Sunday, June 22, 2025

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

पौराणिक कथाएँ: श्रद्धा से आत्मबोध तक की यात्रा

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प्रतीकात्मक चित्र साभार NightCafe 

मैंने Economic Times में 21 जून 2025 को देवदत्त पटनायक का लेख "ईश्वर एक जनक, व्यवस्थाकर्ता, विध्वंसक के रूप में" (God as Generator, Organiser, Destroyer) पढ़ा और उसके अत्यंत सारगर्भित और गूढ़ विचारों से प्रभावित हुआ। इस लेख में  हिंदू पौराणिक दृष्टिकोण से सृष्टि, जीवन, भूख, भय और ईश्वर के प्रतीकों को गहराई से समझाया गया है। 


पौराणिक दृष्टिकोण से दुनिया और जीवन का अंतर निम्न है:


दुनिया (World) भौतिक जगत है, जिसमें पदार्थ, रसायन, तारे, ग्रह, भूमि, समुद्र हैं और जीवन (Life) जीवविज्ञान है, जो भूख और भय से प्रेरित अस्तित्व है। भूख और भय के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।


जीवन के आयामों के प्रतीक रूप में त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भूमिकाओं को देखते हैं तो हम पाते हैं कि ब्रह्मा की भूमिका जनक (Creator) की है।  वे भूख के जन्मदाता और जीवन की शुरुआत करने वाले हैं। विष्णु की भूमिका व्यवस्थाकर्ता (Organizer) की है। वे भूख और भय को संतुलित करने वाले और समाज में संतोष लाने का प्रयास करने वाले हैं। शिव की भूमिका विध्वंसक (Destroyer) की है। वे भूख और भय के अंतकर्ता हैं, वैराग्य और मुक्ति के प्रतीक। 


पौराणिक कहानियों के पात्र – आधुनिक विचारों के प्रतीक रूपक (metaphors) हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। इनके माध्यम से हम जटिल मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं को सरल रूप में समझ सकते हैं।


दृष्टि → अंतर्दृष्टि → प्रतिबिंब (Vision → Insight → Reflection)


1. दृष्टि (Vision): हमें यह दिखाती है कि लोग किन 'भोजनों' के पीछे भागते हैं – लक्ष्मी (संसाधन), दुर्गा (शक्ति), सरस्वती (ज्ञान)।

2. अंतर्दृष्टि (Insight): यह समझ देती है कि यह दौड़ भूख, असुरक्षा और जिज्ञासा से प्रेरित है।

3. प्रतिबिंब (Reflection): हम इन भावनाओं को **अपने भीतर** भी पहचानते हैं। हर व्यक्ति के भीतर ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे तत्व होते हैं, जो विचार और कर्मों को संचालित करते हैं।

 

पौराणिक कथाओं को हम उपकरण साधन (टूलकिट) की तरह देख सकते हैं। यदि हम पौराणिक कहानियों को राजनीतिक या केवल धार्मिक चश्मे से देखें, तो उनका गूढ़ अर्थ छूट जाता है। लेकिन यदि उन्हें आत्म-बोध और संतुलन के साधन के रूप में देखा जाए, तो वे हमारे भीतर की असंतोष, लालसा और भय को समझने और नियंत्रित करने का माध्यम बन सकती हैं।


देवदत्त पटनायक के इस लेख में यह सार है कि हिंदू पौराणिकता मानव मन की भूख, भय और जिज्ञासा को समझने का दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक उपकरण है। इसमें ईश्वर भी प्रतीक बन जाते हैं, और कथाएँ आत्म-परीक्षण का रास्ता बन जाती हैं।


