह और शोक में उलझा,

तब श्रीकृष्ण ने कहा —

"कर्म करो, फल की चिंता न करो,

जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा वह भी श्रेष्ठ होगा।" 


श्रीकृष्ण हैं प्रेरणा के अखंड भंडार,

सुदामा या अर्जुन – निभाई मित्रता हर बार।

हर निर्णय में धैर्य और दूरदर्शिता दिखाई,

युद्ध से पहले भी शांति की राह अपनाई। 


श्रीकृष्ण का जीवन है धर्म की सजीव व्याख्या समझो सभी,

अपार शक्तिशाली होकर भी ना करो अहंकार का प्रयोग कभी।


कुछ सीखें श्रीकृष्ण से —

मित्रता निभाना एक श्रेष्ठ कला है,

धैर्य, विवेक, और कर्म से मिलती सफलता है।

धर्म और न्याय के पक्ष में अडिग रहना,

कठिन परिस्थितियों में सर्वोच्च उद्देश्य बनाना।


श्रीकृष्ण केवल पौराणिक पात्र नहीं, जीवन-दर्शन हैं,

वे दर्शन, प्रेरणा, और चेतना का यथार्थ हैं।

जब जीवन में हो द्वंद्व या हो भ्रम की घड़ी,

गीता की शिक्षाएँ बनें समाधान की कड़ी।


सादर, 

केशव राम सिंघल 



Sunday, June 22, 2025

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

************* 









प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

मैंने Economic Times में 21 जून 2025 को देवदत्त पटनायक का लेख "ईश्वर एक जनक, व्यवस्थाकर्ता, विध्वंसक के रूप में" (God as Generator, Organiser, Destroyer) पढ़ा और उसके अत्यंत सारगर्भित और गूढ़ विचारों से प्रभावित हुआ। इस लेख में  हिंदू पौराणिक दृष्टिकोण से सृष्टि, जीवन, भूख, भय और ईश्वर के प्रतीकों को गहराई से समझाया गया है। 


पौराणिक दृष्टिकोण से दुनिया और जीवन का अंतर निम्न है:


दुनिया (World) भौतिक जगत है, जिसमें पदार्थ, रसायन, तारे, ग्रह, भूमि, समुद्र हैं और जीवन (Life) जीवविज्ञान है, जो भूख और भय से प्रेरित अस्तित्व है। भूख और भय के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।


जीवन के आयामों के प्रतीक रूप में त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भूमिकाओं को देखते हैं तो हम पाते हैं कि ब्रह्मा की भूमिका जनक (Creator) की है।  वे भूख के जन्मदाता और जीवन की शुरुआत करने वाले हैं। विष्णु की भूमिका व्यवस्थाकर्ता (Organizer) की है। वे भूख और भय को संतुलित करने वाले और समाज में संतोष लाने का प्रयास करने वाले हैं। शिव की भूमिका विध्वंसक (Destroyer) की है। वे भूख और भय के अंतकर्ता हैं, वैराग्य और मुक्ति के प्रतीक। 


पौराणिक कहानियों के पात्र – आधुनिक विचारों के प्रतीक रूपक (metaphors) हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। इनके माध्यम से हम जटिल मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं को सरल रूप में समझ सकते हैं।


दृष्टि → अंतर्दृष्टि → प्रतिबिंब (Vision → Insight → Reflection)


1. दृष्टि (Vision): हमें यह दिखाती है कि लोग किन 'भोजनों' के पीछे भागते हैं – लक्ष्मी (संसाधन), दुर्गा (शक्ति), सरस्वती (ज्ञान)।

2. अंतर्दृष्टि (Insight): यह समझ देती है कि यह दौड़ भूख, असुरक्षा और जिज्ञासा से प्रेरित है।

3. प्रतिबिंब (Reflection): हम इन भावनाओं को **अपने भीतर** भी पहचानते हैं। हर व्यक्ति के भीतर ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे तत्व होते हैं, जो विचार और कर्मों को संचालित करते हैं।

 

पौराणिक कथाओं को हम उपकरण साधन (टूलकिट) की तरह देख सकते हैं। यदि हम पौराणिक कहानियों को राजनीतिक या केवल धार्मिक चश्मे से देखें, तो उनका गूढ़ अर्थ छूट जाता है। लेकिन यदि उन्हें आत्म-बोध और संतुलन के साधन के रूप में देखा जाए, तो वे हमारे भीतर की असंतोष, लालसा और भय को समझने और नियंत्रित करने का माध्यम बन सकती हैं।


