Monday, September 9, 2019

#079 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*


#079 - *गीता अध्ययन एक प्रयास*

*ॐ*
*जय श्रीकृष्ण*

*गीता अध्याय 8 - अक्षरब्रह्मयोग*

8/5
*अंतकाले च मामेव स्वरन्मुक्त्वा कलेवरम् !*
*यः प्रयाति स सद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः !!*

8/6
*यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् !*
*तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः !!*

*भावार्थ*


जो व्यक्ति मृत्यु के समय में मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरे (भगवान के) स्वरूप को ही प्राप्त होता है (अर्थात उसकाकल्याण होता है), इसमें संशय (कोइ संदेह) नहीं है.

हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन) ! अंतकाल में व्यक्ति जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस भाव से सदा भावित होते हुए उस-उस भाव को ही प्राप्त होता है (अर्थात् उस योनि में चला जाता है, जिसका उसने स्मरण किया).

*प्रसंगवश*

परमात्मा को पाने की चाहना रखने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं. पहला, विवेक प्रधान साधक, जो मस्तिष्क प्रधान होता है और जिसमेँ श्रद्धा तो होती है पर जानने की मुख्यता होती है. दूसरा, श्रद्धा प्रधान , जो हृदय प्रधान होता है जिसमेँ जानने के साथ मानने की मुख्यता होती है.

व्यक्ति अंतकाल (मृत्यु के समय) में जैसा चिन्तन करता है, वैसी उसकी गति होती है. यदि वह अंत समय में भगवान का स्मरण करता है,तो उसे सदगति मिलती है, उसका कल्याण होता है. जिसका जैसा स्वभाव होता है, वह वैसा ही स्मरण करेगा. अतः हमें अपने स्वभाव को सदा निर्मल बनाते हुए भगवान का स्मरण करना चाहिए.

सादर,

केशव राम सिंघल

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