मैंने इस पर विचार किया कि हम पौराणिक कथाओं को केवल धार्मिक या रूढ़िगत दृष्टिकोण से न देखकर आत्मबोध के उपकरण के रूप में कैसे देखें। नीचे मैं सती और शिव की एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा की धार्मिक और आत्मिक दोनों दृष्टिकोणों से तुलना करने का प्रयास करता हूँ। संक्षेप में कथा निम्न है - "सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और शिव की पत्नी थीं। एक बार उनके पिता ने एक विशाल यज्ञ आयोजित किया।  इस यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया, तब सती अत्यधिक व्यथित हुईं। अपने पति के अपमान को सहन न कर पाने के कारण उन्होंने यज्ञ स्थल पर ही आत्मदाह कर लिया। जब शिव को यह समाचार मिला, तो उन्होंने क्रोध में तांडव किया और संहारक रूप धारण कर लिया। अंततः, विष्णु ने सती के शरीर के टुकड़े कर पृथ्वी पर बिखेर दिए, जिससे शक्तिपीठों की स्थापना हुई।"


धार्मिक दृष्टिकोण से यह कथा बताती है कि शिव को अपमान सहन नहीं और सती पति के प्रति समर्पित थीं। यह कथा शक्तिपीठों की स्थापना की व्याख्या करती है। इस प्रकार यह श्रद्धा, व्रत, और शक्ति पूजा का आधार बनती है। यह दृष्टिकोण श्रद्धा-आधारित आस्था के लिए उपयोगी है।


इसी कथा को आत्म-बोध (Psychological/Philosophical) दृष्टिकोण से समझे तो आंतरिक भावनाओं और मानव व्यवहार के प्रतीक के रूप में हम पाते हैं कि सती प्रतीक रूप में आत्मा या भावनात्मक चेतना, शिव प्रतीक रूप में चेतना, वैराग्य और आत्म-नियंत्रण, दक्ष प्रतीक रूप में अहंकार और सामाजिक प्रतिष्ठा, यज्ञ प्रतीक रूप में बाहरी प्रदर्शन और समाज का दबाव , तांडव प्रतीक रूप में आंतरिक उथल-पुथल और अनियंत्रित भावनाएँ सम्प्रेषित करती है। यह कथा निम्न गूढ़ संदेश देती है - 


* जब भावनाएँ (सती) अहंकार (दक्ष) और समाज के नियमों (यज्ञ) से आहत होती हैं, तो उनका विनाश होता है।

* उस भावनात्मक आघात से चेतना (शिव) भी विचलित होती है – वह शांति खो बैठती है और क्रोध (तांडव) के रूप में प्रकट होती है।

* केवल संतुलन और विवेक (विष्णु) ही इस आंतरिक उथल-पुथल को संभाल सकते हैं।

* सती का शरीर विभाजित होना बताता है कि हमारा आंतरिक संतुलन टूटता है, और जीवन को पुनः एकत्र करने के लिए हमें अपने विखरे हुए अंशों को पहचानना और स्वीकार करना होता है। यही हैं शक्तिपीठ – हमारे भीतर के बिंदु जहाँ चेतना बिखरी पडी है। 


अगर हम इस कथा को केवल धार्मिक कहानी मान लें, तो हम पूजा, शक्तिपीठ और आस्था तक सीमित रह जाते हैं। लेकिन अगर हम इसे आत्मविश्लेषण और भावनात्मक समझ के रूप में देखें, तो यह सिखाती है - 


  * अपने अहंकार और भावनाओं को हमें संतुलित करना चाहिए।

  * भीतर के शिव और सती को कैसे पहचानना और पोषित करना चाहिए। 

  * जीवन में जब असंतुलन हो, तो विष्णु जैसे विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से समाधान लाना चाहिए। 