देवदत्त पटनायक के इस लेख में यह सार है कि हिंदू पौराणिकता मानव मन की भूख, भय और जिज्ञासा को समझने का दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक उपकरण है। इसमें ईश्वर भी प्रतीक बन जाते हैं, और कथाएँ आत्म-परीक्षण का रास्ता बन जाती हैं।


मैंने इस पर विचार किया कि हम पौराणिक कथाओं को केवल धार्मिक या रूढ़िगत दृष्टिकोण से न देखकर आत्मबोध के उपकरण के रूप में कैसे देखें। नीचे मैं सती और शिव की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा की धार्मिक और आत्मिक दोनों दृष्टिकोणों से तुलना करने का प्रयास करता हूँ। संक्षेप में कथा निम्न है - "सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और शिव की पत्नी थीं। एक बार उनके पिता ने एक विशाल यज्ञ आयोजित किया।  इस यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया, तब सती अत्यधिक व्यथित हुईं। अपने पति के अपमान को सहन न कर पाने के कारण उन्होंने यज्ञ स्थल पर ही आत्मदाह कर लिया। जब शिव को यह समाचार मिला, तो उन्होंने क्रोध में तांडव किया और संहारक रूप धारण कर लिया। अंततः, विष्णु ने सती के शरीर के टुकड़े कर पृथ्वी पर बिखेर दिए, जिससे शक्तिपीठों की स्थापना हुई।"


धार्मिक दृष्टिकोण से यह कथा बताती है कि शिव को अपमान सहन नहीं और सती पति के प्रति समर्पित थीं। यह कथा शक्तिपीठों की स्थापना की व्याख्या करती है। इस प्रकार यह श्रद्धा, व्रत, और शक्ति पूजा का आधार बनती है। यह दृष्टिकोण श्रद्धा-आधारित आस्था के लिए उपयोगी है।


इसी कथा को आत्म-बोध (Psychological/Philosophical) दृष्टिकोण से समझे तो आंतरिक भावनाओं और मानव व्यवहार के प्रतीक के रूप में हम पाते हैं कि सती प्रतीक रूप में आत्मा या भावनात्मक चेतना, शिव प्रतीक रूप में चेतना, वैराग्य और आत्म-नियंत्रण, दक्ष प्रतीक रूप में अहंकार और सामाजिक प्रतिष्ठा, यज्ञ प्रतीक रूप में बाहरी प्रदर्शन और समाज का दबाव , तांडव प्रतीक रूप में आंतरिक उथल-पुथल और अनियंत्रित भावनाएँ सम्प्रेषित करती है। यह कथा निम्न गूढ़ संदेश देती है - 


* जब भावनाएँ (सती) अहंकार (दक्ष) और समाज के नियमों (यज्ञ) से आहत होती हैं, तो उनका विनाश होता है।

* उस भावनात्मक आघात से चेतना (शिव) भी विचलित होती है – वह शांति खो बैठती है और क्रोध (तांडव) के रूप में प्रकट होती है।

* केवल संतुलन और विवेक (विष्णु) ही इस आंतरिक उथल-पुथल को संभाल सकते हैं।

* सती का शरीर विभाजित होना बताता है कि हमारा आंतरिक संतुलन टूटता है, और जीवन को पुनः एकत्र करने के लिए हमें अपने विखरे हुए अंशों को पहचानना और स्वीकार करना होता है। यही हैं शक्तिपीठ – हमारे भीतर के बिंदु जहाँ चेतना बिखरी पडी है। 


अगर हम इस कथा को केवल धार्मिक कहानी मान लें, तो हम पूजा, शक्तिपीठ और आस्था तक सीमित रह जाते हैं। लेकिन अगर हम इसे आत्मविश्लेषण और भावनात्मक समझ के रूप में देखें, तो यह सिखाती है - 


  * अपने अहंकार और भावनाओं को हमें संतुलित करना चाहिए।

  * भीतर के शिव और सती को कैसे पहचानना और पोषित करना चाहिए। 

  * जीवन में जब असंतुलन हो, तो विष्णु जैसे विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से समाधान लाना चाहिए। 


कुरुक्षेत्र का संग्राम, जिसे हम महाभारत के नाम से जानते हैं, केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक युद्ध नहीं है, बल्कि यदि हम इसे आत्म-बोध, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मनुष्य के भीतर चल रहे सतत संघर्ष का प्रतीक बन जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण (Traditional View) से कुरुक्षेत्र का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच था। पांडव धर्मपथ पर थे, जबकि कौरव अन्याय और लोभ से प्रेरित थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देकर उसे धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित किया। यह युद्ध अंततः सत्य की विजय का प्रतीक बना। यह दृष्टिकोण हमें प्रेरणा देता है कि धर्म के पक्ष में खड़ा रहना चाहिए और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। आत्मबोध / मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological-Philosophical View) से हम देखें तो पाते हैं कि कुरुक्षेत्र वास्तव में हमारे ही भीतर का मैदान है। यह कथा हमारे अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व, दायित्व और मोह, विवेक और भावनाओं, आत्मा और अहंकार के बीच के संघर्ष को दर्शाती है। प्रमुख प्रतीकों के रूप में इस युद्ध के पात्रों की व्याख्या करें तो हम पाते हैं कि अर्जुन वह आत्मा या व्यक्ति है जो भ्रमित है, द्वंद्व में है, अनिर्णय की स्थिति में है कि क्या करूँ, क्या न करूँ। कृष्ण उच्च चेतना, विवेक, आत्मज्ञान के प्रतीक हैं, जो व्यक्ति को भीतर से मार्गदर्शन करता है। कुरुक्षेत्र हमारा अंतर्मन / जीवन है, जहाँ सही और गलत की टकराहट होती है। पांडव सत्कर्म, संयम, धैर्य, धर्म के गुण के प्रतीक हैं, जबकि कौरव वासना, अहंकार, लोभ, मोह के प्रतीक हैं, जो मनुष्य को नीचे की ओर खींचते हैं। धृतराष्ट्र अंधा मोह और आत्म-अस्वीकृति (blind attachment), संजय जागरूकता / चेतना के प्रतीक हैं, जो देखने में सक्षम है, पर कुछ करने में भाग नहीं लेते। गीता का उपदेश आत्मबोध की उद्घोषणा – कर्मयोग, निष्कामता, आत्म-नियंत्रण का संदेश है। यह कथा हमें बहुत से गूढ़ संदेश (Deeper Insights)  देती है। हर मनुष्य का मन एक कुरुक्षेत्र है, जहाँ धर्म (सत्य, कर्तव्य) और अधर्म (मोह, स्वार्थ) के बीच निरंतर संघर्ष चलता है। अर्जुन की तरह हम भी कई बार निर्णयहीन हो जाते हैं, जीवन की जिम्मेदारियाँ और रिश्तों की उलझनें हमें कर्म से विचलित कर देती हैं। कृष्ण भीतर की वह आवाज़ हैं, जो हमें आत्म-ज्ञान से प्रेरित करती है। जब हम ध्यान और विवेक से काम लेते हैं, तब यह "कृष्ण" सक्रिय होता है और हमें कर्तव्यपथ पर चलने का मार्ग दिखाता है। पांडव और कौरव केवल दो पक्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर के दो प्रवृत्तियाँ हैं। हमें अपने जीवन में बार-बार यह  निर्णय लेना होता है – किसे पोषण दें, किसे जीतने दें। अंत में, विजय उन्हीं गुणों की होती है जो आत्मसंयम, विवेक, त्याग और धर्म पर आधारित हों। 


यदि हम केवल धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह एक पवित्र युद्ध था, गीता एक धार्मिक ग्रंथ है, कृष्ण भगवान हैं, और अर्जुन आदर्श भक्त। यदि हम आत्मबोध की दृष्टि से देखें तो यह जीवन का सतत युद्ध है – मन, बुद्धि और आत्मा के बीच। गीता एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मार्गदर्शन है, और कृष्ण हमारे भीतर की जागरूकता हैं, जो हमें कर्मयोगी बनने की प्रेरणा देती है। सार रूप में हम पाते हैं कि कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल बाहरी नहीं है, बल्कि वह भीतर की लड़ाई का दर्पण है। हर मनुष्य को जीवन में कई बार अर्जुन की स्थिति से गुजरना पड़ता है – जहाँ मोह, दायित्व और भावनाओं के बीच द्वंद्व होता है। उस समय अगर हमारे भीतर का कृष्ण जाग्रत हो जाए, तो जीवन की दिशा स्पष्ट हो जाती है।


सादर,

केशव राम सिंघल