कुरुक्षेत्र का संग्राम, जिसे हम महाभारत के नाम से जानते हैं, केवल एक ऐतिहासिक या धार्मिक युद्ध नहीं है, बल्कि यदि हम इसे आत्म-बोध, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मनुष्य के भीतर चल रहे सतत संघर्ष का प्रतीक बन जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण (Traditional View) से कुरुक्षेत्र का युद्ध धर्म और अधर्म के बीच था। पांडव धर्मपथ पर थे, जबकि कौरव अन्याय और लोभ से प्रेरित थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देकर उसे धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित किया। यह युद्ध अंततः सत्य की विजय का प्रतीक बना। यह दृष्टिकोण हमें प्रेरणा देता है कि धर्म के पक्ष में खड़ा रहना चाहिए और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। आत्मबोध / मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological-Philosophical View) से हम देखें तो पाते हैं कि कुरुक्षेत्र वास्तव में हमारे ही भीतर का मैदान है। यह कथा हमारे अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व, दायित्व और मोह, विवेक और भावनाओं, आत्मा और अहंकार के बीच के संघर्ष को दर्शाती है। प्रमुख प्रतीकों के रूप में इस युद्ध के पात्रों की व्याख्या करें तो हम पाते हैं कि अर्जुन वह आत्मा या व्यक्ति है जो भ्रमित है, द्वंद्व में है, अनिर्णय की स्थिति में है कि क्या करूँ, क्या न करूँ। कृष्ण उच्च चेतना, विवेक, आत्मज्ञान के प्रतीक हैं, जो व्यक्ति को भीतर से मार्गदर्शन करता है। कुरुक्षेत्र हमारा अंतर्मन / जीवन है, जहाँ सही और गलत की टकराहट होती है। पांडव सत्कर्म, संयम, धैर्य, धर्म के गुण के प्रतीक हैं, जबकि कौरव वासना, अहंकार, लोभ, मोह के प्रतीक हैं, जो मनुष्य को नीचे की ओर खींचते हैं। धृतराष्ट्र अंधा मोह और आत्म-अस्वीकृति (blind attachment), संजय जागरूकता / चेतना के प्रतीक हैं, जो देखने में सक्षम है, पर कुछ करने में भाग नहीं लेते। गीता का उपदेश आत्मबोध की उद्घोषणा – कर्मयोग, निष्कामता, आत्म-नियंत्रण का संदेश है। यह कथा हमें बहुत से गूढ़ संदेश (Deeper Insights)  देती है। हर मनुष्य का मन एक कुरुक्षेत्र है, जहाँ धर्म (सत्य, कर्तव्य) और अधर्म (मोह, स्वार्थ) के बीच निरंतर संघर्ष चलता है। अर्जुन की तरह हम भी कई बार निर्णयहीन हो जाते हैं, जीवन की जिम्मेदारियाँ और रिश्तों की उलझनें हमें कर्म से विचलित कर देती हैं। कृष्ण भीतर की वह आवाज़ हैं, जो हमें आत्म-ज्ञान से प्रेरित करती है। जब हम ध्यान और विवेक से काम लेते हैं, तब यह "कृष्ण" सक्रिय होता है और हमें कर्तव्यपथ पर चलने का मार्ग दिखाता है। पांडव और कौरव केवल दो पक्ष नहीं, बल्कि हमारे भीतर के दो प्रवृत्तियाँ हैं। हमें अपने जीवन में बार-बार यह  निर्णय लेना होता है – किसे पोषण दें, किसे जीतने दें। अंत में, विजय उन्हीं गुणों की होती है जो आत्मसंयम, विवेक, त्याग और धर्म पर आधारित हों। 


यदि हम केवल धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह एक पवित्र युद्ध था, गीता एक धार्मिक ग्रंथ है, कृष्ण भगवान हैं, और अर्जुन आदर्श भक्त। यदि हम आत्मबोध की दृष्टि से देखें तो यह जीवन का सतत युद्ध है – मन, बुद्धि और आत्मा के बीच। गीता एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मार्गदर्शन है, और कृष्ण हमारे भीतर की जागरूकता हैं, जो हमें कर्मयोगी बनने की प्रेरणा देती है। सार रूप में हम पाते हैं कि कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल बाहरी नहीं है, बल्कि वह भीतर की लड़ाई का दर्पण है। हर मनुष्य को जीवन में कई बार अर्जुन की स्थिति से गुजरना पड़ता है – जहाँ मोह, दायित्व और भावनाओं के बीच द्वंद्व होता है। उस समय अगर हमारे भीतर का कृष्ण जाग्रत हो जाए, तो जीवन की दिशा स्पष्ट हो जाती है।


सादर,

केशव राम सिंघल 



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